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शिगूफे से कम नहीं मुस्लिम आरक्षण

जागरण मेहमान कोना
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भारत में आरक्षण का मुद्दा नई चीज नहीं है। कभी मुसलमानों के लिए, कभी दलित वर्ग के लिए तो कभी महिलाओं के लिए आरक्षण का मुद्दा उठता रहा है। पहले आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय ने इस पर अपना ठप्पा लगाया। हम न्यायालयों के फैसलों को पूरा आदर देते हैं मगर मन में प्रश्न उठता है कि आखिर आरक्षण से समाज को क्यों बांटा जा रहा है? यह बात जगजाहिर है कि आरक्षण से समाज को जितना लाभ नहीं होगा उससे कहीं ज्यादा हानि होगी। सरकार महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देकर जाहिर करना चाहती है कि उसे वास्तव में महिलाओं के उत्थान की चिंता है। पर वास्तविकता में उसने पूरे समाज को दो तबकों में बांट दिया है। वह दिन दूर नहीं कि जब भारत के घर-घर में महिलाओं एवं पुरुषों में संघर्ष शुरू होगा जिससे बिखराव अंतत: घरों का होगा। इस प्रकार के आरक्षण से उन महिलाओं को कोई लाभ नहीं होने वाला कि जिनको वास्तव में यह लाभ पहुंचना चाहिए। इसी प्रकार मुसलमानों को लेकर आए दिन आरक्षण का मुद्दा उठाया जाता रहा है। अब से कुछ समय पूर्व आरक्षण की नौटंकी रचने वालों में सलमान खुर्शीद ने एक चैनल से बात करते हुए घोषणा की थी कि छह माह के भीतर मुस्लिम वर्ग को आरक्षण दे दिया जाएगा। इस बात को छह माह से ऊपर हो चुके हैं। यह कोई नई बात नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के झुनझुने मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाने और उन्हें बहलाने-फुसलाने के लिए पहले भी दिए जाते रहे है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुस्लिम वर्ग आज सबसे अधिक पिछड़ा हुआ माना जाता है। खेद का विषय है कि मुसलमानों के नेता इस प्रयास में हैं कि किस प्रकार से उन्हें आरक्षण दिया जाए जबकि स्वयं एक सामान्य मुसलमान को इससे कोई सरोकार नहीं।


वास्तविकता तो यह है कि मुसलमानों को कांग्रेस तो क्या किसी भी राजनीतिक पार्टी ने उनके अधिकार नहीं दिए हैं। जब-जब पार्टियों को वोट बैंक की आवश्यकता होती है तो वे उन्हें रिझाने के लिए कभी उर्दू तो कभी सच्चर कमेटी और कभी रंगनाथ मिश्रा या लिब्राहन कमीशन के मकड़जाल में फंसाकर उनका शोषण करते हैं। लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने मुस्लिम समाज को प्रताडि़त किया है। विभिन्न सरकारों ने मुस्लिम मुहल्लों में स्कूल तो खोले नहीं, हां थाने अवश्य खोल दिए हैं। वास्तव में जिस आरक्षण का आश्वासन दिया जा रहा है वह मुसलमानों को शायद ही मिले, क्योंकि उसमें तमाम कानूनी एवं संवैधानिक अड़चनें मौजूद हैं। जब-जब मुसलमानों को आरक्षण की बात की जाती है तो कोई न कोई अदालत में मुकदमा कर देता है जैसा कि इलाहाबाद और हैदराबाद में हुआ। इसका कारण धर्म के आधार पर भारतीय संविधान में आरक्षण को स्वीकार नहीं किया जाना है। वैसे सही देखा जाए तो जिस प्रकार से आरक्षण का ढांचा बनाया गया है वह समूचा का समूचा ही निरर्थक है। यदि आरक्षण देना है तो यह हिंदू, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम, जैनी आदि के बजाय केवल गरीबों को मिलना चाहिए भले ही वे किसी भी धर्म, जाति के हों।


मुस्लिम वर्ग की विडंबना यह है कि जो लोग उसके लिए आरक्षण का मुद्दा उठा रहे हैं वे स्वयं अपने गिरेबान में झांककर नहीं देख रहे। उदाहरण के तौर पर पसमांदा समाज के अली अनवर कहीं से भी पसमांदा नजर नहीं आते जबकि उनका तबका बहुत बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है। नेताजी तो मजे में रहते हैं और जबानी जमा-खर्च कर अपनी सीट सुरक्षित रखते हैं। इनमें कुछ तो ऐसे हैं जिन्होंने पसमांदा समाज, पिछड़े तबकों आदि के नाम पर राज्यसभा में सीटें भी अर्जित की हैं। अपनी पिछड़ी एवं पसमांदा कौम का रोना रोते हुए उन्होंने अपनी और अपने सात पीढि़यों का इंतजाम कर लिया है। आज मुस्लिम समाज का कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि मुसलमानों ने कई फैसले सोच-समझकर नहीं किए। आज भी मुस्लिम समाज की स्थिति प्रेशर कुकर एग्जिस्टेंस यानी एकदम फट पड़ने जैसी है। उनके राजनेता भी ऐसे हैं जो कौम का भला देखने के बजाय अपना भला पहले देखते हैं। वे वास्तव में मलाई सटकने वाले बिचैलियों की भाँति हैं। आरक्षण के जिस झुनझुने को देख वे प्रसन्नचित हैं, उन्हें इसका अंदाजा ही नहीं है कि यह सब मात्र एक मिथ्या है। आरक्षण के मुद्दे पर एक बार जब धारा 292 एवं 294 के तहत 1950 में मतदान हुआ तो सात में से पांच मत आरक्षण के विरूद्ध पड़े जोकि मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी के थे।


रोचक बात यह है कि उस समय आरक्षण की हिमायत में सरदार पटेल ने भी वोट डाला। इसी प्रकार पंडित नेहरू 26 मई, 1949 को संविधान सभा में कहा कि यदि हम अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा, क्योंकि इससे भाई-भाई के बीच दरार पड़ जाएगी। इसी प्रकार दलितों के मसीहा महात्मा गांधी ने भी अपने अखबार हरिजन के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में लिखा था कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो। कांगे्रस अपने पत्ते बड़ी सोच-समझकर खेल रही है। पहले तो रंगनाथ मिश्रा कमीशन रिर्पोट को यह पार्टी दबाकर बैठी रही और फिर जब पाया कि उत्तर प्रदेश में चुनाव दूर नहीं है और यह कि मुसलमानों का रुझान भी कुछ कांग्रेस की तरफ हुआ है तो अब उसने मुसलमानों के लिए आरक्षण का राग अलापना शुरू कर दिया है। पार्टी सोचती है कि ऐसा करने से उसे मुलायम सिंह के मुस्लिम वोट प्राप्त हो जाएंगे। जो भी हो यह अच्छा नहीं हो रहा है। आरक्षित सीटों का इतिहास देखें तो पता चलता है कि अब आरक्षित सीटें सालों-साल रिक्त रहती हैं जिससे सबका नुकसान हो रहा है। आइआइटी, मद्रास के निदेशक पीवी इंद्रेशन और दिल्ली के निदेशक एनसी निगम ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि अनुसूचित जाति और जनजाति की पचास प्रतिशत सीटें खाली रह जाती हैं।


मुसलमानों को आरक्षण मिले या न मिले, इससे एक बड़ा नुकसान यह होगा कि जो मुसलमान आज मुख्य धारा में कहीं न कहीं दिखाई दे जाते है आरक्षण प्राप्त होने की स्थिति में वह मेहनत करना छोड़ देंगे। यही नहीं अब जिन सामान्य गैर मुस्लिम संस्थाओं में कुछ चरमराते दरवाजे मुसलमानों के लिए खुले हैं, आगे वे भी बंद हो जाएंगे और उनसे कहा जाएगा कि वे जाकर अपना आरक्षण अर्जित करें। क्या कोई बताएगा कि डॉ. जाकिर हुसैन, एपीजे अब्दुल कलाम, ज्ञानी जैल सिंह या यहूदी ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिजराइली कौन सा आरक्षण लेकर इन महत्वपूर्ण स्थानों पर पहुंचे थे। सर सैयद अहमद खां ने भी 10 जनवरी 1884 को मुल्तान में कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय खोलने का उद्देश्य केवल यही था कि मुसलमानों को कठमुल्लावाद से छुटकारा मिले और उन्हें आधुनिक शिक्षा प्रदान कराई जाए। वे मानते थे कि अंग्रेजी में शिक्षा न ग्रहण करने से मुसलमान हिंदुओं से सौ साल पीछे चल रहे हैं, क्योंकि गैर मुस्लिमों ने अंग्रेजी भाषा के महत्व को भलीभांति समझा। मान लीजिए कि यदि मुस्लिम संप्रदाय को आरक्षण मिल भी गया तो क्या उसका कोई लाभ उसे पहुंचेगा? हमें तो ऐसा लगता नहीं, क्योंकि मुस्लिम वर्ग स्वयं ही सैकड़ों जातियों में बंटा हुआ है। जैसे सैयद, शेख, मुगल, पठान, राजपूत, ठाकुर, चौधरी, जाट, त्यागी आदि जो उच्च श्रेणी में आते हैं और जुलाहे, दर्जी, कुंजड़े, मनिहार, कसाब, कलाल, घोसी, नाई, सक्का, माहीगीर, बंजारा, हलाल खोर आदि जोकि पिछड़ी एवं निचली जातियों में आते हैं।


अब सरकार के लिए मुसलमानों के हाथ में आरक्षण का झुनझुना देने वाली इस सरकार को अब मुस्लिम समाज में आपसी कलह से भी निपटने के लिए तैयार रहना होगा। इसमें एक समस्या यह आएगी कि निचले तबकों के मुसलमान ऊंची जाति के मुसलमानों को आरक्षण नहीं लेने देंगे जबकि ऊंची जाति वाले स्वयं को अल्पसंख्यक श्रेणी में होने के आधार पर आरक्षण की मलाई सटकना चाहेंगे। रही बात कांग्रेस की तो उसे न कोई मोह मुस्लिम दलित से है और न ही कोई प्यार ईसाई एवं अन्य दलित वर्गो से है। यदि उसे प्यार है तो वह अपने वोट बैंक से। सवाल यह है कि आजादी के बाद पचास वर्ष तक कांग्रेस का वोट बैंक बने रहे मुसलमानों बदले में क्या मिला है? सिवाय इसके कि उसे टूटे-फूटे चंद उर्दू माध्यम स्कूल और भरपूर सांप्रदायिक दंगे मिले जिन्होंने उसकी आर्थिक कमर ही तोड़ दी। न तो कांगे्रस या अन्य किसी पार्टी ने मुसलमानों की शिक्षा के उत्थान के लिए कोई कार्य किया है और न ही उनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए कुछ किया गया। यदि मुसलमान चाहते हैं कि उनकी स्थिति में सुधार आए तो उन्हें तालीम में खुद आगे बढ़ना होगा और अपना अधिकार खुद की योग्यता से पाना होगा। आरक्षण का झुनझुना उन्हें बहुत दिनों तक नहीं रिझा सकता।


लेखक फिरोज बख्त अहमद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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