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स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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अब यह तथ्य बहस से परे है कि आर्थिक व सामाजिक विषमताएं पोषण व स्वास्थ्य की असमान उपलब्धियों को जन्म देती हैं। हमारे देश की 70 प्रतिशत संपत्ति व स्रोतों पर दो हजार से भी कम धनकुबेरों का कब्जा है, जिन्होंने लोकतंत्र की नई और विकृत परिभाषा को जन्म दिया है कि पूंजीपतियों की सरकार, पूंजीपतियों के लिए और पूंजीपतियों द्वारा। आज हमारे देश की तकरीबन आधी आबादी 20 से 32 रुपये प्रतिदिन में गुजर-बसर करने को मजबूर है, लेकिन दूसरी ओर कुछ हजार लोग 5 से 6 करोड़ रुपये का पैकेज लेते हैं। असमानता की यह खाई लगातार चौड़ी हो रही है। संविधान में इस बात का वायदा होते हुए भी कि लोगों को स्वास्थ्य व शिक्षा प्रदान कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगी, सरकार इसे पूरा करने से लगातार मुकर रही है। स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण किया जा रहा है जिससे आम लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है। भारत जैसा गरीब और विकासशील देश जहां मातृ एवं शिशु मृत्यु दरों का प्रतिशत दुनिया के तमाम छोटे व विकासशील देशों से भी बदतर स्थिति में है, में तकरीबन 80 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर निजी क्षेत्र का कब्जा है। ग्रामीण भारत के स्वास्थ्य की बेहतरी का काम वर्ष 2005 में प्रारंभ किया गया। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने अपने 7 वर्ष का पहला चरण पूरा कर लिया है। इसके अंतर्गत यह वायदा किया गया था था कि सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च किया जाएगा।


प्रथम चरण की समाप्ति पर यह प्रतिशत 1.3 पर ही अटक गया। इस मिशन के अंतर्गत ग्रामीण भारत के स्वास्थ्य के साथ एक मजाक के सिवाय और कुछ नहीं किया गया। इस मामले में उत्तर प्रदेश का उदाहरण हम सभी के सामने है। आंकड़े बता रहे हैं कि भारतीय ग्रामीणों को कर्ज में कैद रखने का सबसे बड़ा कारण स्वास्थ्य की देखभाल पर होने वाला आकस्मिक खर्च है। सार्वजनिक और निजी चिकित्सालयों में भर्ती होने वाले कुल मरीजों में से 40 प्रतिशत कहीं से भी कर्ज लेने या अपने घरों के जरूरी सामानों को बेचने को मजबूर होते हैं ताकि उन्हें सही इलाज मिल सके। तकरीबन 25 प्रतिशत लोग तो पैसा न देने के कारण इलाज कराने की हैसियत के दायरे से ही बाहर रह जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट को मानें तो हमारे देश में 65 प्रतिशत लोगों को नियमित रूप से आवश्यक दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना तक स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो हासिल करना था वह तो नहीं किया जा सका। अब 12वीं पंचवर्षीय योजना के बजट में वृद्धि करते हुए सरकार ने राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन प्रारंभ करने तथा 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करने का वायदा किया गया है।


आम लोग आज जहां बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर हमारा देश मेडिकल टूरिज्म के नाम पर विदेशी अमीरों के स्वास्थ्य की सैरगाह बनता जा रहा है। स्वास्थ्य पर खर्च की तुलना जब हम अन्य देशों से करते हैं तो हमारे देश का स्थान नीचे से छठवां आता है। यानी हमारे देश से ऊपर मलेशिया, श्रीलंका, थाइलैंड व बांग्लादेश हंै, चीन को तो छोड़ ही दिया जाए। इस बार के बजट में यद्यपि स्वास्थ्य हेतु 30,702 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यह पिछले बजट से 14 प्रतिशत ज्यादा है, लेकिन यह 11वीं पंचवर्षीय योजना में किए गए सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 से 3 प्रतिशत के वायदे से काफी कम है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का बजट भी पिछली बार से 15 प्रतिशत बढ़ाकर 20,822 करोड़ रुपये कर दिया गया है। सरकार ने चिकित्सा शिक्षा के लिए 4182.38 करोड़ रुपये का प्रशिक्षण व शोध प्रावधान भी इस बजट में किया है। योजना आयोग के अनुसार भारत में अभी छह लाख चिकित्सकों, 10 लाख नर्सो तथा 2 लाख दंत चिकित्सकों की कमी है। इनके साथ-साथ पैरामेडिकल स्टॉफ की भी भारी कमी है। मध्य प्रदेश में चिकित्सा विशेषज्ञों की भारी कमी है। यहां के 1155 प्राथमिक स्वास्थ्य केंदों में से 196 तो बिना चिकित्सकों के ही संचालित हैं। वर्तमान में देश में विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के लगभग 11,25,000 चिकित्सक विभिन्न चिकित्सा परिषदों में पंजीकृत हैं जिनमें से मात्र 1,25,000 ही सरकारी अस्पतालों में काम कर रहे हैं। अर्थशास्त्र बताता है कि किसी भी सेवा का मूल उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। लगातार स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के पीछे सरकार द्वारा अपनाई जा रही वह नीतियां हैं जो आम लोगों से किए वायदों के खिलाफ जाती हैं।


उदाहरण के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2002 में कहा गया है कि सार्वजनिक स्रोतों का उपयोग समाज के सभी वर्गो के लिए नहीं, बल्कि कुछ विशेष पात्रता वाले वर्गो के लिए ही किया जाएगा। जो लोग सक्षम हैं, उनसे यह आशा की जाती है कि वे निजी क्षेत्रों से स्वास्थ्य सेवाओं को खरीदें। निजीतंत्र को स्थापित किए जाने हेतु सरकार ने आर्थिक खासकर विदेशी निवेश, बीमा पॉलिसी, कर छूट आदि कई ऐसे प्रावधान किए हैं जो कि स्वास्थ्य सेवाओं को बाजारीकृत करने में मददगार है। इसके अलावा मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा दिए जाने से से भी निजीकरण को मदद मिली है। इनके मद्देनजर तमाम राज्यों की सरकारों ने किस्म-किस्म के विशेष पैकेज बनाए हैं ताकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी तंत्र के निवेश को उभारा जा सके। निजी चिकित्सा और नर्सिग महाविद्यालय, निजी अस्पताल, नर्सिग होम्स, डायग्नोस्टिक केंद्र इत्यादि खोलने वालों के हौसले बढ़ाने के लिए सरकार हरसंभव प्रयास करती है। इसके लिए उन्हें सस्ती जमीनें, स्टांप ड्यूटी में छूट, बिजली के बिलों में छूट आदि दिया जाता है। विकास के दोषपूर्ण मॉडल के क्रियान्वयन से लोगों की जीवन शैली में कई नकारात्मक किस्म के बदलाव आने स्वाभाविक हैं। आज जीवन शैली से जुड़ी बीमारियां ज्यादा देखने को मिल रही हैं। वर्ष 2009 के अपने दस्तावेज में मध्य प्रदेश सरकार ने पीपीपी यानी निजी सरकारी सहभागिता को और बढ़ाने पर जोर दिया है। पीपीपी मॉडल को आम जन के हित में बताने के लिए इसे निजी निवेश से चलने वाली सार्वजनिक परियोजना का नाम दिया गया है। यह अलग बात है कि सार्वजनिक-निजी भागीदारी का सर्वाधिक खामियाजा आम लोगों को ही उठाना पड़ता है।


सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सरकारों को ज्यादा खर्च करने की जरूरत है। इस तरह के रास्ते निर्धारित हों जिससे स्वास्थ्य के लिए आवंटित बजट को समुदाय की निगरानी में लाया जाए ताकि लोगों की जेबें न कटें। इस हेतु निजी तंत्र को नियंत्रित रखते हुए व्यावहारिक भागीदारी निभानी होगी। आम जनता के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य की देखरेख को सुनिश्चित कराना लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली जिम्मेदारी है। इसके लिए जरूरी है कि सरकारें अपने एजेंडे को न भूलें और आम जनता से किए गए वायदों को पूरा करें। स्वास्थ्य, शिक्षा जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं, जिन्हें पूरा कराना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी होना चाहिए।


लेखक राहुल शर्मा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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