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कुदरती संसाधनों की लूट

जागरण मेहमान कोना
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प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर दिखावटी चिंता तो चहुंओर है मगर जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है। लोकतंत्र के सभी स्तंभ इसको लेकर गंभीर होने का दावा करते हैं मगर अपनी जिम्मेदारी को लेकर गंभीर नहीं हैं। केंद्र व राज्य सरकारें, न्यायपालिका और तो और नए कानूनों के जरिए व्यवस्थापिका भी प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को रोक पाने में नाकाम रहीं हैं। दरअसल न तो संगठित प्रयास दिखाई दिया न हीईमानदारी। प्राकृतिक संसाधनों की लूट का यह खेल आजादी के बाद से बदस्तूर चल रहा है। मध्य प्रदेश में आइपीएस नरेंद्र कुमार की मौत इसी खौफनाक खेल का घिनौना चेहरा है। यह पहला मामला नहींहै, सत्ता तंत्र और माफिया का गठजोड़ पहले भी तमाम ईमानदार अफसरों-नेताओं की बलि ले चुका है। सरकारी संरंक्षण में सोना उगलने वाली खानों से संगठित लूट सत्ताधारी तंत्र का अघोषित खजाना भरने का अचूक हथियार बनकर उभरी है। इसे चुनाव प्रचार के दौरान खपाया जाता है। खनिज समृद्ध गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में अवैध खनन की कारगुजारी सबके सामने आ चुकी है। नक्सलबाड़ी से उठी नक्सलवाद की चिंगारी इसी संगठित लूट का नतीजा है, जिसका खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं लेकिन अफसोस हम इतिहास से सबक नहींलेना चाहते। आदिवासियों की जमीन को खोखला कर सरकार-माफिया तंत्र ने खजाना भर लिया। शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर ग्रामीणों ने बंदूक उठा ली। सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता और लोकायुक्त रिपोर्ट से कर्नाटक में अंधाधुंध खनन से अरबों-खरबों रुपये की लूट का भंडाफोड़ हुआ। इसमें कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी सरकारों के तत्व लिप्त पाए गए।


आंध्र प्रदेश में दिवंगत मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल में जिस तरह खनन माफियाओं को रेवडि़यां बांटी गई और खनिज संसाधनों को मिलकर लूटा गया, उसकी परत दर परत सीबीआइ जांच में खुल रही है। एक पुलिस इंस्पेक्टर का लड़का कैसे बेल्लारी का माइनिंग किंग बन बैठा। कर्नाटक के पूर्व मंत्री जनार्दन रेड्डी ने सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखकर अवैध खनन की काली कमाई में निचले स्तर से शीर्ष स्तर तक सबको भागीदार बनाया। जिस नेतृत्व पर सक्षम और स्वच्छ प्रशासन देने की जिम्मेदारी थी, उसने सत्ता बचाए रखने के लिए आंखों पर पट्टी बांध ली। गोवा में सरकारी हिमायत पाकर यही खेल खेला गया। जांच से पता चला कि पांच हजार करोड़ से अधिक मूल्य का लौह अयस्क चोरी छिपे विदेश भेज दिया गया। मध्य प्रदेश, ओडिशा भी इससे अछूता नहींहै और इसकी काली हकीकत अब हमें डरा रही है। सवाल उठता है कि क्या केंद्र और राज्य सरकारें इतनी बेबस हो गई हैं कि वह खनन माफिया तंत्र के आगे घुटने टेक चुकी हैं।


खुफिया एजेंसी और बंदरगाह तो केंद्र सरकार के नियंत्रण में हैं तो फिर वह खरबों रुपये का लौह अयस्क देश से बाहर कैसे चला गया। राज्य सरकार का मसला बताकर केंद्र अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहींझाड़ सकता। अत्याधुनिक तकनीकी संसाधनों से लैस खुफिया और जांच एजेंसियां अब तक क्या करती रहीं। अवैध खनन की कमाई में किसी भी दल ने मलाई खाने से परहेज नहींकिया। किसी का दामन दाग से धुला नहींहै। खनिज संसाधनों के बेतरतीब खनन की कीमत पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र ने भी चुकाई है। उत्तराखंड में बालू-पत्थर के अवैध खनन और विद्युत उत्पादन के लिए बन रहे बांधों से वहां का पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो रहा है। प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद लंबे समय से वहां आंदोलन कर रहे हैं, मगर जिला प्रशासन से लेकर राज्य सरकार और यहां तक कि केंद्र सरकार भी कानों में तेल डालकर बैठी है। शायद वहां भी सरकार किसी बड़ी अनहोनी का इंतजार कर रहींहैं। इससे पहले स्वामी निगमानंद का अनशन वहां सुर्खियां बना था। अवैध खनन और गंगा रक्षा के लिए छह महीने से ज्यादा आमरण अनशन के बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए।


मीडिया ने भी निगमानंद की मौत के बाद ही सुध लिया। अफसोस कि भ्रष्टाचार, सरकारी लूट और सामाजिक आंदोलन की खबरें मीडिया में तभी सुर्खियां बनती हैं, जब इसके खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई शहीद होता है। तथ्यान्वेषण, जमीनी स्तर पर हालात का आकलन और संसाधन खर्च कर हकीकत बयां करने की जहमत लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहींउठाना चाहता। गंगा रक्षा संबंधी मांगों को लेकर माह भर तक मातृसदन में अनशन करने के बाद स्वामी ज्ञान स्वरूप साणंद ने जल का भी त्याग कर दिया है। मगर किसी मीडिया में अब तक वह सुर्खी बनकर नहींउभरे हैं। शहादत पर आंसू बहाकर अपने सामाजिक दायित्वों की पूर्ति मान लेना कहां तक उचित है। भला हो न्यायपालिका का। सर्वोच्च अदालत ने पर्यावरण संरंक्षण के लिए और अवैध खनन के खिलाफ जैसी सक्रियता दिखाई, उसी का नतीजा है कि संगठित लूट का घिनौना खेल सामने आ सका। लवासा लेक प्रोजेक्ट, पॉस्को परियोजना समेत तमाम विकास कार्यो से पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे, इसके लिए शीर्ष अदालत ने न्यायिक सक्रियता दिखाई है।


नदी जोड़ो परियोजना को आगे बढ़ाने का निर्देश भी सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को दिया है। जो काम केंद्र और राज्य सरकारों को करना चाहिए, उसे भी न्यायपालिका को मजबूरी में अपने सिर लेना पड़ रहा है। विकास की सनक में पर्यावरण की चिंता किसे है। महाराष्ट्र में लवासा लेक प्रोजेक्ट, ओडिशा में पास्को, कोयला खनन के लिए नो गो एरिया का दायरा घटाना या अवैध खनन के लिए जंगलों को उजाड़ना, ऐसे मामले रोजाना सामने आते रहते हैं। पर्यावरण और वन्यजीव कानून सरकारी अक्षमता के आगे घुटने टेक चुके हैं। हजारों हेक्टेयर जंगल को उजाड़ने वालों पर मामूली जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाता है। भारत में वन आच्छादित क्षेत्र 33 फीसदी की बजाय मात्र 23 फीसदी तक सिमटा है तो इसकी वजह क्या है। नदियों, पहाड़ों, उपजाऊ जमीन को लेकर सरकारें कितनी संवेदनशील हैं, इसका एक और हालिया उदाहरण गंगा नदी घाटी विकास प्राधिकरण के तीन सदस्यों के इस्तीफे से देखने को मिला। भारी हो हल्ला हुआ तो दो साल पहले गंगा बेसिन विकास प्राधिकरण बना, मगर सरकारी अकर्मण्यता के आगे वह भी दम तोड़ता नजर आ रहा है।


प्राधिकरण को कागजी संस्था बताते हुए मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और जल पुरुष राजेंद्र सिंह सहित तीन सदस्यों ने आखिरकार इससे इस्तीफा दे दिया। तीन साल में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की सिर्फ दो बैठकें हुई। प्राधिकरण गंगा की धारा का अविरल प्रवाह सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम भी नहींबढ़ पाया। ऐसा तब है जबकि प्रधानमंत्री इस संस्था के अध्यक्ष हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत प्राधिकरण को गंगा नदी के संरक्षण पर सरकार की सर्वोच्च निगरानी, वित्तीय और नियमन संस्था बनाया गया है। सवाल है कि लूट के खेल से फायदा पा रही सरकारें खुद कुछ करना नहींचाहतीं।


इस आलेख के लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं


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