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यहां बढ़ते कुपोषण की किसे है चिंता

जागरण मेहमान कोना
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एक रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में अत्यधिक गरीबी के चलते पांच वर्ष से कम आयु के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जो अपनी आयु की तुलना में कम भार वाले हैं। 59 बच्चों प्रतिशत बच्चे अपनी आयु की तुलना में छोटे कद के हैं। सर्वेक्षण कराने वाली संस्था हंगामा न्यास का कहना है कि उनका निष्कर्ष 73 हजार गृहस्थों के 1,09,093 बच्चों के सर्वेक्षण पर आधारित है। सर्वेक्षण रिपोर्ट के लोकार्पण के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि कुपोषण और भूख की स्थिति के मद्देनजर समूचा राष्ट्र शर्मसार है। हालांकि यह सर्वेक्षण देश में भूख और कुपोषण के संदर्भ में कोई पहला आंकड़ा नहीं है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य अनुसंधान संस्थान द्वारा वैश्विक भूख सूचकांक तैयार किया जाता है जिसके अनुसार भारत खतरनाक भूख की श्रेणी में और है और अंतरराष्ट्रीय क्रम में भारत वर्ष 2008 में 66वें स्थान पर था। इस संस्थान के अनुसार भारत की स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी बदतर है, क्योंकि भारत का वैश्विक भूख सूचकांक 25.2 और पाकिस्तान और बांग्लादेश का 21.7 और 23.7 आंका गया।


कुपोषण के संदर्भ में भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय के सहयोग से एक राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण समय-समय पर किया जाता है। इनके अनुसार देश में कुपोषण घटने की बजाय बढ़ रहा है। 1998-99 और 2005-06 के बीच में एनीमिया (खून की कमी) से पीडि़त बच्चों की संख्या 74.2 से बढ़कर 78.9 प्रतिशत, विवाहित महिलाओं में एनीमिया का आपात 51.8 से बढ़कर 56.2 प्रतिशत और गर्भवती महिलाओं में यह 49.7 प्रतिशत से 57.9 प्रतिशत तक पहुंच गया। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि एनीमिया का संबंध सीधे तौर पर पोषण पर निर्भर है और एनीमिया का बढ़ना देश में बढ़ते कुपोषण की कहानी बयान करता है। कुपोषण की स्थिति इतना ही नहीं, यदि दूसरे मापदंड लें तो भी पोषण के संदर्भ में कोई बेहतर स्थिति दिखाई नहीं पड़ती। 2005-06 में 3 वर्ष से कम आयु के बच्चे जिनका भार कम पाया गया उनकी संख्या 40.4 प्रतिशत थी। 1998-99 में यह उससे थोड़ी अधिक 42.7 प्रतिशत थी। इसी आयु वर्ग में जो बच्चे अपनी आयु की तुलना में पतले थे उनकी संख्या 1998-99 में 19.7 प्रतिशत से बढ़कर 2005-06 में 22.9 प्रतिशत हो गई। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि पिछले डेढ़ दशक में पोषण के संदर्भ में कोई प्रगति नहीं हुई है, बल्कि कुपोषण में वृद्धि अवश्य दिखाई देती है। हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से यह बात पुष्ट होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट भी देश में बढ़ते कुपोषण की ओर इंगित करते हैं।


रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1993-94 और 2004-05 के बीच ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में कैलोरी उपभोग क्रमश: 4.9 प्रतिशत और 2.5 प्रतिशत गिरा है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रोटीन का उपभोग इस बीच 5 प्रतिशत घटा है। 2004-05 में दो तिहाई ग्रामीण और 70 प्रतिशत शहरी भारतीयों ने यह बताया कि उन्हें 2700 कैलोरी नहीं मिलती। संगठन के आंकड़ों के अनुसार कुपोषण की स्थिति भयंकर पाई गई। आर्थिक विकास का विरोधाभास देश के नीति-निर्माताओं का दावा है कि हमारी राष्ट्रीय आय 7 से लेकर 9 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। भारत आर्थिक ताकत के मामले में दुनिया में तीसरे पायदान पर है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में दुनिया के बाकी देशों की तुलना में भारत का मानव विकास रिपोर्ट कार्ड संतोषजनक नहीं है। वर्ष 2007 में भारत मानव विकास की दृष्टि से 134वें स्थान पर था और वर्ष 2011 में भी 134वें स्थान पर बना हुआ है। ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि भारत में आम आदमी के कुपोषण की ऐसी स्थिति क्यों है? इस विरोधाभास को समझने के लिए हमें आर्थिक संवृद्धि की संरचना को समझना होगा। आर्थिक संवृद्धि का मतलब यह है कि हमारी जीडीपी में वृद्धि हो रही है। जीडीपी देश में उत्पादित होने वाली वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य को कहते हैं। पिछले दो दशकों में जीडीपी में होने वाली अधिकांश वृद्धि सेवाओं के क्षेत्र में हुई है। औद्योगिक क्षेत्र में भी आर्थिक संवृद्धि देखने को मिल रही है, लेकिन कृषि क्षेत्र में आर्थिक संवृद्धि की दर ऋणात्मक से 3-4 प्रतिशत के बीच है।


आज कृषि का जीडीपी में योगदान 38 प्रतिशत से घटकर महज 14.3 प्रतिशत रह गई है। यह आंकड़े न केवल खाद्य पदार्थो की अपर्याप्त उपलब्धता की ओर इंगित करते हैं, बल्कि कृषि पर निर्भर 60 प्रतिशत जनसंख्या की आर्थिक विपन्नता की तरफ भी इशारा करते हैं। जाहिर है जब 60 प्रतिशत लोगों को केवल 14 प्रतिशत आय प्राप्त हो रही हो तो उनके कुपोषण का बढ़ना स्वभाविक ही है। आर्थिक असमानता बढ़ते कुपोषण का एक प्रमुख कारण देश में बढ़ती आर्थिक असमानता है। आर्थिक असमानताओं का एक मापक गिनी चरांक होता है, जो इंगित करता है कि 1993 में ग्रामीण क्षेत्रों में यह 28.6 प्रतिशत से बढ़कर 2004-05 में 30.5 प्रतिशत हो गया। शहरी भारत में यह 34.4 प्रतिशत से बढ़कर 37.6 प्रतिशत हो गया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा संपन्न सभी सर्वेक्षणों में यह इंगित हो रहा है कि देश में गरीबी घटने की दर लगातार कम हो रही है। संगठन के 66वें दौर की हाल की रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 और 2009-10 के बीच आकस्मिक श्रमिकों की संख्या बल में 219 लाख की वृद्धि हुई। पिछले दौर की तुलना में यह वृद्धि काफी ज्यादा है। स्थाई यानी वेतन पाने वाले श्रमिकों की बात करें तो 2009-10 के दौर में यह वृद्धि पूर्व से आधी यानी मात्र 58 लाख ही थी। स्वरोजगारयुक्त श्रमिकों जिसमें अधिकतर किसान, लघु और कुटीर उद्योगपति और व्यापारी आते हैं की संख्या में 251 लाख की कमी दर्ज की गई है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब आकस्मिक रोजगार वाले श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होती है तो रोजगार का स्तर घटता है और श्रमिकों के जीवन स्तर में कमी आती है। प्रतिशत आधार पर देखें तो पाते हैं कि 1993-94 में ग्रामीण क्षेत्रों में आकस्मिक रोजगार केवल 35.6 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 18.3 प्रतिशत था। 2009-10 में यह ग्रामीण क्षेत्रों में 38.6 प्रतिशत पहुंच गया और शहरी क्षेत्रों में 17.5 प्रतिशत रहा।


2004-05 की तुलना में 2009-10 में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आकस्मिकता वाले रोजगार तेजी से बढ़े हैं। गौरतलब है कि यह प्रतिशत 2004-05 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमश: 35.0 और 15.1 ही था। बढ़ती आर्थिक संवृद्धि के बीच गरीबी, भुखमरी और कुपोषण का यह सच देश के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने के लिए सही लक्षण नहीं माना जा सकता है। देश के नीति निर्माताओं को इस विषय पर विचार करना होगा और स्थिाति में बदलाव के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। कुपोषण की इस स्थिति के लिए भले ही राष्ट्र शर्मसार है, लेकिन इसके लिए दोषी कोई और नहीं, बल्कि हमारी सरकार है।


लेखक अश्विनी महाजन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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