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कब लौटेगा काला धन

जागरण मेहमान कोना
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चाणक्य ने कहा था, किसी भी देश में न्यूनतम ईमानदार और न्यूनतम ही बेईमान होते हैं, लेकिन जब बेईमानों पर नकेल कसने में शासन-प्रशासन कमजोर पड़ते हैं या वे खुद बेईमान हो जाते हैं तो देश के ज्यादातर लोग बेईमानी का अनुसरण करने लग जाते हैं। इसी सच्चाई का पर्याय यह लोकोक्ति है, जिसे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) के निदेशक एपी सिंह ने अपने उद्बोधन में प्रयोग में लाते हुए कहा, यथा राजा तथा प्रजा। तय है, यदि व्यवस्था अपारदर्शी, जटिल, केंद्रीयकृत और भेदभाव के चलते अमल में लाई जाने वाली हो तो भ्रष्टाचार को फलने-फूलने का अवसर मिलेगा ही। सिंह ने यह उदाहरण भ्रष्टाचार का विरोध और अवैध संपत्ति की वसूली पर पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित इंटरपोल के प्रथम वैश्विक कार्यक्रम में बोलते हुए दिया। इसी दौरान उन्होंने साफ किया कि भारत के लोगों ने दोहरे कराधान से बचने के लिए विदेशी बैंकों में 24.5 लाख करोड़ रुपये जमा किए हुए हैं। विदेशी बैंकों में जमा यह धन भारत का सबसे ज्यादा है। यह तथ्य उजागर करके सीबीआइ निदेशक ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि बड़ी तादाद में भारतीयों का कालाधन दुनिया के बैंकों में जमा है। जबकि केंद्र की संप्रग सरकार बार-बार इस हकीकत से मुकरते हुए कहती रही है कि विदेशों में कितना काला धन जमा है, इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है। अब इसके स्रोत तलाशने की बजाए ऐसे उपाय अमल में लाने की जरूरत है, जिससे गैरकानूनी धन देश में वापस लाए जाने का रास्ता साफ हो जाए।


सीबीआइ निदेशक अगर कुछ कह रहे हैं तो जाहिर है, साक्ष्यों के आधार पर ही वह इसे सार्वजनिक करने का साहस जुटा पाए होंगे। इसीलिए उन्होंने बड़े भरोसे के साथ विश्व बैंक के अनुमानों का हवाला देते हुए कहा कि सीमापार आपराधिक और कर चोरी के रूप में काले धन का प्रवाह लगभग 1500 अरब डॉलर का है। इसमें से 40 अरब डॉलर रिश्वत का है, जो विकासशील देशों के अधिकारियों को विकसित देशों ने अपने हित में नीतियां बदलने के लिए दिए। इसमें 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटालों की राशि भी शामिल है। सीबीआइ को पता चला है कि बड़ी मात्रा में यह धनराशि दुबई, सिंगापुर और मॉरीशस ले जाई गई। फिर वहां से स्विट्जरलैंड और ऐसे ही अन्य टैक्स हैवन देशों में भेजी गई। चूंकि ऐसे देशों की अर्थव्यवस्था इसी धन पर टिकी है, इसलिए वहां की सरकारें जांच को नजरअंदाज करती हैं। इन्हीं वजहों से पिछले 15 साल के भीतर तमाम दबावों के बावजूद महज 5 अरब डॉलर धनराशि की वापसी मूल देशों को हो पाई है। हमारे देश के राजनेताओं में इच्छाशक्ति कमजोर होने के कारण काले धन की वापसी और जटिल बनी हुई है, जबकि इसके उलट वित्तीय प्रवाह के नए तरीकों और संचार प्रौद्योगिकी का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बैंकों में इस्तेमाल शुरू हो जाने से दूर देशों में धन भेजना और आसान हो गया है। अलबत्ता बैंक गोपनीयता कानून लागू होने के कारण इस धन के वास्तविक आंकड़ों का ठीक पता लगाना पहले से ही कठिन बना हुआ है।


इस धन के साथ एक विडंबना यह भी जुड़ी है कि अंतरराष्ट्रीय पारदर्शिता संस्था ने जिस देश को सबसे कम भ्रष्ट देश माना है, उस देश में उतना ही ज्यादा काला धन जमा है। न्यूजीलैंड, सिंगापुर और स्विट्जरलैंड सबसे कम भ्रष्ट देश हैं, लेकिन भ्रष्टाचारियों का धन जमा करने में ये अव्वल हैं। यह अजीब विरोधाभास है कि इन देशों में भारत का 500 अरब डॉलर से 1400 अरब डॉलर धन जमा होने का अनुमान है, जो देश के सालाना सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है। हमारे देश में जितने भी गैर कानूनी काम हैं, उन्हें कानूनी जटिलताएं संरक्षण देने का काम करती हैं। काले धन की वापसी की प्रक्रिया केंद्र सरकार के स्तर पर ऐसे ही हश्र का शिकार होती रही है। सरकार इस धन को कर चोरियों का मामला मानते हुए संधियों की ओट में को गुप्त बने रहने देना चाहती थी, जबकि विदेशी बैंकों में जमा काला धन केवल कर चोरी का धन नहीं है, भ्रष्टाचार से अर्जित काली कमाई भी उसमें शामिल है। इसमें बड़ा हिस्सा राजनेताओं और नौकरशाहों का है। बोफोर्स दलाली, 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों के माध्यम से विदेशी बैंकों में जमा काले धन का भला कर चोरी से क्या वास्ता? अब सीबीआइ निदेशक ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है। वास्तव में यह सीधे-सीधे घूसखोरी से जुड़ा आर्थिक अपराध है। इसलिए प्रधानमंत्री और उनके रहनुमा कर चोरी के बहाने काले धन की वापसी की कोशिशों को इसलिए पलीता लगाते रहे हैं ताकि नकाब हटने पर कांग्रेस को फजीहत का सामना न करना पड़े। वरना, स्विट्जरलैंड सरकार तो न केवल सहयोग के लिए तैयार है, बल्कि वहां की संसदीय समिति ने तो इस मामले में दोनों देशों के बीच हुए समझौते को भी मंजूरी दे दी है।


पूरी दुनिया में कर चोरी और भ्रष्ट आचरण से कमाया धन सुरक्षित रखने की पहली पसंद स्विस बैंक रहे हैं। जिनेवा स्विट्जरलैंड की राजधानी है। यहां खाताधारकों के नाम गोपनीय रखने संबंधी कानून का पालन कड़ाई से किया जाता है। यहां तक कि बैंकों के बही खाते में खाताधारी का केवल नंबर रहता है, ताकि रोजमर्रा काम करने वाले बैंककर्मी भी खाताधारक के नाम से अनजान रहें। नाम की जानकारी बैंक के कुछ आला अधिकारियों को ही रहती है। ऐसे ही स्विस बैंक से सेवानिवृत्त एक अधिकारी रूडोल्फ ऐल्मर ने दो हजार भारतीय खाताधारकों की सूची विकिलीक्स को पहले ही सौंप दी है। तय है जुलियन अंसाजे देर-सबेर इस सूची को इंटरनेट पर डाल देंगे। इसी तरह फ्रांस सरकार ने भी हर्व फेल्सियानी से मिली एचएसबीसी बैंक की सीडी ग्लोबल फाइनेंशल इंस्टीट्यूट को हासिल कराई है, जिसमें अनेक भारतीयों के नाम दर्ज हैं। स्विस बैंक एसोसिएशन की तीन साल पहले जारी एक रिपोर्ट के हवाले से स्विस बैंकों में भारतीयों का कुल जमा धन 66 हजार अरब रुपये है। खाता खोलने के लिए शुरुआती राशि ही 50 हजार करोड़ डॉलर होना जरूरी है। भारत के बाद काला धन जमा करने वाले देशों में रूस 470, ब्रिटेन 390 और यूक्रेन ने भी 390 बिलियन डॉलर जमा करके अपने ही देश की जनता से घात करने वालों की सूची में शामिल हैं। स्विस और जर्मनी के अलावा दुनिया में ऐसे 69 ठिकाने और हैं, जहां काला धन जमा करने की आसान सुविधाएं हासिल हैं।


हालांकि दुनिया के तमाम देशों ने काले धन की वापसी का सिलसिला शुरू कर दिया है। इसकी पृष्ठभूमि में दुनिया में आई वह आर्थिक मंदी थी, जिसने दुनिया की आर्थिक महाशक्ति माने जाने वाले देश अमेरिका की भी चूलें हिलाकर रख दी थीं। मंदी के काले पक्ष में छिपे इस उज्जवल पक्ष ने ही पश्चिमी देशों को समझाइश दी कि काला धन ही उस आधुनिक पूंजीवाद की देन है, जो विश्वव्यापी आर्थिक संकट का कारण बना। इस सुप्त पड़े मंत्र के जागने के बाद ही आधुनिक पूंजीवाद के स्वर्ग माने जाने वाले देश स्विट्जरलैंड के बुरे दिन शुरू हो गए। नतीजतन, पहले जर्मनी ने वित्तीय गोपनीय कानून शिथिल कर काला धन जमा करने वाले खाताधारियों के नाम उजागर करने के लिए स्विट्जरलैंड पर दबाव बनाया और फिर इस मकसद पूर्ति के लिए इटली, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन आगे आए। अमेरिका की बराक ओबामा सरकार ने स्विट्जरलैंड पर इतना दबाव बनाया कि वहां के यूबीए बैंक ने कालाधन जमा करने वाले 17 हजार अमेरिकियों की सूची तो दी ही, 78 करोड़ डॉलर काले धन की वापसी भी कर दी। इस परिप्रेक्ष्य में सीबीआइ निदेशक अगर सरकार को नसीहत देते हुए कह रहे हैं कि राजनीतिकों में इच्छाशक्ति का अभाव है और इसी कमजोरी के चलते देश के ज्यादातर अधिकार संपन्न लोग सफेद धन को काला बनाने में लग गए हैं। तय है यथा राजा, तथा प्रजा की कहावत चरितार्थ होती रही है। सरकार इसी तरह अनदेखी करती रही तो आगे भी होती रहेगी।


लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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