- 1877 Posts
- 341 Comments
उत्तर प्रदेश में बसपा की हार और सपा के मजबूती से उभरने के कारणों की तह में जा रहे हैं डॉ. अनिल कुमार वर्मा
उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम इस बार भी चौंकाने वाले रहे और सपा के पक्ष में लहर का पूर्वानुमान कोई नहीं लगा पाया। ऐसा माना जा रहा था कि सपा को कांग्रेस के सहयोग की जरूरत पड़ेगी, लेकिन इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। प्रदेश के मतदाता ने बसपा का इम्तिहान लेने और उसे खारिज करने के बाद अब पूर्ण समर्थन देकर सपा की परीक्षा लेने का मन बनाया है। उत्तर प्रदेश में यह एक नई प्रवृत्ति है। इससे सपा को चौकन्ना रहना होगा और सुशासन व विकास के प्रति जनता की उम्मीद पर खरा उतरना होगा। यही नहीं, सपा को जनता के उस विश्वास को भी कायम रखना होगा जिसमें जनता ने सपा की इस बात पर भरोसा किया है कि पिछली बार की गुंडागर्दी नहीं दोहराई जाएगी। जनता की लोकतंत्र में प्रतिबद्धता का एकदम नया स्वरूप दिखाई दे रहा है, जिसमें वह राजनीतिक दलों के लिए एक परीक्षक की भूमिका का निर्वहन कर रही है।
बड़ा सवाल यह है कि बसपा की हार क्यों हुई? इसका उत्तर बहुत कठिन नहीं है। मायावती सरकार कुशासन और भ्रष्टाचार को एक नए स्तर पर ले गई और ऐसी बातें जनता से छिपती नहीं हैं। इसके अलावा बसपा सोशल इंजीनियरिंग और समावेशी राजनीति के अंतर्विरोधों को भी नहीं सुलझा पाई। ब्राह्मणों के आगमन से दलितों का जो विस्थापन हुआ और उससे उनमें जो पीड़ा उभरी उसकी कोई भरपाई नहीं हो पाई। एक सर्वे के मुताबिक बसपा से न केवल दलितों का हर क्षेत्र में मोहभंग हुआ है, वरन उसका पक्का वोट बैंक भी उससे नाराज हो गया। ब्राह्मण छिटका तो नहीं, लेकिन और ज्यादा ब्राह्मण जुड़े नहीं। बसपा को कुशवाहा फैक्टर का भी नुकसान हुआ और अति-पिछड़ा वर्ग के लगभग नौ प्रतिशत मतदाता बसपा से दूर चले गए।
सपा को इतनी अधिक सफलता मिलने का केवल यही कारण नहीं हो सकता कि बसपा के विरुद्ध ‘सत्ता-विरोधी रुझान’ रहा। इसका यह प्रमुख कारण रहा कि जिस समावेशी राजनीति की शुरुआत 2007 में बसपा ने की उसे 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भुनाया और इस बार के चुनावों में सपा ने। अर्थात, समाज की सभी जातियों और वगरें में सपा को वैसा ही समर्थन मिला है जैसा कांग्रेस को 2009 और बसपा को 2007 में मिला था। सपा के लिए महत्वपूर्ण बात है कि कांग्रेस द्वारा अल्पसंख्यकों को 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा करने के बावजूद उसे मुस्लिम समाज का विश्वास प्राप्त हुआ और छोटे-छोटे दल जैसे पीस पार्टी, कौमी एकता दल, अपना दल या महान पार्टी आदि उसका मुस्लिम वोट या पिछड़ा वोट काटने में सफल नहीं रहे।
भाजपा के लिए यह चुनाव बड़ा शर्मनाक रहा, भले ही पार्टी पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में अपने प्रदर्शन की बात करके खुश होने का दिखावा करे, मगर उत्तर प्रदेश के दुख के सामने अन्य राज्यों का सुख मायने नहीं रखता। अनुमान के अनुसार उसे समाज की सभी जातियों और वगरें ने नकारा है। उत्तर प्रदेश में नितिन गडकरी पूरी तरह असफल रहे। उनका ‘माइक्रो मैनेजमेंट’ हो या अति-पिछड़ों का वोट जीतने के लिए कुशवाहा को लेने या फिर उमा भारती के रूप में प्रदेश को एक आयातित नेतृत्व देने का फैसला हो, किसी से भाजपा का भला नहीं हुआ।
कांग्रेस ने भाजपा की तुलना में फिर भी कुछ अच्छा प्रदर्शन किया और अपनी सीटों को बढ़ाया, लेकिन ऐसा लगता है कि प्रदेश के मतदाताओं पर कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ रही है। चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी के प्रयासों की सभी ने सराहना की। जनता उनसे जुड़ी भी, पर शायद कांग्रेस को यह समझ में नहीं आया कि बिना किसी मजबूत दलीय संगठन और सक्रिय स्थानीय नेतृत्व के मतदाता पार्टी को वोट नहीं देगा। अब शायद वक्त आ गया है कि कांग्रेस को अपने वजूद को बचाने की कोई गंभीर कवायद करनी चाहिए। इतना तो स्पष्ट हो गया है कि किसी व्यक्ति या परिवार के सहारे चुनाव जीतने की कोशिशों को विराम लगना चाहिए और एक नई राजनीति की शुरुआत होनी चाहिए। केवल बड़बोलेपन की राजनीति को अब जनता खारिज करती है। यह इस बात से सिद्ध होता है कि उत्तर प्रदेश में जनता ने दोनों राष्ट्रीय दलों को खारिज कर दिया है। इन दलों को यह समझना होगा कि राजनीति चाहे राष्ट्रीय हो, प्रांतीय या फिर स्थानीय, उसका रास्ता धरातल की राजनीति से होकर ही जाता है।
इन चुनावों में एक और भी बात उभर कर आई है। वह है अन्ना फैक्टर। मतदाताओं का अधिक निकलना और संभवत: एक मन बनाना कि हमें उन दलों को वोट नहीं देना है जो भ्रष्ट हैं, कांग्रेस और बसपा पर भारी पड़ा। कमोबेश भाजपा पर भी यह लागू होता है। कुशवाहा को लेना भाजपा के लिए एक ‘टर्निंग प्वाइंट’ बन गया, क्योंकि भ्रष्टाचार का ठप्पा उस पर भी चस्पा हो गया। अन्यथा भाजपा शायद उन युवाओं को आकृष्ट करती जो किसी विकल्प के अभाव में सपा की ओर चले गए। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम का आगे आने वाले राष्ट्रपति चुनाव, बजट और अनेक विवादित विधेयकों पर असर पड़ सकता है, लेकिन उसका प्रतिकूल असर संप्रग सरकार पर नहीं पड़ने वाला। कांग्रेस और सपा के रिश्तों को देखते हुए हम उम्मीद कर सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में विकास के रास्ते में अभी तक जो अवरोध थे वे समाप्त हो जाएंगे और केंद्र-राज्य के सहयोगपूर्ण और मधुर संबंधों के चलते प्रदेश उस विकास की ओर तेजी से बढे़गा जिसकी उम्मीद सपा सरकार से जनता ने की है।
लेखक डॉ. अनिल कुमार वर्मा राजनीतिक विश्लेषक हैं
Read Hindi News
Read Comments