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ईरान-इजरायल के बीच फंसा भारत

जागरण मेहमान कोना
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Balendu dadhichईरान और इजरायल के आपसी टकराव में नई दिल्ली एक दुर्भाग्यपूर्ण घटनास्थल बन गया। दोनों ही देशों के बीच आपसी टकराव का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन भारत के साथ दोनों के ही न सिर्फ अच्छे, बल्कि रणनीतिक संबंध हैं। नई दिल्ली में इजरायली दूतावास के वाहन पर हुआ आतंकवादी हमला राजनय और नैतिकता की कसौटियों पर भारत को उलझन में डाल सकता है। हमले के लिए ईरानी स्रोतों की तरफ इशारा करते खुफिया एजेंसियों के स्पष्ट इनपुट के बावजूद भारत के लिए इस बारे में ईरान से दो टूक बात कर पाना तब तक असंभव ही रहेगा, जब तक कि उसके पास अपने निष्कर्षो के समर्थन में अकाट्य प्रमाण मौजूद न हों। दूसरी ओर पिछले दो दशकों से भारत के करीबी मित्रों में गिना जाने वाला इजराइल यह अपेक्षा करेगा कि एक मित्र देश होने के नाते भारत उसकी जायज चिंताओं पर तटस्थता का रुख न अपनाए। ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक संबंध सिर्फ राजनीतिक नहीं हैं। वे सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में भी कई सदियों से चले आए हैं। अतीत में ऐसे साम्राज्य रहे हैं, जिनका दायरा ईरान से लेकर भारत तक था। आज भले ही भारत इंग्लैंड, अमेरिका या इजरायल के साथ करीबी रिश्ते रखता हो, लेकिन सामाजिक धरातल पर भारत-ईरान संबंधों का इतिहास भारत की कोई भी सरकार अनदेखा नहीं कर सकती। आज जबकि ईरान और अमेरिका के बीच टकराव अपने चरम पर है तथा इजरायल और ईरान के रिश्ते जंग छिड़ने की हद तक विस्फोटक हो चले हैं।


भारत तमाम दबाव के बावजूद खुलेआम उसके विरुद्ध अमेरिका या इजरायल के साथ खड़े होने या दिखने का जोखिम मोल नहीं ले सकता। अमेरिका इन दिनों भारत को अपने स्वाभाविक सहयोगियों में गिनता है। कई अहम अमेरिकी नेता, अधिकारी और सीनेटर ईरान से कारोबारी संबंध बनाए रखने के लिए भारत की तीखी आलोचना कर चुके हैं। नई दिल्ली में हुए विस्फोट के बाद हम पर ईरान से संबंध विच्छेद, कम से कम कारोबारी संबंध विच्छेद करने का दबाव बढ़ जाएगा। अमेरिका में यहूदी लॉबी को बेहद मजबूत माना जाता है और पिछले कई सालों से भारत को उसका समर्थन मिलता रहा है। अभी एक हफ्ते पहले ही अमेरिकन ज्यूइश एसोसिएशन ने अमेरिका में भारतीय राजदूत निरूपमा राव को पत्र लिखकर इस बात पर कड़ी निराशा जताई थी कि एक ओर जहां अमेरिका और ईरान के बीच युद्ध के हालात बन रहे हैं तथा अमेरिका ईरान की कारोबारी नाकेबंदी करने में जुटा है, वहीं भारत न सिर्फ ईरान से तेल खरीदने पर अडिग है, बल्कि आपसी संबंधों का दायरा और बढ़ाने की बात कर रहा है।


ईरान से यूरोपीय कंपनियों की वापसी से पैदा हुए बड़े अवसरों का लाभ उठाने के लिए भारत का एक कारोबारी प्रतिनिधिमंडल जल्दी ही ईरान जाने वाला है। कभी गरमी, कभी नरमी अमेरिकी विदेश नीति विशेषज्ञों को आशंका है कि अगर भारत ईरान के विरुद्ध अमेरिका की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों को अनदेखा करता रहा तो ओबामा प्रशासन की नजर में वह एक भरोसेमंद रणनीतिक साझीदार नहीं रह जाएगा। भारत ने कई बार संयुक्त राष्ट्र में ईरान के विरुद्ध हुए मतदान में ईरान के हक में वोट डाला है। इसके अलावा और भी कई मौकों पर भारत उसके प्रति अपने मित्रतापूर्ण नजरिए को रेखांकित करता रहा है। मौजूदा दौर में भारत ईरान से तेल खरीदने के लिए रुपया आधारित भुगतान की जिस वैकल्पिक प्रणाली का विकास करने में जुटा है, वह भी इसी किस्म की एक मिसाल है। हालांकि ईरान की ओर से इसी तरह की जवाबी गर्मजोशी हमें कम ही नसीब हुई है। इस्लामी सम्मेलन संगठन में ईरान की मौजूदगी तथा भागीदारी में भी कश्मीर पर भारत विरोधी प्रस्ताव पास होते रहे हैं।


वर्ष 2010 में वहां के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खुमैनी ने कम से कम दो मौकों पर कश्मीरी लोगों को भारत के हाथों प्रताडि़त करार दिया था। तब से भारत और ईरान के रिश्तों में थोड़ा ठंडापन जरूर आया है, लेकिन इतिहास और वर्तमान दोनों से जुड़ी अनिवार्यताएं उन्हें साथ खड़ा कर देती हैं। ईरान ने दो साल पहले कश्मीर में उन प्रदर्शनकारियों पर की गई कार्रवाई के विरोध में भी बयान जारी किया था, जो अमेरिका में कुरान की प्रतियां जलाए जाने से आक्रोश में थे। सिक्के का दूसरा पहलू भी है। वर्ष 2005-06 में जब भारत और अमेरिका के संबंधों में नई गर्मजोशी आई थी और उनके संबंध असैन्य परमाणु करार जैसे मील के पत्थर की ओर बढ़े थे, तब से ही भारत ईरान से संबंधों को लेकर अमेरिकी दबाव में है। इसी दौर में भारत ने अंतरराष्ट्रीय आणविक ऊर्जा एजेंसी में ईरान के विरुद्ध भी मतदान किया था। इससे ठीक पहले एक अमेरिकी अधिकारी ने बयान दिया था कि इस मुद्दे पर ईरान का साथ देना भारत को भारी पड़ सकता है। भारत-पाकिस्तान-ईरान पाइपलाइन परियोजना भी इसी दौर में भारत की ओर से रद कर दी गई, जिसके लिए अमेरिकी दबाव को जिम्मेदार ठहराया जाता है। कश्मीर मुद्दे पर भारत के प्रति ईरान के रुख में आया बदलाव संभवत: इन्हीं घटनाओं का नतीजा रहा होगा।


राजनीति और कारोबार अमेरिका, इजरायल, इंग्लैंड आदि देशों के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने की इच्छा के बावजूद अगर भारत ईरान के बरक्स दूसरे छोर पर खड़ा दिखाई दे रहा है तो इसके पीछे ऐतिहासिक तथा भावनात्मक कारणों के अलावा भी बहुत कुछ है। ऐसा नहीं कि इस्लामी विश्व में भारत के हितों को ईरान से कोई विशेष संरक्षण मिलता हो, लेकिन अफगानिस्तान के संदर्भ में वे दोनों एक-सी ही स्थिति में हैं। भारत के विरुद्ध पनपते आतंकवाद में पाकिस्तान की भूमिका और अफगान तालिबान के साथ पाकिस्तान के गहरे रिश्ते स्वाभाविक रूप से इस आतंकवादी संगठन को हमारे लिए बड़ी चुनौती बना देते हैं। तालिबान के साथ ईरान के संबंध भी अच्छे नहीं रहे हैं। भारत ने अफगानिस्तान में तालिबान के प्रतिद्वंद्वी उत्तरी गठबंधन के साथ रिश्ते मजबूत करने की प्रक्रिया में ईरान का सहयोग लिया था। आज जबकि पाकिस्तान भारत को अफगानिस्तान तक जमीनी मार्ग मुहैया कराने को तैयार नहीं है तो ईरान अफगानिस्तान तथा पश्चिम एशिया के दूसरे देशों के लिए भारत का संपर्क-द्वार बन सकता है। बहरहाल, भारत-ईरान संबंधों के राजनीतिक तथा कारोबारी पहलुओं का जिक्र किए बिना इस दोस्ताने को समझना संभव नहीं है। पेट्रोलियम पदार्थो का कारोबार किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही अहम वह विश्व राजनीति को प्रभावित करने के मामले में है।


तमाम दबावों के बावजूद भारत के लिए ऐसे राष्ट्र से कारोबारी संबंध विच्छेद करना संभव नहीं होगा, जो उसके लिए दूसरा सबसे बड़ा पेट्रोलियम सप्लायर है। फिलहाल अमेरिका से ऐसे भी बयान आए हैं कि वह भारत-ईरान पेट्रोलियम संबंधों को प्रतिबंधों के दायरे में नहीं गिनता। लेकिन यह तय मानकर चलिए कि ज्यों-ज्यों ईरान के साथ उनका तनाव बढ़ेगा, ऐसी समझ-बूझ कम होती चली जाएगी। दूसरी ओर भारत ईरान के लिए चावल का सबसे बड़ा निर्यातक भी है। ईरान से संबंधों का राजनीतिक महत्व भी कम नहीं है। हमारी चुनाव प्रक्रिया में मुस्लिम मतदाताओं का महत्व और संख्या को देखते हुए भी केंद्र में सत्तारूढ़ दल ईरान, सऊदी अरब तथा दूसरे अहम मुस्लिम राष्ट्रों के साथ संबंध बिगाड़ना नहीं चाहेंगे। एक तरफ अमेरिका-इजरायल और दूसरी तरफ ईरान के साथ संबंधों में संतुलन के लिए भारतीय नेताओं को बड़े कौशल की जरूरत पड़ेगी।


लेखक बालेंदु दाधीच स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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