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भारत के लिए जटिल चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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Uday Bhaskarमालदीव में सत्ता परिवर्तन के घटनाक्रम को भारत के लिए संवेदनशील मुद्दा मान रहे हैं सी. उदयभाष्कर


विगत सात फरवरी को मालदीव में जो राजनीतिक संकट उभरा और जिसके चलते राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद को अपना पद गंवाना पड़ा उसे भारत के लिए इस क्षेत्र में एक जटिल चुनौती के रूप में देखा जाना चाहिए। मालदीव में उपराष्ट्रपति मोहम्मद वहीद हसन माणिक ने राष्ट्रपति की कुर्सी संभाली है। यह देश हिंद महासागर में 1200 छितराए द्वीपों से मिलकर बना है और यह भारत के दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र में चार सौ किलोमीटर की दूरी पर है। 17वीं शताब्दी में यह नीदरलैंड का संरक्षित क्षेत्र था और बाद में यह ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया। 1965 में मालदीव को स्वतंत्रता मिली। राष्ट्रपति अब्दुल गयूम ने अपने तीन दशक के शासन के दौरान इस देश को राजनीतिक स्थिरता प्रदान की-यद्यपि उनका शासन तानाशाही सरीखा था। 2008 में देश में हुए पहले स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के बाद मोहम्मद नशीन ने गयूम को सत्ता से बाहर कर खुद राष्ट्रपति की कुर्सी संभाली। सौ प्रतिशत इस्लामिक देश मालदीव की आबादी करीब चार लाख है। उदार लोकतंत्रवादी के रूप में नशीद ने मालदीव के सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक ढांचे में अनेक सुधार किए और यह साफ है कि उन्होंने जितने सोचे थे उससे कहीं अधिक दुश्मन पैदा कर लिए।


मौजूदा राजनीतिक संकट पिछले पांच दिनों से जारी है और इसके चलते भारत के लिए कुछ तकलीफदेह स्थिति उत्पन्न हुई है। विरोध के तेज होते स्वरों के बीच प्रारंभ में यह घोषणा की गई थी कि नशीद ने खुद ही त्यागपत्र देने की घोषणा की है और उन्होंने उपराष्ट्रपति वहीद को सत्ता सौंप दी है। मालदीव ने शासन के अमेरिकी माडल को अपनाया है, जिसके तहत राष्ट्रपति के हटने के बाद उपराष्ट्रपति स्वत: ही देश का प्रमुख बन जाता है। एक दिन बाद ही नशीद ने यह दावा किया कि उनसे बंदूक की नोंक पर सत्ता छीनी गई है। इस दौरान नई दिल्ली ने मालदीव में सत्ता परिवर्तन का स्वागत किया तथा नशीद समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच हिंसक झड़पों के बीच अपना एक विशेष दूत भी हालात का जायजा लेने के लिए मालदीव भेजा है। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका ने भी अपने-अपने दूत मालदीव भेजे हैं। यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि इस क्षेत्र में भारत की प्रमुखता को झटका लगा है और यह एक प्रमुख चुनौती है जिसका नई दिल्ली को सामना करना पड़ेगा। स्थिति इसलिए अधिक जटिल नजर आ रही है, क्योंकि मजलिस के स्पीकर के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार के काम करने के बीच नशीद ने नए चुनावों की मांग की है। दूसरी ओर नए राष्ट्रपति वहीद इस पर जोर दे रहे हैं कि वह संविधान के मुताबिक शासन के प्रमुख हैं और सभी राजनीतिक दलों को मिलाकर वह एक राष्ट्रीय सरकार का गठन करना चाहते हैं। इन स्थितियों में पूर्व राष्ट्रपति गयूम की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। यह उल्लेखनीय है कि गयूम नशीद के समर्थक नहीं हैं और स्वाभाविक रूप से उन्होंने वहीद सरकार का स्वागत किया है। गयूम ने इससे भी इंकार किया है कि नशीद को सत्ता से हटाने में उनका कोई हाथ है।


राजनीतिक सत्ता की बात छोड़ दी जाए तो मालदीव के सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक माडल का सवाल कहीं बड़ा है। आखिर सौ प्रतिशत इस्लामिक मालदीव लोकतांत्रिक शासन के कैसे स्वरूप को ग्रहण करता है? मालदीव की युवा पीढ़ी मुख्य रूप से राष्ट्रपति माले और नवंबर 2011 में सार्क सम्मेलन की मेजबानी करने वाले शहर अडू में केंद्रित है और वह बदलाव की अपेक्षा कर रही है। युवा पीढ़ी की निगाह आधुनिकता पर है और वह संचार तंत्र से जुड़े नए वैश्विक समाज से खुद को संबद्ध करना चाहती है। दूसरी ओर मालदीव के रूढि़वादी मजहबी तत्व 11 सितंबर की आतंकी घटना के पहले और बाद के दौर के प्रभाव में हैं तथा उनका जोर सभी क्षेत्रों में इस्लामिक कट्टरता के प्रसार पर है। स्वाभाविक रूप से वे मालदीव के लिए नशीद के दृष्टिकोण के विरोधी हैं। नशीद ने अपने शासन में जो अनेक बदलावों की पहल की उनका इसी वर्ग ने पुरजोर विरोध किया। मौजूदा विवाद इसलिए भड़का, क्योंकि नशीद ने न्यायपालिका पर अपनी इच्छा लागू करने की कोशिश की, जबकि न्यायपालिका ने कट्टरता और आतंकवाद से जुड़े कतिपय मामलों में धार्मिक आग्रहों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन किया है।


मालदीव के लिए अगले कुछ दिन बेहद महत्वपूर्ण हैं। माले खुद अपने राजनीतिक समाधान की दिशा तलाशेगी। संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका के दूतों की उपस्थिति के कारण भारत को स्थिति शांत करने के अपने प्रयासों में मदद मिल सकती है। भारत चाहेगा कि उसके पड़ोस में जो राजनीतिक जटिलता उत्पन्न हो गई है उसका जल्द से जल्द समाधान निकले। फिर भी भारत को इस घटनाक्रम के महत्व की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। हिंद महासागर में मालदेव की स्थिति भारत के लिए भौगोलिक-सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। यह भारत के हित में है कि माले में एक स्थिर, उदार और लोकतांत्रिक शासन हो तथा नई दिल्ली के साथ उसके मैत्रीपूर्ण संबंध हों। मालदीव के समीकरण के संदर्भ में चीन और पाकिस्तान के अपने-अपने स्वार्थ हैं। भारत यह कतई नहीं चाहेगा कि मालदीव में इस्लामिक पहचान हावी हो और सत्ता में उन लोगों का दबदबा कायम हो जो न केवल कट्टरपंथी विचारधारा रखते हैं, बल्कि भारतीय हितों के खिलाफ काम करते हैं। अंतिम बार ऐसा अफगानिस्तान में हुआ था और इसकी कीमत भारत को 1999 में कंधार विमान अपहरण कांड के रूप में चुकानी पड़ी थी। भारत को इस क्षेत्र में अपने ऊपर असंवेदनशील प्रमुख राष्ट्र का ठप्पा नहीं लगने देना होगा। उसे नशीद को पद से हटाए जाने की परिस्थितियों पर फिर से विचार करना होगा और इस पर भी कि क्यों वह मालदीव के घटनाक्रम का अनुमान नहीं लगा सका?


लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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