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गैरजरूरी योजना आयोग

जागरण मेहमान कोना
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Ashish Boseनिर्धनता निवारण में योजना आयोग की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर रहे हैं प्रो. आशीष बोस


यह सही है कि हमारा देश आज आर्थिक विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन इस विकास का स्याह पक्ष यह भी है कि हमारे विकास का आंकड़ा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर आधारित है, जो देश के वास्तविक विकास को नहीं दर्शाता। इसका पता इससे भी चलता है कि समावेशी विकास के तमाम दावों के बावजूद देश में अमीरी और गरीबी के बीच की खाई लगातार बढ़ रही है। इस संदर्भ में गरीबी रेखा निर्धारण का सवाल काफी महत्वपूर्ण है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की मानें तो देश में गरीबी लगातार कम हुई है। दरअसल योजना आयोग का यह दावा उसकी अपनी इस धारणा पर आधारित है कि शहरी क्षेत्रों में रहने वाला वह व्यक्ति गरीब है जो प्रतिदिन 28. 65 रुपये से अधिक अपने ऊपर खर्च नहीं कर सकता। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला कोई व्यक्ति यदि अपने ऊपर 22.42 रुपये से अधिक खर्च करने की स्थिति में नहीं है तो वह भी गरीबी रेखा के नीचे माना जाएगा। प्रश्न है कि क्या कोई व्यक्ति इतनी कम राशि में आज के समय में एक दिन भी गुजारा कर सकता है? मेरा अनुमान है कि एक व्यक्ति को प्रतिदिन कम से कम 100-150 रुपये की आवश्यकता होगी।


योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा का यह निर्धारण उसकी संवेदनहीनता के साथ-साथ गरीबी और गरीबों के प्रति सरकार के नजरिये को भी व्यक्त करता है। एक तरफ तो सरकार आम आदमी के उत्थान और उसके हितों के लिए काम करने की बात करती है तो दूसरी ओर वह इस तरह का दोहरा आचरण करती है। योजना आयोग का नजरिया न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि यह गरीबों के साथ क्रूर मजाक भी है। सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित समिति ने भी गरीबी का आकलन किया है। तेंदुलकर रिपोर्ट की मानें तो वर्ष 2009-10 में देश में कुल 29.8 प्रतिशत ऐसे गरीब थे जिनके पास रेडियो, ट्रांजिस्टर, टीवी, कंप्यूटर, टेलीफोन, मोबाइल, साइकिल अथवा दो पहिया या चार पहिया वाहन नहीं था। आंकड़ों के मुताबिक सर्वाधिक गरीबी मध्य प्रदेश में है, जहां गरीबी का प्रतिशत 32.6 है। इसी तरह 20 प्रतिशत से अधिक गरीबी रेखा वाले राज्यों में झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि राज्य शामिल हैं, जबकि 10-20 प्रतिशत वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे राज्य हैं। दरअसल गरीबी के आंकड़ों में काफी विरोधाभास है। इस मामले में सरकार द्वारा पेश किए जा रहे आंकड़े और कुछ नहीं, बल्कि उस रणनीति का हिस्सा हैं जिसके तहत राजनीतिक लाभ पाने की दृष्टि से जनता के बीच एक झूठा और भ्रामक संदेश फैलाया जा रहा है।


टमाटर 40 रुपए किलो और इंसान 32 रुपए !!


वास्तविकता यही है कि गरीबी का प्रतिशत घटा है, जबकि गरीबों की संख्या वर्ष दर वर्ष बढ़ी है, लेकिन सरकार आंकड़ेबाजी के बल पर इस बात को छिपाती आ रही है। इसे इस बात से भी समझ सकते हैं कि हमारी आबादी जिस दर से बढ़ रही है उसकी तुलना में गरीबी घटने की दर काफी कम है। सरकार को चाहिए कि वह गरीबी के आंकड़ों को प्रतिशत के बजाय संख्या में बताए और यह भी स्पष्ट करे कि गरीबी दूर करने की उसकी रणनीति क्या है? भौगोलिक-सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भारत भिन्नताओं वाला देश है। इसलिए गरीबी निवारण की योजना बनाते समय हमें अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग कार्यक्रम बनाने चाहिए। इसके लिए मैंने बीमारू राज्यों की अवधारणा पर काम करने की आवश्यकता बताई थी। यहां यह कहना भी सही नहीं होगा कि सरकार गरीबों की संख्या सिर्फ इसलिए कम बताना चाहती है ताकि उसे गरीबी निवारण और दूसरे सामाजिक कार्यक्रमों के मद में कम पैसा खर्च करना पड़े या बढ़ती सब्सिडी के बोझ को हल्का कर सके। यदि भ्रष्टाचार पर काबू पा लिया जाए तो सरकार अपनी तमाम योजनाओं में जितना पैसा खर्च कर रही है वह काफी है तथा इसे और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता शायद ही हो। वास्तव में सरकार जितनी कमजोर है उससे कहीं अधिक कमजोरी उसकी इच्छाशक्ति में है। बीपीएल राशन कार्डो में बड़े पैमाने पर धांधली का खुलासा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विफलता या फिर मनरेगा और एनआरएचएम जैसी योजनाओं में लूट व मनमानी के मामले यही साबित करते हैं।


सरकार योजनाएं तो लागू कर देती है, लेकिन इनका सही क्रियान्वयन और निगरानी सुनिश्चित करना जरूरी नहीं समझती। आज देश में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी दो बड़े मुद्दे हैं, जिन पर तत्काल ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। महज आंकड़ेबाजी से गरीबी का हल नहीं निकाला जा सकता। यदि वास्तव में गरीबी कम करनी है तो इसके लिए पहला काम योजना आयोग को खत्म करने का होना चाहिए, क्योंकि आज यह अपनी प्रासंगिकता खो रहा है। इस संस्था का राजनीतिकरण हो गया है, जिसका काम केंद्र के हित साधना और राज्यों पर दादागीरी दिखाना भर रह गया है। आज जो काम योजना आयोग कर रहा है वह काम यदि विभिन्न शोधरत छात्रों को सौंप दिया जाए तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। वैसे भी धन के समुचित बंटवारे का काम वित्त आयोग करता है और प्रत्येक मंत्रालय का अपना अलग योजना विभाग है। बिहार में नीतीश कुमार और गुजरात में नरेंद्र मोदी ने एक मिसाल पेश की है कि किस तरह राज्य का नवनिर्माण किया जा सकता है और गरीबों का भला भी।


गरीबों के लिए सब्सिडी खत्म कर दी जाए अथवा सभी योजनाएं समाप्त कर दी जाएं, ऐसा भी नहीं है। होना यह चाहिए कि इन कार्यक्रमों का एक लक्ष्य हो और अलग-अलग राज्यों में गरीबों को चिह्नित करके उनके लिए कौशल विकास की योजनाएं बनाई जाएं ताकि इन्हें समयबद्ध आर्थिक मदद देकर गरीबी रेखा से बाहर निकाला जा सके। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने एक ऐसी ही योजना शुरू की है जिसके तहत किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से 30 हजार तक ऋण लेने की सुविधा है। केंद्र और राज्य सरकारों को भी चाहिए कि वे गरीबों के लिए ऐसे ही व्यावहारिक कार्यक्रम बनाएं। इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था, जो आज गरीबी घटाओ में बदल गया है और कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में हमें गरीब हटाओ जैसा अभियान भी देखने को मिले। प्रधानमंत्री ने गरीबी मापने के लिए नई समिति बनाने की बात कही है, लेकिन सवाल है कि जब वह खुद योजना आयोग के अध्यक्ष हैं तो यह चूक हुई कैसे और वह किस तरह अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं?


लेखक प्रो. आशीष बोस जनसांख्यिकीय मामलों के विशेषज्ञ हैं


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