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ऐसे वक्त में जब महान गणितज्ञ रामानुजम का 125वां जन्मदिवस मनाया जा रहा हो और उन्हीं के सम्मान में वर्ष 2012 को राष्ट्रीय गणित वर्ष मनाने की योजना बनी हो, तब यह खबर अधिकतर लोगों को मायूस करती है कि इस देश के बच्चे गणित में दूसरे देशों के मुकाबले पिछड़ते जा रहे हैं। इस बारे में हाल के दिनों में कई सर्वेक्षण रिपोर्ट सामने आई हैं, जिनके नतीजों में बताया गया है कि भारतीय बच्चे गणित में कमजोर हो रहे हैं। एक रिपोर्ट ऑस्ट्रेलियन काउंसिल फॉर एजुकेशनल रिसर्च की है, जिसने गणित और विज्ञान में किशोरों की रुचि पर तैयार किया है तो दूसरी रिपोर्ट भारत की एक गैर-सरकारी संस्था प्रथम की तरफ से तैयार की गई है, जिसमें इन बातों की पुष्टि की गई है। ऑस्ट्रेलिया की संस्था ने अपनी रिपोर्ट तैयार करने के लिए 73 देशों के बच्चों का परीक्षण किया जिसमें भारत के बच्चों को सिर्फ किर्गिस्तान से ऊपर यानी आखिरी से एक दर्जा ऊपर का ही स्थान मिल पाया, वहीं प्रथम संस्था की रिपोर्ट ने भी गणित में भारतीय बच्चों के कमजोर होने और उनके खराब प्रदर्शन को रेखांकित किया है। यद्यपि ऐसे सर्वेक्षणों की एक सीमा होती है और इन परीक्षणों को कैसे तैयार किया जाता है, यह भी मायने रखता है। लेकिन फिर भी यह रिपोर्ट चिंताजनक तो है ही, जिससे किसी भी तरह मुंह नहीं फेरा जा सकता। यहां हमें नहीं भूलना चाहिए कि बच्चों में गणित के मामले में रुचि पैदा करने में भारत की असफलता एवं अमेरिका की स्थिति में ज्यादा गुणात्मक अंतर नहीं है। उदाहरण के लिए वर्ष 2009 में अमेरिका में इस मसले पर जब अध्ययन किया गया तो पाया गया कि वह जिन देशों के साथ अपनी तुलना करता है उन सभी में वह फिसड्डी है। पिसा यानी प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट एसेसमेंट में गणित की परीक्षा में जिन 56 देशों के बच्चों ने हिस्सा लिया, उसमें वह तीस अन्य देशों की तुलना में पिछड़ा मिला।
विडंबना यह भी रही कि अमेरिका के पचास राज्यों में सर्वोत्तम कहे जाने वाले राज्य के विद्यार्थी भी इस प्रतियोगिता में दूसरे देशों के बच्चों के मुकाबले कहीं नहीं ठहर सके। गणित का मामला सिर्फ जोड़, घटाव, गुणा अथवा भाग तक सीमित मामला नहीं है, बल्कि यह बच्चों की तार्किक क्षमता के आकलन का एक परीक्षण आधार भी है। बावजूद इसके हमें इन टेस्ट रिपोर्ट्स के नतीजों का विश्लेषण करना चाहिए तथा उन अवरोधों की पहचान की जानी चाहिए जिसके कारण अमेरिका अथवा भारत जैसे देशों के बच्चे गणित के मामले में अपनी रुचि खो रहे हैं अथवा इस विषय में दूसरे देशों के बच्चों की तुलना में लगातार पिछड़ रहे हैं। इसमें कोई शंका नहीं होनी चाहिए कि हमारे देश में प्रतिभाओं को फलने-फूलने का भरपूर अवसर नहीं मिल पा रहा है। साथ ही समाज के जिस वर्ग के पास सभी तरह के संसाधन मौजूद हों और हरसंभव आधार पर अपने बच्चों को सही दिशा में आगे बढ़ाने की क्षमता और जानकारी रखते हों उन लोगों के बच्चों में ऐसी स्थिति ठीक नहीं मानी जा सकती। अच्छे स्कूलों के प्रतियोगी वातावरण तथा बेहतर परिणाम के लिए माता-पिता और शिक्षकों की कड़ी मशक्कत भी बच्चों को तेजस्वी नहीं बना पा रही। गणित या विज्ञान जैसे विषयों में पारंगत होने और बेहतर करने के लिए यह आवश्यक है कि बच्चे गहराई तक जाने की रुचि रखते हों और वह उस विषय से पूरी तादात्म्य रखते हों। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो कोई भी प्रयास अथवा संसाधनों की उपलब्धता एक सीमा तक ही परिणाम दे सकते हैं।
आज के आधुनिक स्कूलों में भी इस तरह का अवसर बच्चों को नहीं मिल पा रहा जिससे वह बेहतर परिणाम दे सकें। यदि बच्चे वीडियो गेम खेलेंगे और कार्टून देखेंगे तो उनकी तार्किकता भी घटनी स्वाभाविक है। इसके अलावा बच्चों के साथ उनके अभिभावक और शिक्षक कैसे व्यवहार करते हैं यह भी जांच का एक मुद्दा है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था का आकलन यदि करना हो तो सरकारी स्कूलों के स्तर पर यह किया जा सकता है, क्योंकि लगभग 90 प्रतिशत बच्चे इन्हीं स्कूलों के भरोसे पर होते हंै। यही वह क्षेत्र है, जहां ढेर सारे दावों तथा मौलिक अधिकार के दायरे में कानून बनाने के बावजूद स्कूलों का तथा उसमें होने वाली पढ़ाई का हाल खस्ता है। यह बात सरकार भी मानती है। आज स्कूल एक तरह से भर्ती पाठशाला बन गए हैं, जहां आसानी से दाखिला हो सकता है, बच्चे पास हो सकते हैं, लेकिन वे कितनी जानकारी रखते हैं इसकी कोई कोई गारंटी नहीं। जहां तक मध्यम वर्ग का अच्छी शिक्षा तक पहुंच का मसला है तो वहां पैकेज संस्कृति अपना पर फैला चुकी है यानी पढ़ाई ऐसी हो जो फटाफट हो और डिग्री ऐसी जो अच्छी कंपनी में लाखों रुपये प्रतिवर्ष का पैकेज दिला सके। संतान बने तो डॉक्टर, इंजीनियर या कोई बड़ा अधिकारी। प्रोफेशनल कोर्सेज की तरफ जारी यह दौड़ किस तरह हानिकार है, इसका पता अब चल रहा है। कुछ दिनों पहले रिपोर्ट आई थी कि देश में विगत कुछ सालों मे बने सैकड़ों इंजीनियरिंग कॉलेज बहुत कम क्षमता पर चल रहे हैं, क्योंकि वहां प्रवेश लेने वाले बच्चे ही नहीं हैं। हैदराबाद में आज की तारीख में 130 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जिनमें से आठ-दस को छोड़कर बाकी सभी छात्रों के लिए राह देखते रहते हैं। इसके अतिरिक्त यदि गणित में शोध के लिए प्रशिक्षण हासिल करना हो तो केवल दो संस्थान ही उत्तर भारत में दिखते हैं।
शिक्षा रोजगारपरक हो इस बात पर हमेशा जोर रहा है, लेकिन शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार हासिल करना भी नहीं माना जा सकता है। जाने-माने शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर यशपाल का मानना है कि शिक्षा कोई रोजगार की फैक्ट्री नहीं है। गणितीय मेधा को किसी टेस्ट के नतीजों के आधार पर नही आंका जा सकता। इसके लिए जरूरी है कि बच्चे पढ़ाई में आनंद उठा सकें ऐसा वातावरण तैयार किया जाए और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराई जाए। तमाम हो-हल्ला के बावजूद भी सरकारों ने शिक्षा में निवेश नहीं बढ़ाया है। वह विकास के नाम पर सिर्फ अर्थव्यवस्था की प्रगति को ही देखते हैं और तात्कालिक उद्देश्यों के लिए ही काम करती है। समृद्धता हासिल करना शिक्षित होने का पर्याय नहीं है। अपने पड़ोसी देशों में शिक्षा की जो दुर्दशा है वह भी आत्मसंतुष्टि का भाव पैदा करता है, लेकिन इस तरह की तुलना ठीक नहीं जबकि हम वैश्विक स्तर पर आगे बढ़ने और प्रतिस्पर्धा करने की तैयारी कर रहे हों। जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने संबोधनों में कहते हंै कि भारतीय छात्रों से डरो और ठीक से पढ़ो नहीं तो वे ही आगे होंगे तथा अमेरिकी पीछे तो हिंदुस्तानी फूले नहीं समाते। लेकिन जब हम चीन से अपनी तुलना करते हैं तो पाते हैं कि वे पढ़ाई में हमसे आगे हंै। यह हमारी मायूसी का कारण बनता है। चुनौती यह है कि आधारभूत संरचना तथा अध्यापन के तौर-तरीकों में आज क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता है। इस वास्तविकता को स्वीकार करने की जरूरत है कि हम अभी भी पीछे हैं। बच्चे मेधावी बनें, इसके लिए हम सभी की जिम्मेदारी है।
लेखिका अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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