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करिश्मे पर नए सवाल

जागरण मेहमान कोना
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A.Surya Prakashचुनावों में लगे झटके के बाद नेहरू-गांधी परिवार के फिर से उभरने की संभावनाओं पर निगाह डाल रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश


अमेठी, रायबरेली, सुल्तानपुर पट्टी के विधानसभा चुनाव नतीजे नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस के लिए चिंता का विषय हैं। परिणाम से पता चलता है कि कई दशकों से गांधी-नेहरू परिवार का गढ़ रहने वाले इस क्षेत्र में कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ रहा है? क्या इससे इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि गांधी करिश्मा खत्म हो रहा है? 6 मार्च को चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद अधिकांश विश्लेषक यह देखकर विस्मित रह गए कि अमेठी, सुल्तानपुर और रायबरेली लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाली 15 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस महज दो पर ही जीत हासिल कर पाई। राहुल गांधी के प्रतिनिधित्व वाले अमेठी में कुल डाले गए 8.74 लाख वोटों में से कांग्रेस के प्रत्याशी महज 2.59 लाख वोट ही हासिल कर पाए। यह कुल वोटों का महज 30 फीसदी है। यह प्रदर्शन इतना निराशाजनक नहीं है कि हायतौबा मचाई जा सके। हालांकि अमेठी में जो थोड़ी-बहुत उम्मीद नजर आती है वह एक कदम आगे बढ़ते ही रायबरेली और सुल्तानपुर में खत्म हो जाती है। रायबरेली क्षेत्र का प्रतिनिधित्व सोनिया गांधी करती हैं, जबकि सुल्तानपुर से संजय सिंह ने चुनाव जीता था।


कांग्रेस का सत्ता अहंकार


रायबरेली में पड़े 9.12 लाख वोटों में से कांग्रेस प्रत्याशियों ने महज 1.97 लाख वोट हासिल किए। इस क्षेत्र से पार्टी पांचों विधानसभा सीटें हार गई। सुल्तानपुर में तो कांग्रेस की और भी बुरी भद पिटी। यहां 8.84 लाख वोटों में से कांग्रेस उम्मीदवारों को केवल 59817 वोट ही मिले हैं। यहां पार्टी के सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। इन तीनों क्षेत्रों की सम्मिलित तस्वीर कुछ इस तरह की है-डाले गए 26.70 लाख वोटों में से कांग्रेस को केवल 5.16 लाख यानी 19 फीसदी वोट मिले, किंतु अगर यह इन क्षेत्रों के कुल वोटों के संदर्भ में देखें तो यह करीब 44 लाख वोटों का महज 12 फीसदी है। यह दुर्दशा तब हुई है जब नेहरू-गांधी परिवार पूरे दमखम से चुनाव प्रचार में जुटा था। सोनिया और राहुल गांधी के अलावा प्रियंका वाड्रा और राबर्ट वाड्रा अपने बच्चों के साथ कांग्रेस पार्टी के लिए प्रचार कर रहे थे। अगर 2009 के लोकसभा चुनाव के आधार पर विश्लेषण करें तो यह अंतर और भी बढ़ जाता है। उस चुनाव में 20.21 लाख वोट पड़े थे, जिनमें से कांग्रेस को 12.46 लाख (60 फीसदी) मिले थे। 2012 में, कुल वोट बढ़कर 26.70 लाख हो गए जबकि कांग्रेस को मिलने वाले घटकर 5.16 लाख। कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि यूपी 2012 एक दु:स्वप्न था और नेहरू-गांधी परिवार वापसी करेगा। हालांकि यह इस पर निर्भर करेगा कि यह परिवार चुनाव परिणाम को किस नजर से देखता है और इससे क्या सबक सीखता है? इस चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा कांग्रेस को सबसे भारी पड़ा। युवा राजनेताओं में शामिल और बेदाग छवि वाले राहुल गांधी से देश के लाखो-करोड़ों लोगों को उम्मीद थी कि वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करेंगे।


राष्ट्रमंडल खेलों और 2-जी स्पेक्ट्रम घोटालों के बाद लोगों को लगा था कि राहुल गांधी आगे बढ़कर उन लोगों का नेतृत्व करेंगे जो व्यवस्था को साफ-सुथरी बनाना चाहते थे, किंतु यह करने के बजाय राहुल गांधी केंद्र सरकार और दागी राजनेताओं के प्रवक्ता के तौर पर उभरे। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का कोई संकल्प नहीं किया और इस प्रकार भ्रष्टाचार रोधी लहर का लाभ उठाने के बजाय नुकसान उठा बैठे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दयनीय स्थिति का यह प्रमुख कारण रहा। मतदाताओं को कांग्रेस से दूर करने का अन्य कारण यह रहा कि पार्टी ने मूढ़तापूर्ण तरीके से मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया। परिणाम से साफ हो जाता है कि चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान आरक्षण की नौटंकी मुसलमानों को प्रभावित नहीं कर पाई। मुस्लिम समुदाय ने समाजवादी पार्टी का प्रचंड समर्थन किया। कांग्रेस के बजाय मुसलमानों ने पीस पार्टी तक को वरीयता दी। दूसरी तरफ, आरक्षण के तमाशे से हिंदुओं का बड़ा तबका कांग्रेस से कट गया। क्या कांग्रेस को अहसास है कि मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण हिंदुओं का पार्टी से अलगाव हुआ है? चूंकि कांग्रेस की चिर प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी हिंदुओं का समर्थन गंवा रही है, क्या कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण की लीक छोड़कर हिंदुओं के बड़े वर्गो के साथ संबंध सुधारने का प्रयास करेगी? राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में क्यों विफल हुए? क्या इसलिए कि गांधी परिवार का करिश्मा खत्म हो गया है या फिर वह गलत फैसलों का शिकार हुए? आगे, बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस इन सवालों का जवाब क्या देती है। जो लोग अनुमान लगा रहे हैं कि नेहरू-गांधी का करिश्मा खत्म हो गया है और उनके गढ़ में उनका नामोनिशान मिट गया है, वे जल्दबाजी में गलत निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं।


आज भी, जहां तक चुनावों का संबंध है नेहरू-गांधी परिवार प्रथम राजनीतिक परिवार है। यद्यपि मतदाताओं पर उनकी पकड़ ढीली हुई है, फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर वे सबसे अधिक वोट खींचने वाले हैं। यही कारण है कि 1978 में इंदिरा गांधी चिकमंगलूर से आसानी से जीत गई थीं और सोनिया गांधी 1999 में बेल्लारी से। इस परिवार के सदस्यों के प्रति मतदाताओं का आकर्षण संजय-मेनका शाखा तक जाता है। मेनका गांधी पीलीभीत से आसानी से पांच चुनाव जीत चुकी हैं, जिनमें से दो उन्होंने निर्दलीय लड़े थे। उनके बेटे वरुण गांधी ने राजनीति में उतरते ही पीलीभीत में उनका स्थान ले लिया, जबकि मेनका गांधी आंवला चली गईं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि परिवार के सदस्यों को चुनाव में अन्य राजनेताओं के मुकाबले जबरदस्त लाभ मिलता रहा है। यह भी सच्चाई है कि राजीव-सोनिया शाखा का मतदाताओं पर प्रभाव संजय-मेनका शाखा से कहीं अधिक है। हालांकि, परिवार का सदस्य होने का मतलब सफलता की गारंटी नहीं है। इस परिवार के सदस्य तभी लाभ की स्थिति में रहते हैं जब उनका हाथ जनता की नब्ज पर रहता है, उनका दृष्टिकोण राष्ट्रवादी होता है और वे सांप्रदायिक राजनीति में संलिप्त नहीं होते। जब भी इन तीन कारणों से गांधी-नेहरू परिवार का प्रदर्शन कमजोर पड़ता है, जैसाकि 1977, 1989, 1999 और 2012 में हुआ है, नेहरू-गांधी वंशावली लाभ के बजाय नुकसान में बदल जाती है। यह देखने के लिए हमें इंतजार करना होगा कि गांधी-नेहरू परिवार अपना करिश्मा बनाए रखता है या फिर धीरे-धीरे, किंतु निश्चित तौर पर इसकी चमक धूमिल पड़ती है।


लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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