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दंगों के दस साल बाद

जागरण मेहमान कोना
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गोधरा कांड के बाद हुए दंगों की दुखद स्मृतियों से बाहर निकलकर गुजरात को नई विकास गाथा रचते देख रहे हैं अरुण जेटली


हर दंगा अपने पीछे गहरे जख्म छोड़ जाता है। यह समाज को विभाजित कर देता है और जन्म के आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण कर देता है। प्रत्येक नागरिक समाज को इस प्रकार के सामाजिक तनाव से खुद को मुक्त करना होगा। दुर्भाग्य से गुजरात में लंबे समय से दंगों का इतिहास रहा है। गुजरात में आखिरी बड़ा दंगा 2002 में हुआ था। ऐसे में गुजरात दंगों का पुनरावलोकन करने के साथ-साथ यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि दंगों के दस साल बाद गुजरात आज कहां खड़ा है? इस दशक में गुजरात दंगों से मुक्त रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 2002 की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं फिर कभी न दोहराई जाएं। आज गुजरात का एजेंडा सामाजिक विभाजन का नहीं है। आज इसका लक्ष्य विकास, नागरिकों के जीवनस्तर में सुधार और विश्व के सफलतम समाजों से होड़ लेना है। गुजराती 2002 की स्मृतियों से उबरना चाहते हैं। इन दंगों की याद वे लोग ताजा कर रहे हैं जो अतीत की दुखद स्मृतियों को प्रासंगिक बनाए रखना चाहते हैं।


27 फरवरी, 2002 को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे नंबर एस-6 में लगाई गई आग एक बर्बर हरकत थी। इस घटना को देश में सांप्रदायिक माहौल खराब करने की नीयत से कुछ शैतानी तत्वों ने अंजाम दिया था। इससे पूरा समाज चकित रह गया। बहुत से लोग प्रतिशोध की अग्नि में जलने लगे। हिंसा इतनी व्यापक हो गई कि राज्य के सुरक्षा बंदोबस्त नाकाफी सिद्ध हुए। दंगों से निपटने के लिए सेना बुलाई गई। इस हिंसा में बहुत से निर्दोष मारे गए। दर्जनों लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए। इसकी तुलना 1984 में सिख विरोधी दंगों से करें तो दंगाइयों से निपटने में पुलिस की निष्क्रियता सामने आती है। गुजरात दंगों में हजारों आरोप-पत्र दाखिल हुए, बहुत से लोगों को दोषी ठहराया गया, कुछ मामले अभी भी लंबित हैं। बहुत से महत्वपूर्ण मामलों की न्यायपालिका निगरानी कर रही है। भारत में अब तक किसी भी दंगे में इतने आरोपपत्र दाखिल नहीं किए गए और इतने लोगों को दोषी नहीं ठहराया गया, जितना गुजरात दंगे में। दूसरी ओर 1984 के सिख विरोधी दंगों में नाममात्र के आरोपपत्र दाखिल किए गए। यहां तक कि सिखों की हत्याओं पर पीयूसीएल की रिपोर्ट को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। इन दंगों में मीडिया ने चुप्पी साधे रखी और न्यायपालिका निष्क्रिय रही।


गुजरात के राजनीतिक नेतृत्व, खासतौर पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को नेतृत्व की गंभीर परीक्षा से गुजरना पड़ा। क्या वह गोधरा और गोधरा के पश्चात के हालात के लिए जिम्मेदार हैं? बहुत से लोग मोदी के खिलाफ माहौल बनाए रखना चाहते हैं। मोदी और गुजरात सरकार उनके द्वारा खड़ी की गई बहुत सी बाधाओं को पार कर चुके हैं। तमाम परेशानियों के बावजूद राज्य ने अभूतपूर्व विकास किया। गुजरात की विकास दर दोहरे अंकों में पहुंच गई। राज्य में 24 घंटे बिजली आती है। नर्मदा परियोजना के कारण सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंच गया है। लालफीताशाही पर लगाम लग गई है। भ्रष्टाचार में कमी आई है और विश्वस्तरीय सड़कों का जाल बिछ गया है। इसके कारण घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेशक गुजरात की और आकृष्ट हुए हैं। आज विश्व गुजरात को उसकी विकास गाथा और जबरदस्त आर्थिक संभाव्यता के कारण जानता है। इस विकास का लाभ प्रदेश के निचले तबके तक पहुंचा है। राज्य के बढ़ते राजस्व से अनेक सामाजिक कल्याण और गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। गुजरात के हिंदू और मुसलमान, दोनों ही इस विकास के भागीदार हैं। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि गुजरात के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति देश के अन्य भागों के मुसलमानों की अपेक्षा बेहतर है। पिछले दस वर्षो में गुजरात बदल चुका है और यह कुछ एनजीओ और कांग्रेस पार्टी को रास नहीं आ रहा है। गुजरात के बदले रूप से उनकी राजनीति को लाभ नहीं पहुंचता। इसलिए उनके लिए यह जरूरी है कि गुजरात की दंगाग्रस्त राज्य की छवि को जिंदा रखा जाए। राजनीतिक रूप से वे हार रहे हैं। कांग्रेस चुनाव में नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकती इसलिए वह उन्हें सत्ता से बेदखल करने के लिए नए हथकंडे अपना रही है। कांग्रेस की शुरुआती रणनीति थी कि मीडिया के एक वर्ग का इस्तेमाल करते हुए नरेंद्र मोदी के खिलाफ अफवाहें, झूठफरेब और कुप्रचार किया जाए। वर्षो तक एक भयावह कहानी सुनाई जाती रही कि दंगाइयों ने क्या-क्या किया। यह पूरी कहानी गढ़ी हुई थी।


दंगों में संलिप्तता के संबंध में गुजरात पुलिस को नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। अदालत में विशेष जांच दल के लिए याचिका दाखिल की गई। गुजरात पुलिस के विशेष जांच दल को भी मोदी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला। इसके बाद सीबीआइ के पूर्व अधिकारियों का जांच दल बनाया गया। मीडिया की खबरों से संकेत मिल रहा है कि उसमें भी मोदी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं है। हर मुठभेड़ फर्जी मुठभेड़ नहीं होती। अन्य राज्यों में यह माना जाता है कि मुठभेड़ जायज है और उसकी जांच राज्य का तंत्र ही करता है। हालांकि गुजरात में मुठभेड़ की जांच करने के कानूनी मापदंड अलग हैं। लश्करे-तैयबा के आतंकियों से संबद्ध एक महिला कार्यकर्ता और उसके कुछ साथी एक पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे। केंद्र सरकार ने इस मुठभेड़ को वास्तविक बताने वाला शपथपत्र वापस ले लिया। लश्करे-तैयबा ने अपनी वेबसाइट में भी उसे अपना कार्यकर्ता बताया है। एक अदालत ने विशेष जांच दल का गठन कर इस मामले की जांच सौंप दी। इस दल में केंद्र सरकार और एनजीओ द्वारा नामित अधिकारियों को शामिल किया गया। ऐसे में इस जांच दल से निष्पक्षता की उम्मीद कैसे रखी जा सकती है।


पिछला एक दशक गुजरात सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। गुजरात में सामाजिक तनाव का इतिहास रहा है, जबकि पिछले दस वर्षों में गुजरात में पूरी शांति रही। गुजरात ने अपने अतीत से पीछा छुड़ाकर आर्थिक विकास के रास्ते पर चलने का प्रयास किया है। गुजरात की त्रासदी यह है कि चूंकि मोदी के विरोधी उन्हें राजनीतिक रूप से नहीं हरा सकते इसलिए वे एनजीओ और मीडिया के एक वर्ग के पीछे छुपकर वार कर रहे हैं। यही उम्मीद की जा सकती है कि न्यायपालिका इस पचड़े से अलग रहे। दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए, किंतु मीडिया में दोषसिद्धि और साक्ष्यों के साथ खिलवाड़ का सिलसिला बंद होना चाहिए। सौहा‌र्द्र और विकास ही सबसे अच्छा इलाज है। गुजरात में दो पक्षों के बीच संघर्ष जारी है। एक गुजरात को 2002 के दौर में खींच कर ले जाना चाहता है और दूसरे का विश्वास है कि यह सदी गुजरात के नाम रहेगी। अब गुजरात के सामने इस नकारात्मक शक्ति से पार पाने की चुनौती है।


लेखक अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं


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