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अब तो गुमराह न करे सरकार

जागरण मेहमान कोना
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सीबीआइ के निदेशक एपी सिंह द्वारा यह खुलासा किया जाना कि विदेशी बैंकों में सर्वाधिक काला धन भारतीयों का है और यह धनराशि तकरीबन 25 लाख करोड़ के आसपास है, बेहद ही चिंता का विषय है। सीबीआइ निदेशक के दावे पर भरोसा किया जाए तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले, 2010 के राष्ट्रमंडल खेल घोटाले जैसे कई हाई प्रोफाइल घोटालों की जांच के दौरान भारत से बड़ी मात्रा में धनराशि दुबई, सिंगापुर और मॉरीशस ले जाई गई और फिर वहां से स्विट्जरलैंड जैसे टैक्स हैवेन देशों को भेजी गई। लेकिन दुर्भाग्य है कि सीबीआइ निदेशक के खुलासे के बाद भी सरकार संजीदा नहीं है। सरकार के केंद्रीय कार्मिक राज्यमंत्री वी नारायण स्वामी ने तो यह कह दिया कि देश में काला धन वापस लाना कठिन है। इसलिए कि हमारे हाथ कानून से बंधे हुए हैं। काला धन पर सरकार के मंत्रियों की यह जुगाली कोई नई नहीं है। अभी पिछले दिनों ही लोकसभा में जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने काला धन और हसन अली को लेकर सवाल पूछा तो जवाब में वित्तमंत्री ने कहा कि विदेशी बैंकों के भारतीय खाताधारकों के नामों को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। इसलिए कि सरकार अंतरराष्ट्रीय करारों से बंधी हुई है और ऐसा करना समझौते का उल्लंघन होगा। यही नहीं, प्रणब मुखर्जी यह भी कहते सुने गए कि अगर नामों को उजागर किया गया तो टैक्स चोर विदेशी बैंकों में जमा काले धन को निकाल लेंगे।


वित्तमंत्री का दलील न केवल हास्यास्पद है, बल्कि काले धन के कारोबारियों को बचाने की साजिश भी है। ऐसा भी नहीं है कि केवल विपक्षी दल ही काले धन के कारोबारियों के नामों का खुलासा करने का दबाव बना रहे हैं। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एसएस निज्जर की पीठ ने भी जर्मनी से प्राप्त लिंचेस्टाइन बैंक के खाताधारकों की सूची में से उन सभी लोगों के नाम सार्वजनिक करने का निर्देश दिया गया था, जिनके खिलाफ जांच पूरी हो चुकी है या होने वाली है और जिन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किए जा चुके हैं। पीठ ने तो यहां तक कहा था कि राष्ट्रीय संपत्ति को विदेशों में रखना देश को लूटने जैसा है और यह शुद्ध रूप से राष्ट्रीय संपत्ति की चोरी है, लेकिन अदालत की इस कठोर टिप्पणी के बावजूद सरकार काले धन के मामले में गंभीरता नहीं दिखा रही है। वित्तमंत्री सिर्फ आश्वासन दे रहे हैं कि 75 देशों के साथ दोहरे कराधान की प्रक्रिया चल रही है और 60 देशों के साथ समझौता हो गया है, पर जब सरकार के रणनीतिकार बार-बार यह कह रहे हैं कि काले धन की वापसी कठिन है तो कैसे यकीन किया जाए कि सरकार उसे वापस लाने में सफल रहेगी। इस नतीजे पर भी पहुंचना कठिन है कि सरकार कर चोरों के साथ सख्ती से पेश आएगी।


हसन अली के मामले में सरकार की नीयत उजागर हो गई है। पिछले दिनों प्रवर्तन निदेशालय द्वारा सौंपी गई प्रगति रिपोर्ट को देखकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार से पूछा जाना कि काले धन मामले की जांच को हसन अली तक सीमित क्यों रखा जा रहा है, सरकार की कार्य प्रणाली को कठघरे में खड़ा करने वाला है। पिछले दिनों जब वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी की याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने सरकार से पूछा कि आखिर वह विदेशी बैंकों में भारतीय खातेदारों के नामों को क्यों नहीं उजागर करना चाहती है तो सरकार का जवाब ठीक वैसा ही था, जैसा कि आज वी नारायण स्वामी द्वारा दिया जा रहा है।


सरकार ने न्यायालय में हलफनामा दाखिल कर न्यायाधीशों को यह समझाने की कोशिश की है कि जर्मनी के लिंचेस्टाइन बैंक में जिन 26 लोगों द्वारा पैसा जमा किया गया है, उनसे जुड़ी जानकारी का उल्लेख किया गया तो अंतरराष्ट्रीय करारों को तोड़ना होगा। पर सरकार से पूछा जाना चाहिए कि आज से साढ़े तीन साल पहले जब अमेरिका ने अपने देश के भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा किए गए 280 अरब डॉलर का हिसाब-किताब स्विस बैंक से ले लिया तो क्या उसने अंतरराष्ट्रीय करारों को तोड़ा या विश्व बिरादरी में उसकी छवि खराब हुई? अमेरिका ने न केवल स्विस बैंकों का बांह मरोड़कर अपना पैसा वसूल किया, बल्कि उस पर जुर्माना भी ठोंका। सरकार भले ही काले धन पर शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार कर ले या हसन अली जैसे महालुटेरे को बचाने के लिए कुतर्को का पहाड़ खड़ा करे, लेकिन आज नहीं तो कल उसे काले धन से जुड़े अनुत्तरित सवालों का जवाब देना ही होगा।


लेखक अभिजीत मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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