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उत्तर प्रदेश में चुनावों की सरगर्मी पूरे उफान पर है। राज्य में मतदान का पहला चरण आठ फरवरी को है। इस बीच कई समाचार चैनलों और अखबारों में हल्ला है कि अनेक उम्मीदवारों की जीत का रास्ता सोशल मीडिया की राह से होकर गुजर सकता है। क्या वास्तव में ऐसा संभव है? उत्तर प्रदेश में करीब 12.5 करोड़ मतदाता हैं, जबकि इंटरनेट उपयोक्ताओं की संख्या एक करोड़ से ऊपर है। एक अनुमान के मुताबिक सत्तर फीसदी इंटरनेट उपयोक्ता मतदाता हैं। यह आंकड़ा भी कम नहीं है, लेकिनए सवाल यह है कि क्या सोशल मीडिया यूजर्स को पक्ष में लाने के लिए तमाम राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों के पास कोई रणनीति रही? यूं चुनाव से पहले इस बार तमाम राजनीतिक दलों और सैकड़ों उम्मीदवारों ने सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, लेकिन क्या वास्तव में वे साइबर कैंपेन का लाभ लेने की स्थिति में हैं। फेसबुक पर उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का फेसबुक पेज है। इसके सदस्यों की संख्या करीब 3,450 है। उत्तर प्रदेश यूथ कांग्रेस के पेज के लगभग 850 सदस्य हैं। कांग्रेस के बनाए यूपी असेंबली इलेक्शन 2011.12 पेज के सदस्यों की संख्या 200 भी नहीं है। भाजपा की बात करें तो उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के पेज के 700 के करीब सदस्य हैं। बीजेपी एज 2012 इलेक्शन इन यूपी पेज के करीब 1200 सदस्य हैं।
समाजवादी पार्टी नाम के फेसबुक पेज पर करीब 2000 सदस्य हैं, जबकि समाजवादी पार्टी इंडिया पेज के 500 से कम सदस्य हैं। तो क्या मुठी भर सदस्यों के बूते साइबर कैंपेन संभव है? यह हाल लगभग सभी पार्टियों का है। उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाल रही बहुजन समाज पार्टी की तो आधिकारिक वेबसाइट ही नजर नहीं आती। फेसबुक पर बीएसपी के पेजों पर मुट्ठीभर सदस्य हैं, जबकि मायावती के खिलाफ हेटग्रुप पर अधिक लोग हैं। आईहेटमायावती पेज पर करीब तीन हजार सदस्य हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों को सोशल मीडिया कैंपेन का बिल्कुल फायदा नहीं हुआ। राजनीतिक दल एक समां बांधने की कोशिश कर रहे हैं और मुख्यधारा के मीडिया ने उनकी इस अल्प सक्रियता को भी खासी तवज्जो दी है। वरना समझने वाली बात यह है कि किसी पार्टी के पहले से समर्थक रहे शख्स का उस पार्टी के फेसबुक या ट्विटर पेज के सदस्य होना कोई बड़ी बात नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि सोशल मीडिया के जरिए पार्टियां या उम्मीदवार उस तबके तक पहुंचे जो उनका वोटबैंक नहीं है। सोशल मीडिया के तमाम मंच दोतरफा संवाद की गुंजाइश पैदा करते हैं, लेकिन ज्यादातर उम्मीदवार इन पेजों को अमूमन एक तरफा संवाद का माध्यम बना रहे हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर जीत हासिल करने की बात सामने आने के बाद से भारत में चुनाव के वक्त सोशल मीडिया कैंपेन अचानक जोर पकड़ते हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया कैंपेन चलाया था। परंतु सोशल मीडिया अभियान सिर्फ एक-दो महीने की कवायद नहीं है। समाजवादी पार्टी इस बार अपनी छवि बदलने के उद्देश्य से इंटरनेट और सोशल मीडिया पर खासी सक्रिय है, लेकिन पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव के ट्विटर खाते पर झांके तो महज एक हजार फॉलोवर्स नजर आते हैं। यही हाल प्रदेश के राज्य स्तरीय नेताओं का है। फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब जैसे मंचों से जुड़ी खबरें इन दिनों सुर्खियां बटोर रही हैं जिसका लाभ यूपी चुनाव के में कई उम्मीदवारों और पार्टियों को मिल सकता है। यदि समय रहते सोशल मीडिया से जुड़ी रणनीति बनाई जाती तो पार्टियों को कुछ वोट बटोरने में मदद मिल सकती थी। कम से कम वह विश्वसनीयता हासिल करने की कोशिश हो सकती थी जिसकी उन्हें सख्त आवश्यकता है।
इस आलेख के लेखक पीयूष पांडे हैं
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