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तेजी से बढ़ती वैश्विक आबादी और उससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएं आज दुनिया के लिए एक बड़ी चुनौती है। स्वास्थ्य सुविधाओं की यह असमानता विकासील राष्ट्रों के साथ-साथ विकसित राष्ट्रों में भी है। बेहतर स्वास्थ्य का अधिकार व्यक्ति के भोजन पाने के मौलिक अधिकार से जुड़ा हुआ है, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में यह साधन संपन्न लोगों का विशेषाधिकार बनकर रह गया है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा की गारंटी का दावा बेहतर स्वास्थ्य की आधारशिला हो सकती है। जहां समाज का एक वर्ग खाने की अधिकता की वजह से मधुमेह, मोटापा, उच्च तनाव और हृदय संबंधी बीमारियों से ग्रसित हो रहा है वहीं दूसरा वर्ग भुखमरी और कुपोषण का शिकार हो रहा है। दोनों ही परिस्थितियों में जनस्वास्थ्य के मोर्चे पर स्थिति बिगड़ रही है और सरकार की योजनाएं फिसड्डी साबित हो रही हैं। भूख और कुपोषण से दुनिया की लगभग एक सौ बीस करोड़ आबादी त्रस्त है। यह कुल आबादी का लगभग चौदह प्रतिशत है। दुनिया में इस वक्त हर सात में से एक व्यक्ति भूख और कुपोषण का शिकार है। इस भूखी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा लगभग एक सौ करोड़ लोग विकासशील देशों में है।
दिलचस्प है कि चीन और भारत जैसी उभरती हुई आर्थिक महाशक्तियों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इसका शिकार है। पूरी दुनिया में हर साल लगभग 90 लाख लोग भूख की वजह से मौत के मुंह में चले जाते हैं। इनमें 50 लाख बच्चे शामिल हैं। कुपोषित मां की कोख से पैदा होने वाले प्रत्येक छह में एक बच्चा विकासशील देशो में कम वजन का पैदा होता है। दुनिया की लगभग 84 प्रतिशत आबादी एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका महाद्वीप में रहती है जिसमें अकेले चीन और भारत की आबादी 37 प्रतिशत है। इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा खाने की कमी के कारण घटिया स्वास्थ्य और कुपोषण का शिकार है फिर भी सरकार समस्या के समाधान के बजाय गरीबी रेखा के मामले में आंकड़ों की बाजीगरी दिखा अपनी पीठ थपथपाना चाहती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मान्य परिभाषा के अनुसार स्वस्थ्य रहने का अर्थ सिर्फ रोगों से मुक्ति नहीं है, बल्कि शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना होता है। बेहतर जीवनदशा से ही तय होता है कि किसी राष्ट्र के जनस्वास्थ्य की स्थिति कैसी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य का निर्धारण व्यक्ति विशेष के सामाजिक और आर्थिक परिवेश पर निर्भर करता है। अपने नागरिकों को बेहतर जीवनदशा उपलब्ध करवाना किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य का दायित्व है। आकडे़ इस बात की गवाही देते हैं कि दुनिया के अधिकांश देश खासकर विकासशील देश बेहतर जीवनदशा उपलब्ध कराने के इस उद्देश्य में नाकाम रहे हैं। यह समस्या दो स्तरों पर है पहला तो भुखमरी का शिकार होने का है और दूसरा पौष्टिकता के अभाव का है। संतुलित आहार और पौष्टिकता के अभाव में जिस तरह की जटिल स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो रही हैं जो स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करा देने मात्र से दूर नहीं हो सकतीं। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं देनी चाहिए या उनमें कटौती की जानी चाहिए।
विकासशील देशों में कुपोषण की समस्या कई रूप में है। पहले प्रकार का कुपोषण प्रोटीनयुक्त भोजन की कमी की वजह से होता है तो दूसरे प्रकार का कुपोषण आवश्यक विटामिन और खनिज तत्वों की कमी के कारण होता है। प्रोटीन की कमी से होने वाला कुपोषण अपेक्षाकृत अधिक जानलेवा होता है। दुनिया की कुल आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा एनीमिया की बीमारी से ग्रस्त है। गर्भावस्था के दौरान 20 प्रतिशत महिलाओं की मौत एनीमिया से होती है। वहीं आयोडीन की कमी से विश्व आबादी का 13 प्रतिशत हिस्सा प्रभावित है। भारत सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए अगले पांच साल में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को सकल घरेलू उत्पाद के ढाई प्रतिशत तक करना चाहती है।
लेखक तारेंद्र किशोर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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