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महानता की अपनी एक कीमत होती है। कोई भी इस कीमत को चुकाए बिना महान नहीं हो सकता है। भरोसेमंद, दीवार, रीढ़ होना और न जाने क्या-क्या, इसी महानता के पर्यायवाची शब्द हैं। हरेक शब्द की अपनी राजनीति है और उसका एक उद्देश्य होता है। पर इन सभी शब्दों में भरोसेमंद होने का अपना ही एक अलग मजा और एक अलग दृष्टिकोण है। हम उन्हें भरोसेमंद कह देते है जिन्हें हम वह जगह नहीं दे पाते जिसके वह हकदार होते हैं, लेकिन करें क्या हम उन्हें छोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि उन जैसा दूसरा कोई है भी नहीं। जीवन के रिश्तों में यह हकीकत है। आप इसे तभी महसूस कर सकते है जब आप किसी इंसान के लिए बेहतर और उसे सुरक्षित रखने की कोशिश करते हैं और वह भी उससे बिना कुछ मांगे। हो सकता है मेरी कुछ पंक्तियां बहुतों के करीब से गुजर जाएं पर मेरा यह उद्देश्य है भी कि जिस बात का उल्लेख मैं यहां कर रही हूं उसके लिए यह पंक्तियां अक्षरश: सही हैं। मैं राहुल द्रविड़ की बात कह रही हूं। खेल प्रेमियों के बीच राहुल द्रविड़ का नाम लीजिए तो लोगों का उनकी बुराई करने का अंदाज भी उनके खेल की विधा की तरह ही, आलोचना के बहाने उनकी तारीफ में छुपी होती है और इस तारीफ में न जाने क्या-क्या होता है। राहुल द्रविड़ सच में एक खिलाड़ी हैं।
भारतीय आंचलिक व्यंग्य परंपरा में खिलाड़ी शब्द का अपना एक मतलब है और अगर इस मतलब को समझने की कोशिश करें तो एक ऐसा शख्स जो विपरीत परिस्थितियों में भी बाजी अपने विरोधियों को नहीं सौंपता। राहुल द्रविड़ उन्हीं में से एक हैं। अपने खेल से राहुल द्रविड़ ने सचमुच एक खिलाड़ी होने के दावे को पूरा किया हैं और उस उम्मीद पर खरा उतरे हैं जो उनसे की गई। भारतीय आंचलिक व्यंग्य परंपरा में भी। आंकड़ों की गणना, औसत स्ट्राइक के पैमाने से भी देखें तो राहुल अपने समकालीन और पुरातन महारथियों से न तो पीछे नजर आते हैं और न ही किसी मामले में कमतर। 344 एकदिवसीय मैच सिर्फ तकनीक के दम पर खेल डाले, लगभग 11 हजार (10,889) रन बनाए और 40 (39.16) के औसत से 12 शतक और 83 अर्धशतक लगाए। गणना के बल पर यह सब आलोचना करने वालों के लिए बहुत है, लेकिन राहुल द्रविड़ को इस सब के लिए मिला सिर्फ भरोसेमंद अथवा भरोसे की दीवार होने का तमगा।
भारत में बड़े खिलाडियों की एक लंबी सूची है। बहुतों को सम्मान उनकी योग्यता के आधार पर मिलता रहा है पर राहुल के लिए यह प्रशंसा करने वालों के मुख पर एक सहानुभूति की माला के साथ निकलती है, क्योंकि राहुल द्रविड़ तब खेल रहे हैं जब उनके समकालीन रिटायर हो चुके हैं। उनका दुर्भाग्य ही कहें कि चाहे एकदिवसीय क्रिकेट रहा हो या टेस्ट क्रिकेट, उन्होने जब लाजवाब पारियां खेलीं तो दूसरे छोर से किसी खिलाड़ी ने मंत्रमुग्ध कर देने वाले खेल का प्रदर्शन किया। ऐसी स्थिति में प्रंशसा के बादलों ने द्रविड़ के लिए हमेशा वृष्टिछाया क्षेत्र ही बनाए। कई पारियां इसकी गवाह रही हैं चाहे वह ईडन गार्डेन के मैदान में ऑस्ट्रेलिया से फॉलोऑन के बाद 180 रन की मैराथन पारी खेलना रहा हो जिसमें लक्ष्मण के 281 रन की ऐतिहासिक पारी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। एकदिवसीय पारियों में उनकी वह सर्वोच्च पारी यादगार है जिसमें उन्होंने सौरभ गांगुली की 183 रनों की पारी की छाया में 145 रन बनाए। यह संयोग राहुल के साथ एक बार नहीं हुआ, कई मौकों पर उनकी बड़ी हिस्सेदारी किसी और के हिस्से में चली गई या कई हिस्सों में बंट गई, लेकिन राहुल खेलते रहे और लोगों को मजबूर करते रहे कि लोग उनकी प्रशंसा उनकी उस शैली के लिए करें जिसे कि वह खेलते हैं। 164 टेस्ट मैच में 36 शतक और 63 अर्धशतक के साथ 13,288 रन बनाने वाले राहुल ने अपनी मौलिकता में या खेल की शैली में कभी भी बदलाव नहीं किया। इसके लिए कई मौकों पर उनकी आलोचना भी हुई, लेकिन राहुल द्रविड़ अडिग रहे, क्योंकि राहुल शायद मौलिक और बनावटी होने का फर्क बेहतर जानते थे। उन्होंने कभी भी दूसरे की आलोचना नहीं की और न ही खुद पर आलोचनाओं को किसी भी स्थिति में हावी होने दिया।
अल्पकालिक और दीर्घकालिक होने का फर्क उन्हें अच्छे से पता था, इसीलिए आज भी आंकड़ों और व्यक्तिगत आंकड़ों को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला क्रिकेट जानकार उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करता है। पत्रकार सुरेश मेनन की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं, क्योंकि राहुल टेस्ट क्रिकेट से विदा लेने की घोषणा कर चुके हैं- सचिन तेंदुलकर जहां हमले के जरिए अपनी बादशाहत कायम करते हैं वहीं राहुल द्रविड़ अपने प्रभुत्व को खुद के और गेंदबाज के बीच का राज रहने देते हैं। सिर्फ अनुभवी आंखें ही बता सकती हैं कि उन्होंने गेंदबाज को परेशान कर रखा है। उनकी भाव-भंगिमाएं या और कोई हरकत उनके हमले का संकेत नहीं देती। एक महान अभिनेता की तरह राहुल द्रविड़ बहुत ज्यादा मुखर नहीं होते और वह द्रुत की जगह विलंबित ताल में खेलते हैं और समय-समय पर अपने सुरक्षात्मक ठोस शॉट के जरिए गेंदबाज की हवा भी निकालते रहते हैं। उनके लिए रचा गया द वॉल शब्द यानी दीवार का संबोधन सही नहीं है। दीवार तो सिर्फ आक्रमण को झेलती है, उसका जवाब नहीं देती, जबकि द्रविड़ ऐसे नहीं हैं वह जानते हैं कि शारीरिक और मानसिक स्तरों पर वह गेंदबाज से इक्कीस हैं और वह इसी रणनीति के साथ लड़ाई को दुश्मन के खेमे में ले जाकर लड़ते हैं।
लेखिका शिखा सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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