Menu
blogid : 5736 postid : 4317

दफ्तर में पूजा पर पाबंदी का सवाल

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

देश में योग्य तकनीकी विशेषज्ञों को तैयार करने के लिए बने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, वारंगल का परिसर पिछले दिनों कुछ अलग कारणों से सूर्खियों में रहा। ऐसा नहीं कि इसकी वजह कोई अकादमिक गतिविधियां थी, बल्कि बिल्कुल सामान्य और धार्मिक किस्म की एक घटना ने सभी के लिए परेशानी खड़ी कर दी। दरअसल, इस इंस्टीट्यूट में अध्ययन कर रहे चार छात्रों की पिछले साल में हुई असामयिक मौतों के चलते वास्तु शांत करने के लिए निदेशक महोदय ने परिसर में दुष्ट ग्रह निवारण चंडी यज्ञ करने की योजना बनाई गई, जिसका संस्था के एक बड़े हिस्से द्वारा विरोध किया जा रहा था। यह विरोध काफी चर्चा में रहा। विरोध तर्कशीलों या नास्तिकों की तरफ से नहीं किया जा रहा था, बल्कि उन धार्मिक लोगों द्वारा भी किया जा रहा था जो यह मानते थे कि ऐसी चीजें निजी दायरे में व्यक्तिगत रूप से की जानी चाहिए न कि सार्वजनिक तौर पर। अंतत: निदेशक महोदय को झुकना पड़ा। पूजा परिसर में ही हुई, मगर वह निदेशक महोदय के घर के अंदर संपन्न कराई गई। जबकि पहले यह इंस्टीट्यूट के सार्वजनिक परिसर में आयोजित होना था। दूसरी तरफ लुधियाना के बाबा फरीद यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेज नामक संस्थान ने इस मामले में बिल्कुल अलग ढंग की मिसाल पेश की। यहां पर गार्ड लोगों ने शिकायत की कि रात में पास ही स्थित निर्माणाधीन लाइब्रेरी के स्थान से तरह-तरह की विचित्र आवाजें आती रहती हैं।


जानकारों के मुताबिक परिसर जिस स्थान पर बना था, वहां पहले जिला जेल हुआ करती थी, जहां पर कई कैदियों को फांसी के फंदे पर चढ़ाया गया था। गार्ड लोगों की मांग पर परिसर में अखंड पाठ का आयोजन किया गया, जिसके बाद बकौल निदेशक महोदय आवाजें आनी बंद हो गई। इसका मतलब है कि दुष्ट आत्माएं अब वहां नहीं बसती हैं। 120 करोड़ के इस देश में विघ्न-बाधाओं को दूर करने के लिए यज्ञों का आयोजन कोई अजूबा नहीं जान पड़ता। कुछ माह पहले बंगाल प्रांत के उद्योगपतियों ने नौ दिनी एक यज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें 100 यज्ञकुंडों के इर्दगिर्द पांच सौ लोग एकत्रित होकर जाप कर रहे थे। महालक्ष्मी महायज्ञ के नाम से आयोजित इस यज्ञ का मकसद था कि राज्य के उद्योगों की किस्मत बदले और वहां नए निवेशकर्ता पहुंचें। वैसे अगर तमिलनाडु की उच्च अदालत के हालिया फैसले को देखें तो सरकारी प्रतिष्ठान के अंदर पूजा या अखंड पाठ का आयोजन अब अधिक आसानी से हो सकता है। ध्यान रहे कि यूं तो 29 अप्रैल, 1968 से ही और उसके बाद जारी विभिन्न आदेशों या परिपत्रों के माध्यम से इस तरह की किसी पूजा पर पाबंदी लगा दी गई थी, मगर वह महज कागज पर ही बनी थी। अपनी उपरोक्त जनहित याचिका में पेरियार द्रविडार कडगम के अध्यक्ष टीएस मनी ने कहा था कि अप्रैल 1968 के उपरोक्त फैसले से सरकारी अधिकारियों को कार्यालयों से सभी धार्मिक प्रतीकों एवं मूर्तियों को हटाने का आदेश दिया गया था। मई 2005 में डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ने भी एक आदेश के जरिए पुलिस थानों या पुलिसों के लिए बने रिहायशी इलाकों में धार्मिक गतिविधियों को प्रतिबंधित किया था।


विडंबना यही कही जा सकती है कि इन तमाम आदेशों के बाद भी और यहां तक कि वर्ष 2010 में मद्रास उच्च अदालत के स्पष्ट निर्देश के बावजूद यह सिलसिला अभी तक जारी है। तमिलनाडु की उच्च अदालत इसी जनहित याचिका पर विचार कर रही थी जिसमें सरकारी दफ्तरों में आयोजित की जाने वाली किसी तरह की पूजा पर पाबंदी लगाने की मांग की गई थी। याचिका में पूछा गया था कि सरकारी कार्यालयों में विश्वकर्मा पूजा या सरस्वती पूजा का आयोजन क्या गैर पंथनिरपेक्ष गतिविधि नहीं है, जिस पर पाबंदी लगाने की आवश्यकता है। अदालत का जवाब था नहीं। न्यायमूर्ति आर सुधाकर और न्यायमूर्ति अरुणा जगदीशन की खंडपीठ ने कहा कि एक व्यक्ति द्वारा अपने पेशागत उपकरणों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना किसी भी रूप में राज्य के पंथनिरपेक्ष स्वरूप को हानि नहीं पहुंचाता। विश्वकर्मा पूजा के माध्यम से व्यक्ति अपने पेशे में प्रयुक्त चीजों के प्रति ही सम्मान प्रकट करता है। लिहाजा, वह वास्तविक अर्थो में सभी धर्मो को लांघती है। कोई यह पूछ सकता है कि एक बहुधर्मी समाज में पंथनिरपेक्ष कहे जाने वाले संविधान के तहत ऐसे फैसले कैसे आ सकते हैं। संविधान सभा में चली बहसों और उसके बाद लिए गए निर्णय इस पर रोशनी डाल सकते हैं। संविधान सभा की बहसें बताती हैं कि भारत की पंथनिरपेक्षता को क्या दिशा दी जानी चाहिए? हालांकि इसे लेकर संविधान निर्माताओं में एक राय नहीं थी। डॉ. अंबेडकर तथा कई अन्य चाहते थे कि यूरोप की तरह यहां पर भी सार्वजनिक जीवन में धर्म की भूमिका को सीमित किया जाए। केटी शाह जैसे वैज्ञानिक सदस्यों का प्रस्ताव था कि हमें यह लिखना चाहिए कि भारतीय राज्य का किसी भी धर्म, संप्रदाय आदि से कोई ताल्लुक नहीं है। सभा में केएम मुंशी जैसे परंपरावादी हिंदू भी थे जो जनता की गहरी धार्मिक भावनाओं की बात कर रहे थे। अंतत: जीत हुई सभी धर्मो के प्रति सम्मानकी। यही वह पक्ष था जो सर्वधर्मसमभाव और धर्मनिरपेक्षता के बीच झूलती दिखी।


वक्त के साथ जबकि हम सभी धार्मिकता के विस्फोट से रू-ब-रू हैं तो भारत का सेक्युलर राज्य एक किस्म के स्लो मोशन विघटन की तरफ बढ़ता दिख रहा है। बहुत कम लोग इस हकीकत से रू-ब-रू होंगे कि राज्य विभिन्न धर्मो में विश्वास रखने वालों को अपने अनुरूप व्यवहार करने की सभी को अनुमति देता है। हर साल हरिद्वार, इलाहाबाद जैसे स्थानों पर आयोजित होने वाले महाकुंभ मेले को अनुमति दिया जाना और सरकारी सहयोग दिया जाना इसका उदाहरण है। जान दयाल द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक इलाहाबाद में आयोजित पिछले महाकुंभ में राज्य ने 1.2 अरब रुपये खर्च किए थे। मेला क्षेत्र में 12 हजार नल लगाए गए थे, 450 किलोमीटर लंबी बिजली की तार बिछाई गई। यही सिलसिला मुसलमानों की हज यात्राओं के दौरान भी दोहराया जाता है। यहां हम नहीं भूल सकते कि लाखों लोगों को सार्वजनिक खर्चे के जरिए पुण्य कमाने हेतु स्नान कराने की सारी कवायद संविधान की अनुमति से ही होती है। सरकार हर साल सैकड़ों बच्चों की जीवनलीला समाप्त करने वाली इनसेफलाइटिस बीमारी की रोकथाम के लिए महज 28 अरब रुपये दिए थे। पंथनिरपेक्षता के मसले पर हमारी अस्पष्टता का ही यह आलम है कि इन दिनों केरल के एडीजीपी एलेक्जेंडर जैकब हर रात आधे घंटे कैथोलिक टीवी पर कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। 1982 की बैच के जैकब पिछले ही साल कोच्ची में बाइबिल पर केंद्रित एक कन्वेंशन में भी वक्ता के तौर पर उपस्थित थे। मगर सरकार के पास कोई कानून नहीं है कि वह जैकब को इस वैज्ञानिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम से दूर रहने के लिए कह सके।


लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh