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आतंकवाद से ग्रस्त जम्मू-कश्मीर राज्य में अब स्थिति नियंत्रण में लग रही है और सुधार के स्पष्ट संकेत नजर आ रहे हैं। लोग निश्चिंत होकर घूम-फिर रहे हैं, पर्यटन व्यवसाय फल-फूल रहा है, खेल आयोजन, सांस्कृतिक कार्यक्रम और धार्मिक समारोह हर्षोल्लास के साथ आयोजित किए जा रहे हैं। लोग चुनाव तथा अन्य गतिविधियों में निर्भय होकर भाग ले रहे हैं। नए हालात से अलगाववादियों तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों के मंसूबों पर पानी फिर गया है। इससे लोगों को भी राहत की सांस मिली है और वे अब शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं। पिछले तीन सालों में कानून-व्यवस्था की बहाली पर जोर का असर दिखने लगा है। खुफिया सूत्रों का अनुमान है कि अब कश्मीर में करीब 200 उग्रवादी बचे हैं, जबकि 2001 में इनकी संख्या करीब 7000 थी। पिछले साल आतंकवादी घटनाओं में 32 लोग मारे गए जबकि 2001 में 1067 लोग मारे गए थे। पुलिस ने अत्यधिक दुस्साहसी पाक आतंकवादी संगठन लश्करे-तैयबा के शीर्ष नेताओं का सफाया कर दिया है। राज्य में शांति-बहाली के लिए आम आदमी सेना का ही नाम लेते हैं। आतंकवाद से निपटने के साथ-साथ आम लोगों को राहत पहंुचाने की रणनीति के कारण ही यह बदलाव संभव हो सका।
आतंकवादियों के खिलाफ आपरेशन के साथ-साथ सेना ने सद्भावना अभियान से लोगों का दिल जीता। इसके लिए सेना ने सबसे पहले नियंत्रण रेखा पर अपनी स्थिति मजबूत करके जिहादियों की घुसपैठ को रोकने के साथ ही उग्रवादियों के पुराने अड्डे नष्ट किए। इसके अलावा मुंबई आतंकी हमलों के बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते पाकिस्तान को कश्मीर में जिहादियों को अपना समर्थन कम करना पड़ा। इसके अतिरिक्त खुद कश्मीरी भी अलगाववादियों से तंग आ चुके थे। वर्ष 2008 और 2009 में राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय चुनावों में 60 प्रतिशत लोगों ने हिस्सा लिया। इससे अलगाववादियों को हिंसा छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। 2011 में भी अलगाववादियों द्वारा मतदान का बहिष्कार करने की अपील के बावजूद 80 प्रतिशत लोगों ने वोट डाले। पिछले साल दस लाख पर्यटक घाटी में आए। जर्मनी ने तो अपने नागारिकों के लिए यात्रा-परामर्श को ही बदल दिय जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। सेना के सद्भावना अभियान के बाद कश्मीरियों को अहसास होने लगा है कि उनकी असली रक्षक सेना है।
आतंकवाद का शिकार सबसे ज्यादा महिलाएं और बच्चे होते हैं इसलिए सेना ने उनका विशेष ध्यान रखा। पर इसका मतलब यह नहीं है कि इन उपलब्धियों पर संतुष्ट होकर हम बैठ जाएं। आतंक कभी भी पूरे जोर के साथ हमला कर सकता है इसलिए इसे रोकने के लिए नेताओं को राजनीतिक माहौल को भी उसी तरह सामान्य बनाना होगा। इस बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम यानी एएफएसपीए है। 1990 में कश्मीर में यह अधिनियम लागू किया गया था। इस कानून को हटाने से राज्य में भारत-समर्थक नेताओं की छवि सुधरेगी और वे अलगाववादियों के गढ़ों में अपने लिए राजनीतिक स्थान बना सकेंगे। इससे अलगाववादी नई दिल्ली के साथ बातचीत के लिए विवश होंगे और वह राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने को विवश होंगे। राजनीतिक बदलाव से सुरक्षा पर भी असर पड़ेगा।
उग्रवाद को लंबे समय तक जिंदा रहने के लिए स्थानीय समर्थन जरूरी है। सुरक्षा में सुधार से उत्साहित होकर इस साल 10 हजार केंद्रीय सुरक्षा कर्मियों को हटाने पर विचार हो रहा है ताकि कश्मीरियों का दिल भी जीता जा सके। इससे उमर अब्दुल्ला को सहूलियत होगी और वह अपना ध्यान आर्थिक प्रगति और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने पर दे सकेंगे। पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू हो चुकी है यह अच्छी बात है, लेकिन इसे आंतरिक वार्ता से जोड़ना सही नहीं होगा, क्योंकि दोनों बातें अलग हैं। आतंकवादियों की घटती संख्या पर अडनी ब्यूरो की रिपोर्ट
आतंकवादियों की घटती संख्या पर अडनी ब्यूरो की रिपोर्ट
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