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यूरोपीय देश नार्वे के चाइल्ड वेलफेयर एक्ट के अनुसार बच्चे के एक साल के होते ही किंडरगार्डेन में भेज दिया जाता है और छह साल में उसकी पढ़ाई शुरू होती है। 1992 में बने इस एक्ट के मुताबिक यदि अभिभावक अपने बच्चे का भरण-पोषण नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें नार्वे की सरकार गोद ले लेती है। नार्वे की परंपराओं में बच्चों को हाथ से खाना खिलाना और अपने साथ एक ही बिस्तर पर सुलाना सही नहीं माना जाता। इसका खामियाजा नार्वे में रह रहे एक प्रवासी भारतीय दंपति को तब भुगतना पड़ा जब गलत परवरिश के आरोप में उनके अबोध बच्चों को उनसे अलग कर दिया गया। दरअसल दंपति ने भारतीय पंरपराओं के मुताबिक बच्चों को हाथ से खाना खिलाया और अपने साथ एक ही बिस्तर पर सुलाया था।
बच्चों की देखरेख करने वाली एक समिति को जब इस बात का पता चला तो वह अदालत में गई और बच्चों को उनके मां-बाप से अलग कर पालनाघर में रख दिया गया। पिछले दस महीनों से यह दंपति अपने बच्चों को हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहा था। इस दंपति का वीजा मार्च 2012 में खत्म हो रहा है। ऐसे में उनके लिए नार्वे में कानूनी लड़ाई और मुश्किल हो जाती। इसीलिए उन्होंने भारत सरकार से शीघ्र दखल की गुहार लगाई थी। भारतीय विदेशमंत्री के हस्तक्षेप के बाद एक समझौते से इस विवाद को सुलझा लिया गया। इसके तहत बच्चों को उनके माता-पिता के बजाय चाचा के हवाले किया जाएगा, जिसमें माता-पिता उनसे नियमित रूप से मिल सकेंगे। इससे समस्या का तात्कलिक हल तो निकाल लिया गया, लेकिन बच्चों के परवरिश के जातीय, धार्मिक और भाषायी सवाल अनुत्तरित रह गए। यह समस्या भारत और यूरोप में बच्चों की परवरिश की अलग-अलग पद्धतियों के कारण पैदा हुई।
भारतीय परिवारों में जहां मां रात को अपने छोटे-छोटे बच्चों को छाती से चिपकाए उन्हें लोरियां और कहानियां सुनाते हुए सुलाती है, वहीं पश्चिमी देशों में बच्चों को अलग कमरे में रखा जाता है। वहां मां-बाप बच्चों के पौष्टिक भोजन और भरपूर नींद से अधिक की चिंता नहीं करते हैं। भारतीय पंरपरा मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानती है जिसमें बच्चों को मां-बाप ही नहीं बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहना अनिवार्य माना जाता है। विज्ञान भी इस बात को मानता है कि माता-पिता विशेषकर माता के अधिक निकट रहने से बच्चे में सुरक्षा की भावना आती है। मां के प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह अधिक संवेदनशील बनता और बड़ा होकर समाज के अन्य सदस्यों से सद्व्यवहार करता है। इसके विपरीत माता-पिता के प्यार और सान्निध्य से वंचित बच्चे अधिक कुंठित, संवेदनहीन और झगड़ालू होते हैं। नार्वे में उठे इस प्रसंग को भले ही दो विभिन्न सांस्कृतिक दृष्टिकोणों में अंतर को मानकर नजरअंदाज कर दिया जाए, लेकिन इसने एक गंभीर मुद्दे को बहस के केंद्र में ला दिया है।
पश्चिमी देशों में बच्चों को शुरू से ही आत्मनिर्भर बनना सिखाया जाता है तो इसका श्रेय वहां की कम जनसंख्या और जनसंख्या वृद्धि की धीमी रफ्तार को है। यही कारण है कि इन देशों में कार्यशील आबादी तेजी से कम होती जा रही है। इसीलिए इन देशों में बच्चों-बुजुगरें के लिए उच्च कोटि का सामाजिक सुरक्षा ढांचा बनाया गया है। भारत में भी पश्चिमी जीवनशैली के बढ़ते असर के चलते संयुक्त परिवार तेजी से विघटित होते जा रहे हैं लेकिन इसके लिए जिस ढंग की तैयारी होनी चाहिए थी उसका सर्वथा अभाव है। महानगरों में भले ही क्रेच और वृद्धाश्रम खुल गए हैं लेकिन देश के बाकी हिस्सों में उनकी संख्या नगण्य है। इसी प्रकार किशोरों में बढ़ती कुंठा, हताशा, अवसाद की जड़ खोजी जाए तो वह संयुक्त परिवारों के टूटने और सामाजिक सुरक्षा ढांचे के अभाव में ही मिलेगी। नार्वे में घटित घटना और भारत में बुजुगरें की दुर्दशा से स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान, तकनीक, आर्थिक गतिविधियों के एकीकरण वाले दौर में भी परिवार, समाज, आहार आदि में स्थानीयता की उपेक्षा घातक साबित होगी।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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