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सामाजिक समीकरण साधने की कवायद

जागरण मेहमान कोना
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बसपा प्रमुख और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने 15 जनवरी को अपने जन्मदिन के अवसर पर सबसे पहले उत्तर प्रदेश के लिए सभी 403 उम्मीदवारों की सूची जारी करके इस मामले में अन्य दलों को पीछे छोड़ दिया। हालांकि भ्रष्टाचार में नाम आने के कारण मायावती को निश्चित उम्मीदवारों के नाम बदलने पड़े, अन्यथा उन्होंने एक वर्ष पहले से इसकी शुरुआत कर दी थी। बसपा की सूची जारी होने के समय तक केवल समाजवादी पार्टी ही 400 उम्मीदवारों की सूची जारी कर पाई थी। भाजपा ने तब तक 381 और कांग्रेस ने केवल 325 उम्मीदवार तय किए थे। वैसे इन पार्टियों के उम्मीदवारों के प्रति देश की उतनी रुचि नहीं थी, जितनी बसपा के उम्मीदवारों के प्रति। वास्तव में सरकार में होने तथा पिछले चुनाव से सर्वजन का उद्घोष करने वाली बसपा के उम्मीदवारों की सबसे ज्यादा प्रतीक्षा थी। 15 जनवरी को अपने जन्मदिन पर मायावती ने पार्टी उम्मीदवारों की जो सूची जारी की, उसके चार मुख्य आधार नजर आते हैं- भ्रष्टाचार और अपराध के विरुद्ध कड़े तेवर का संदेश, सत्ता विरोधी रुझान को कम करने की कोशिश, सर्वजन सामाजिक समीकरण कायम रखना और मुसलमानों को विशेष तरजीह।


केवल 24 मंत्रियों को दोबारा उम्मीदवार बनाया गया है। यह भ्रष्टाचार और अपराध के दाग से पार्टी का चेहरा साफ करने का ही कदम है। जिन मंत्रियों को बर्खास्त किया गया, उन्हें तो टिकट देने को प्रश्न नहीं था, लेकिन ऐसे मंत्री जो पद पर हैं या जो मंत्रिपद जाने के बावजूद पार्टी में हैं, उन्हें भी प्रत्याशी नहीं बनाया गया है। उम्मीदवारों की सूची जारी करते हुए मायावती ने कहा भी कि पिछली बार कुछ गलत लोगों को टिकट मिल गया, जो हमारी पार्टी के कारण जीत गए। पर उन्होंने गलत काम किया और पार्टी को भी बदनाम किया तथा उनकी संगति में पार्टी कार्यकर्ता भी खराब हुए। ऐसे लोगों को हमने बाहर कर दिया है। उन्होंने कहा कि उनके उम्मीदवारों की छवि साफ सुथरी है और वे जनता का ख्याल रखने वाले हैं। जिन्हें हमने बाहर का रास्ता दिखाया, उन्होंने जनता का भी ख्याल नहीं रखा। इस प्रकार मायावती ने मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश की है कि भ्रष्टाचार और जन उपेक्षा को वह कतई सहन नहीं कर सकतीं हैं। विरोधी दलों द्वारा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों तथा उजगार हुए कांडों के आलोक में मतदाता उनके इस रवैये से प्रभावित होते हैं या नहीं, यह देखना होगा। वैसे टिकट काटने का संबंध सत्ता विरोधी रुझानों से भी है। सत्ता विरोधी रुझान को कम करने के लिए 110 वर्तमान विधायकों को उम्मीदवार नहीं बनाया गया है। वर्ष 2007 में बसपा के 206 विधायक जीते थे। उपचुनावों में जीत और कुछ छोटे दलों के विलय के कारण बसपा के विधायकों की संख्या 226 पर पहुंच गई था। इनमें से पांच विधायक दूसरे दलों में चले गए। इस तरह 221 विधायकों में से 110 को टिकट नहीं मिलने का मतलब आधे विधायकों का टिकट कट जाना है। भारतीय चुनावों के इतिहास में एक साथ इतने विधायकों को उम्मीदवारी से वंचित करने का यह पहला ही उदाहरण होगा।


सरकार के विरुद्ध जहां सामूहिक सत्ता विरोधी रुझान हो सकता है, वहीं वर्तमान विधायकों के प्रति स्थानीय जनता के भी विरोधी रुझान होने की आशंका रहती है। मायावती ने एक साथ इन दोनों विरोधी आशंकाओं को कम करने की कोशिश की है। अब आएं सर्वजन की नीति यानी सामाजिक समीकरणों पर। भ्रष्टाचार के कारण जिन्हें बाहर जाना पड़ा, उनमें सवर्णो की संख्या ज्यादा रही। वैसे ज्यादातर जगहों में जिस जाति के प्रत्याशी के टिकट कटे हैं, उसी जाति का प्रत्याशी बनाया गया है। 2007 में बसपा ने 139 सवर्णो को टिकट दिया था। इस बार 117 सवर्णो को उम्मीदवार बनाया गया है। पिछली बार की 114 पिछड़ों की जगह 113 पिछड़ों को, 61 अल्पसंख्यकों की जगह 85 अल्पसंख्यकों को और 89 दलितों की जगह 88 दलितों को उम्मीदवार बनाया गया है। 2007 में 68 सवर्ण, 53 पिछडे़, 31 मुस्लिम एवं 54 दलित जीते थे। सर्वजन का सामाजिक समीकरण बसपा के पक्ष में गया था और पहली बार पार्टी अपने दम पर बहुमत पाने में कामयाब हुई थी। अगर मुख्य जातियों के अनुसार वर्गीकरण करें तो 2007 में दलितों का स्थान तीसरे नंबर पर था। इस बार भी ऐसा ही है, लेकिन प्रदेश में 85 तो सुरक्षित सीटें हैं। इसलिए केवल तीन दलित ही सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मायावती ने दलितों को न पिछली बार अतिरिक्त तरजीह दी थी और न इस बार दिया है। 85 उम्मीदवार तो दलितों के चाहिए ही थे। यह उसके सामाजिक चरित्र में आए बदलाव के सुदृढ़ होने के प्रमाण हैं। वर्ष 2007 में दलितों के बाद सबसे ज्यादा 86 टिकट ब्राह्मणों को दिया था। इस बार 74 ब्राह्मणों को टिकट मिला है यानी 12 की कमी है। पर 2002 से तुलना करें तो यह संख्या दोगुनी है और अन्य सभी पार्टियों से ज्यादा भी। साथ ही दलितों के बाद ब्राह्मण उम्मीदवार दूसरे नंबर पर हैं। सपा ने 50 तो भाजपा ने 60 ब्राह्मणों को टिकट दिया है। कांग्रेस के घोषित 325 उम्मीदवारों में ब्राह्मणों की संख्या 39 है। ऐसा लगता है कि ब्राह्मणों को टिकट देने के मामले में बसपा का स्थान सबसे ऊपर रहेगा। पार्टी के ब्राह्मण चेहरा सतीश चंद्र मिश्र माने जाते हैं।


मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन के पूर्व सतीश चंद्र मिश्र की मां डॉ. शकुंतला मिश्र के नाम पर विकलांग पुनर्वास विश्वविद्यालय का लोकार्पण किया था। यह देखना होगा कि बसपा के मतों पर राकेशधर त्रिपाठी, ददन मिश्र जैसे ब्राह्मणों का टिकट कटने का प्रभाव पड़ता है या नहीं। सीएसडीएस के सर्वेक्षण के अनुसार, 2007 में 18 प्रतिशत से ज्यादा ब्राह्मणों ने बसपा को मत दिया था, जिसने राजनीतिक वर्णक्रम बदल दिया। अन्य जातियों में इस बार क्षत्रिय उम्मीदवारों की संख्या भी 2007 के 38 की जगह 33 रह गई है। सपा ने 45, भाजपा ने 60 और कांग्रेस ने अभी तक 51 क्षत्रियों को अपना उम्मीदवार बनाया है। बसपा क्षत्रिय मतों में अपनी सीमाओं को समझती है। बावजूद इसके 33 स्थान कम नहीं हैं। यह सभी प्रमुख प्रभावी जातीयों के बीच संतुलन साधने का रवैया है। ध्यान रखने की बात है कि पार्टी के पूर्व क्षत्रिय चेहरे बादशाह सिंह, फतेह बहादुर सिंह जैसे कई नेता भ्रष्टाचार के आरोप के कारण बाहर हैं। बसपा ने सबसे ज्यादा बढ़ोतरी अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमान उम्मीदवारों में की है। 61 की जगह 85 मुसलमानों को टिकट देना सामान्य कदम नहीं है। सपा ने 80 मुसलमानों को टिकट दिया है। कांग्रेस के घोषित 325 उम्मीदवारों में मुसलमानों की संख्या 51 थी। इस हिसाब से मुसलमानों को टिकट देने के मामले में बसपा सबसे ऊपर है। इस समय प्रदेश में मुस्लिम मतों के लिए जो मारकाट मची है, उसमें बसपा का यह कदम ज्यादा महत्वपूर्ण है। कांग्रेस मुसलमानों को केंद्र द्वारा पिछड़ों के आरक्षण से 4.5 प्रतिशत देने तथा 9 प्रतिशत के वायदे से लुभाने की कोशिश कर रही है तो सपा 18 प्रतिशत के वायदे से।


मायावती का कहना है कि पिछड़ों के कोटे से 4.5 प्रतिशत की मांग उन्होंने ही की थी, ताकि उच्चतम न्यायालय की 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा में इन्हें स्थान मिल जाए। अब इतने ज्यादा उम्मीदवारों को खड़ा करने का अर्थ मुसलमानों पर फोकस बढ़ाना है। इस प्रकार मायावती ने चुनाव जीतने के लिए आवश्यक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवार तय किए हैं। इनमें वर्तमान भ्रष्टाचार विरोधी माहौल में प्रतिकूलता कम करने तथा सामाजिक समीकरणों को अपनी राजनीति के अनुकूल बनाने की कोशिश साफ झलकती है। अगर बसपा का हाथी विजय को बरकरार रखता है या कम से सम्मानजनक स्थान हासिल कर लेता है तो इसका अर्थ यही होगा कि 2002 से सर्वजन की घोषणा के अनुरूप जो रणनीति बसपा ने शुरू की और 2007 में जिसे आगे बढ़ाया, उसका स्थिर सुदृढ़ीकरण हुआ है। अगर परिणाम विपरीत आया तो तत्काल यह माना जाएगा कि 2007 के बसपा द्वारा बनाए गए सामाजिक समीकरणों का उसके पक्ष में आया परिणाम केवल एक तत्कालिक परिघटना थी।


लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं


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