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राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का विश्लेषण कर रहे हैं प्रदीप सिंह
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों का एक साफ संदेश है कि देश का मतदाता जाति और धर्म की राजनीति के पारंपरिक खांचे से बाहर आ गया है। मतदाता अब विकास और अपने जीवन स्तर को सुधारने वाली सरकार चाहता है। जो पार्टी इस बात को समझ लेगी वही मतदाताओं की पसंद बनेगी। पंजाब में इस बात को अकाली दल ने अच्छी तरह समझ लिया है। उसने पंथिक राजनीति का रास्ता छोड़कर विकास की राह पकड़ ली। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने 2007 में चुनाव हारने के बाद इस बात को समझ लिया था, पर देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियां यह समझने को तैयार नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा जाति धर्म की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाईं। इसीलिए राजनीति के हाशिए पर हैं। इन चुनावों का एक और संदेश है कि राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका घटने के बजाय बढ़ रही है। राष्ट्रीय दल लगातार सिकुड़ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव नतीजे एक उम्मीद की जीत है। इस उम्मीद का केंद्र बने हैं अखिलेश यादव। जिस समाजवादी पार्टी को पांच साल पहले लोगों ने गुंडों की सरकार बताकर सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था उसी को गाजे-बाजे के साथ वापस ले आए। भाजपा और कांग्रेस पर लोगों को भरोसा नहीं हुआ। फिर उसी समाजवादी पार्टी पर भरोसा क्यों किया? उसकी वजह यह है कि मतदाता सत्तारूढ़ पार्टी या सत्ता की आकांक्षा रखने वाली पार्टी से विनम्रता की अपेक्षा करता है, अहंकार की नहीं। यही काम पूरे चुनाव अभियान में अखिलेश ने किया। वह लोगों को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि समाजवादी पार्टी ने अपनी पिछली गलती से सबक सीख लिया है। चुनाव के नतीजे आने के बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा कि इस जीत का आनंद तब है जब जनता को आनंद मिले।
पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए मुश्किलें और अवसर दोनों लेकर आए हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे राहुल गांधी के लिए संदेश है कि प्रदेश की राजनीति दिल्ली से नहीं चलती। यह भी कि संगठन बनाने और खड़ा करने का कोई शॉर्टकट नहीं होता। उधार के नेताओं से कार्यकर्ता खड़े नहीं होते। अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर में कांग्रेस को हराकर मतदाताओं ने बताया है कि गांधी परिवार के वायदों की खेती की फसल का यही नतीजा होगा। सिर्फ वायदे और विपक्षियों की आलोचना से काम नहीं चलने वाला। इस चुनाव में पार्टी ने पहले जाति को प्राथमिकता दी और फिर सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लेने की कोशिश की। कांग्रेस मतदाताओं के बदलते रुझान को समझने में नाकाम रही।
यूपी से भारतीय जनता पार्टी के लिए भी संदेश अच्छा नहीं है। भाजपा के केंद्रीय नेताओं को समझ लेना चाहिए कि राज्य पार्टी के नेतृत्व पर जनता 1993 के बाद से लगातार अविश्वास ही जता रही है। प्रदेश के मतदाताओं की नजर में सपा के गुंडाराज और बहुजन समाज पार्टी के भ्रष्टराज का विकल्प भाजपा नहीं है। वरुण गांधी ने गलत नहीं कहा था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के पचपन उम्मीदवार घूम रहे हैं। इस दल पर यह कहावत सटीक बैठती है-ज्यादा जोगी मठ उजाड़।
पंजाब में अकाली दल और भाजपा ने मतदाताओं के बदलते रुझान को समय रहते पहचान लिया था, पर कांग्रेस और उसके नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह अपने राजसी घोड़े से उतरने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए राहुल गांधी के आशीर्वाद को जनता का आशीर्वाद मान लिया। उन्हें विकास के मुद्दों से ज्यादा डेरों के समर्थन पर भरोसा था। अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनकी सरकार के लोकलुभावन कार्यक्रमों का मजाक उड़ाते रहे। उन्हें समझ में नहीं आया कि जनता अब ऐसी सरकार चाहती है जो उनकी जरूरतों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो। कांग्रेस को पंजाब में अब कैप्टन अमरिंदर सिंह से आगे सोचना होगा।
उत्तराखंड में भुवनचंद्र खंडूड़ी को इसका श्रेय देना होगा कि वह भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान को एक हद तक नियंत्रित करने में सफल रहे। वैसे उनकी यह सफलता खुद उनके हार जाने के कारण फीकी हो गई। फिर भी इस राज्य में कांग्रेस और भाजपा के बीच जबरदस्त टक्कर हुई।?भाजपा के लिए यह राहत की बात है, क्योंकि निशंक ने पार्टी की लुटिया डुबो ही दी थी। खंडूड़ी की ईमानदार और अच्छे प्रशासक की छवि भाजपा के काम आई। दिल्ली के रिमोट कंट्रोल से राज्यों को चलाने की कांग्रेस की संस्कृति का खामियाजा कांग्रेस उत्तराखंड में भुगत रही है। 2002 में हरीश रावत को मुख्यमंत्री पद से वंचित करके कांग्रेस ने पार्टी का जो नुकसान किया उसकी मार अब तक झेल रही है। गोवा में कांग्रेस को भ्रष्टाचार ले डूबा। कांग्रेस ने राज्य से लगातार मिल रहे संकेतों को नजरअंदाज किया। कांग्रेस को राहत मणिपुर से मिली है, जहां कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा बनाने की पी. संगमा और ममता बनर्जी की कोशिश सफल नहीं हुई।
इन पांच राज्यों के चुनावी नतीजों का असर इन राज्यों के अलावा केंद्र की राजनीति को भी प्रभावित करेगा। कांग्रेस की मुश्किल बजट सत्र के साथ ही शुरू हो जाएगी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से संबंध बिगाड़कर पार्टी ने अपनी कठिनाई और बढ़ा ली है। उसे बगावत पर उतारू ममता बनर्जी को साधने के लिए मुलायम सिंह यादव जैसे सहयोगी की जरूरत पड़ेगी। गोवा में सत्ता गंवाने और पंजाब और उत्तराखंड में सत्ता हासिल करने में नाकाम रहने के बाद कांग्रेस पर सहयोगियों का दबाव बढ़ जाएगा। वोट दिलाने वाले नेता के रूप में राहुल गांधी की क्षमता पर भी सवाल उठेंगे। हालांकि चुनाव नतीजों के नकारात्मक असर से राहुल गांधी को बचाने की कोशिशें नतीजे आने से पहले ही शुरू हो गई थीं, पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार से राहुल गांधी को अलग करना आसान नहीं होगा। इस बात को राहुल गांधी ने शायद समझ लिया है, क्योंकि नतीजे के बाद गांधी परिवार की परंपरा के विपरीत उन्होंने हार की जिम्मेदारी ली। कांग्रेस के लिए यह शुभ संकेत है। इससे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने में मदद मिलेगी। हार को स्वीकार करने से नेता का कद बढ़ता ही है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा की दुर्गति उसे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के खिलाफ ज्यादा आक्रामक होने से रोकेगी। उत्तर प्रदेश ने कांग्रेस और भाजपा की 2014 के लोकसभा चुनावों की तैयारियों को धक्का पहुंचाया है। दोनों राष्ट्रीय दलों को सोचना होगा कि उत्तर में हाशिए पर रहते हुए वे केंद्र में सत्ता का सपना कैसे देख सकते हैं? क्या एक बार फिर एक नई तीसरी शक्ति का राष्ट्रीय राजनीति में उदय होगा? संकेत तो ऐसे ही हैं।
लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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