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जनादेश के सबक

जागरण मेहमान कोना
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हाल के चुनावों में अल्पसंख्यक आरक्षण का मुद्दा निष्प्रभावी रहने को एक शुभ संकेत के रूप में देख रहे हैं बलबीर पुंज


उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा का जनादेश राष्ट्रीय दलों के लिए बड़ा सबक है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्राय: सभी सेक्युलर दलों ने मुस्लिम तुष्टीकरण और जातिगत राजनीति के आधार पर अपनी नैया खेने की कोशिश की। भारतीय जनता पार्टी ने भी जातीय समीकरणों को प्राथमिता दी, जिसकी कीमत उसे चुकानी पड़ी। भाजपा के जो पारंपरिक शुभचिंतक थे वे इसी कारण पार्टी से बिदके, किंतु इस चुनाव में कांग्रेस ने जिस तरह सांप्रदायिक आधार पर राजनीतिक प्रतिस्पद्र्धा को बढ़ावा दिया उसके दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। अल्पसंख्यकों को अपने पाले में करने के लिए चुनाव से पूर्व कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित कोटे में से 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था करने के बाद चुनाव आयोग से टकराव लेते हुए मुसलमानों को अलग से 9 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की। इससे आगे बढ़ते हुए समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा कर दिया। इस तरह की प्रतिस्पद्र्धात्मक राजनीति की सीमाएं हैं। सर्वाधिक चिंता की बात यह भी है कि मुस्लिम तुष्टीकरण के सबक के रूप में हमारे सामने देश का त्रासदपूर्ण रक्तरंजित विभाजन है। यह सही है कि इस तुष्टीकरण नीति की नींव महात्मा गांधी ने रखी थी, जिन्होंने तुर्की में खलीफा की बहाली के लिए छेड़े गए खिलाफत आंदोलन को बिना मांगे कांग्रेस का समर्थन दिया था। उसकी परिणति मोपला दंगों से चलते हुए भारत विभाजन में हुई, किंतु महात्मा गांधी ने खिलाफत का समर्थन जहां देश की स्वाधीनता की ध्येय प्राप्ति के लिए किया वहीं आजादी के बाद कांग्रेस तुष्टिकरण का यह खेल अपने वजूद को बनाए रखने में करती आई है।


सांप्रदायिकता को उकसाकर राजनीतिक रोटी सेंकने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है, वह हमने पंजाब के मामले में भी अनुभव किया है। भाजपा और अकाली दल का गठबंधन तोड़ने के लिए कांग्रेस ने भिंडरावाले के नाम पर जिस विचारधारा को पोषित किया, उसके कारण पंजाब लंबे समय तक अलगाववाद की आग में झुलसता रहा। हजारों निरपराध देशभक्त हिंदू-सिखों की जान गईं। उस कुटिलता के कारण तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री बेअंत सिंह को असमय मौत का शिकार बनना पड़ा और अंतत: उस विचारधारा के पोषण ने ही इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि भी तैयार की, किंतु कांग्रेस ने इन सबसे कोई सबक नहीं सीखा है। चुनावों के दौरान कांग्रेस कहीं सामाजिक खाई को चौड़ा कर तो कभी अलगाववादी ताकतों का समर्थन कर अपना उल्लू साधती आई है। कभी वह महाराष्ट्र में राज ठाकरे को गले लगाती है तो मणिपुर में अलगाववादी संगठनों का वित्त पोषण करती है। राजनीतिक लाभ के लिए केरल में कांग्रेस और मा‌र्क्सवादी कोयंबटूर बम धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी को गले लगाते हैं। सन 2006 में होली की छुट्टी वाले दिन केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर सर्वसम्मति से मदनी को पैरोल पर रिहा करने का प्रस्ताव पारित करने वाले मा‌र्क्सवादी और कांग्रेसी हर चुनाव में मदनी का साथ पाने के लिए प्रतिस्पद्र्धा करते हैं।


बाटला हाउस मुठभेड़ का मसला भी उसी कुत्सित नीति का विस्तार है। बाटला हाउस मुठभेड़ में एक पुलिस अधिकारी को अपनी शहादत देनी पड़ी थी, किंतु तब कांग्रेस और सपा ने ही सबसे पहले दिल्ली में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे कट्टरपंथियों के साथ खड़े हो इसे फर्जी मुठभेड़ साबित करने की कोशिश की थी। वह प्रयास थमा नहीं है। बाटला हाउस मुठभेड़ को कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह हर मौके पर फर्जी ठहराते आए हैं। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री द्वारा बाटला मुठभेड़ को वास्तविक बताए जाने के बावजूद वह निरंतर इस देश के जवानों का मनोबल तोड़ने में लगे रहे। चुनाव में इस बार कांग्रेस इससे भी निचले स्तर पर उतर गई। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने बाटला मुठभेड़ की तस्वीरें देखकर कांग्रेस अध्यक्ष के जारजार रोने की बात की। सामाजिक सद्भाव के लिए यह शुभ संकेत है कि आजमगढ़ के मुस्लिम मतदाता इससे अप्रभावी रहे और इसका संदेश तो उन्होंने आजमगढ़ दौरे पर गए राहुल गांधी को नकार कर पहले ही दे दिया था। आतंकवाद से जुड़े मामलों में कई राज्यों की पुलिस आजमगढ़ और आसपास के इलाकों से लगातार गिरफ्तारी करने लगी तो स्वाभाविक तौर पर आजमगढ़ पर लोगों का संदेह बढ़ा, किंतु इसका निराकरण करने की बजाए सेक्युलर दलों और कुछ इस्लामी संगठनों में मुसलमानों का रहनुमा बनने की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ी। पीस पार्टी और उलेमा कौंसिल जैसे दलों का मुस्लिम बहुल इलाकों में हाशिए पर चले जाना अपने आप में एक सबक है।


सत्ता में आने के बाद से ही कांग्रेस मुसलमानों को आकृष्ट करने के लिए भारतीय संसाधनों पर उनका पहला हक होने और रंगनाथ व सच्चर आयोग के बहाने भरमाने का अथक प्रयास करती आई है। उत्तर प्रदेश के चुनाव से पूर्व कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटे में सेंधमारी कर उसमें से 4.5 प्रतिशत आरक्षण अल्पसंख्यकों के लिए करने की घोषणा की थी। चुनाव के दौरान मजहब के आधार पर मुसलमानों को कांग्रेस ने 9 फीसदी तो सपा ने 18 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा किया है। स्वाभाविक प्रश्न है कि यह आरक्षण कहां से आएगा?


देश में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए क्रमश: 15 फीसदी और 7.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। अनुसूचित जाति की आबादी सन 2001 की जनगणना के अनुसार 16.20 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.10 फीसदी है। मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़े वगरें के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था अलग से की गई। कुल मिलाकर अभी 49.5 फीसदी आरक्षण संविधान प्रदत्त हैं। एमआर बालाजी बनाम मैसूर केस में सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मण रेखा खींचते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि आरक्षण किसी भी हाल में 50 फीसदी से अधिक नहीं हो। मजहब के आधार पर मुसलमानों के लिए ज्यादा से ज्यादा आरक्षण का दावा करने वाले यह व्यवस्था कहां से करेंगे? कांग्रेस ने तो पिछड़े वर्ग का हक मारकर अल्पसंख्यकों को पहले ही दे दिया, किंतु इस अल्पसंख्यक श्रेणी में अन्य अल्पसंख्यक वर्ग भी शामिल हैं। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक विषमता दूर करने और दलितों-वंचितों को न्याय देने के लिए की गई थी। आज आरक्षण के प्रावधान का जिस तरह अतार्किक विस्तार करने का प्रयास किया जा रहा है, क्या वह उस महान लक्ष्य को प्राप्त करने में कभी सहायक बन सकेगा? साथ ही राष्ट्रहित में यह विचारमंथन भी होना चाहिए कि मजहब के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था कर सेक्युलरिस्ट एक और विभाजन की पृष्ठभूमि तो नहीं तैयार कर रहे?


लेखक बलबीर पुंज भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं


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