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भारतीय राजनीति की डर्टी पिक्चर

जागरण मेहमान कोना
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कर्नाटक में विधानसभा कार्यवाही के दौरान अश्लील वीडियो देखते पकड़े गए भारतीय जनता पार्टी के तीन मंत्रियों की हरकत से एक बार फिर भारतीय राजनीति की डर्टी पिक्चर उजागर हुई है। विधान परिषद में विपक्ष के नेता मोतम्मा ने तो सदन में यह बयान भी दिया कि अश्लील वीडियो देखने वाले कई विधायक तो इसलिए बच गए, क्योंकि विजिटर्स गैलरी में मौजूद टीवी चैनल के कैमरे उन्हें कैद नहीं कर पाए। कर्नाटक के राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा थी कि इस अश्लील वीडियो को तकरीबन 40 विधायकों ने देखा और इनमें सभी पार्टियों के विधायक शामिल थे। यह वाकया उस दौरान हुआ, जब कर्नाटक के बीजापुर में कथित तौर पर पाकिस्तानी झंडे फहराने जैसे मामले पर बहस चल रही थी। इस तरह की घटना के सामने आने के बाद भी इन नेताओं के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी और मीडिया को दिए बयानों में उनकी बेशर्मी साफ दिखाई दी। इस घटना से असहज भारतीय जनता पार्टी ने राज्य के सहकारिता मंत्री लक्ष्मण सावदी, महिला एवं बाल विकास मंत्री सीसी पाटिल तथा बंदरगाह, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री कृष्णा पालेमर को इस्तीफे का आदेश देकर इस प्रकरण से हुए नुकसान की भरपाई की कोशिश की। पालेमर ने ही दोनों मंत्रियों को यह वीडियो क्लिप उपलब्ध कराई थी।


यहां सवाल किसी राजनीतिक दल को होने वाली नुकसान की भरपाई का नहीं, बल्कि देश की राजनीतिक शुचिता और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का है। इसमें कोई दो मत नहीं कि कर्नाटक विधानसभा की घटना भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली है और भाजपा के इन तीनों मंत्रियों से इस्तीफे लेने भर से मामला खत्म नहीं हो जाना चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि इन तीनों मंत्रियों की विधानसभा सदस्यता को भी समाप्त किया जाए। इसके साथ ही चाल, चरित्र और चेहरे की बात करने वाली भाजपा को इन नेताओं की पार्टी से सदस्यता भी रद करनी चाहिए ताकि आने वाले समय में किसी भी पार्टी का कोई नेता इस तरह की हरकत नहीं कर सके। लोकतंत्र के पवित्र मंदिर में अश्लील वीडियो देखने की घटना ने देश के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या विधानसभा में होने वाली इन घटनाओं से लोकतंत्र की जड़ें कमजोर नहीं होंगी? लोकतंत्र में जनता की नुमाइंदगी करने वाले जनप्रतिनिधि विधानसभा में आम लोगों की समस्याओं पर गौर करने के बजाय अगर अश्लील वीडियो फिल्म देखेंगे तो क्या इससे आम लोगों का विधायिका जैसी संस्था पर से भरोसा नहीं उठेगा? दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते आम आदमी के घर में कई बार एक वक्त ही चूल्हा जलता है।


उसे इस बात की उम्मीद रहती है कि देश या प्रदेश की सरकारें उसकी बदहाली दूर करने के लिए निश्चित तौर पर उसके बारे में कोई कदम उठाएंगी, लेकिन दूसरी तरफ बुनियादी समस्याओं पर सवाल उठाने की बजाय अगर उसका जनप्रतिनिधि विधानसभा में अश्लील वीडियो देख रहा हो तो उसकी मनोदशा पर क्या असर पड़ेगा? यह ठीक है कि किसी दल विशेष का कोई नेता अगर शर्मसार करने वाली किसी घटना में शामिल होगा तो विरोधी राजनीतिक दल ऐसे वाकयों पर दल विशेष को घेरने का प्रयास करेंगे और ऐसा करना लोकतंत्र के लिए जरूरी भी है, लेकिन इस पूरे मामले पर देश के प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस के नेताओं की प्रतिक्रिया भी खुद सवालों के घेरे में है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल का यह बयान चौंकाने वाला है कि भाजपा में हर तरह के मनोरंजन हैं। कभी राजनीतिक मनोरंजन और कभी अन्य तरह के मनोरंजन।


कपिल सिब्बल का कहना था कि मैं उनके खिलाफ कोई कठोर शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहता। क्या भारतीय राजनीति में हुई इस शर्मनाक घटना को केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल मनोरंजन की घटना मानते हैं? कपिल सिब्बल अगर इस घटना पर कठोर शब्द का इस्तेमाल करके संजीदगी के साथ बयान देते तो शायद देश का जनमानस उनके बयान का स्वागत करता। कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे कांग्रेस के बड़े नेता लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली ऐसी घटनाओं पर अगर इस तरह की हल्की राजनीतिक प्रतिक्रिया देंगे तो इससे कहीं न कहीं मामले की गंभीरता खत्म होगी। कांग्रेस या किसी भी जिम्मेदार राजनीतिक दल को इस तरह के मामले को मजाक में उड़ाने की बजाय उस पर पूरी गंभीरता के साथ बयान देना चाहिए। यह देश की राजनीतिक शुचिता का सवाल है, लेकिन तमाम पार्टियों के लिए शुचिता शब्द केवल किताबों या उनकी बयानबाजियों तक सीमित रह गया है। वैसे भी राजनीति की डर्टी पिक्चर केवल कर्नाटक तक सीमित नहीं है। दिल्ली में हुए तंदूर कांड को जनता अभी भूली नहीं है। राजस्थान में भंवरी देवी के साथ प्रदेश के पूर्व जल संसाधन मंत्री महिपाल मदेरणा के रिश्तों की बात हो या आंध्र प्रदेश के राजभवन में रहते हुए नारायण दत्त तिवारी के वीडियो क्लिप का मामला हो, महाराष्ट्र के एक मंत्री की एयर होस्टेस के साथ अश्लील हरकत की घटना हो या फिर उत्तर प्रदेश का अमरमणि त्रिपाठी-मधुमिता कांड, शर्मसार करने वाली ऐसी तमाम घटनाओं ने भारतीय राजनीति को समय-समय पर कलंकित ही किया है। कांग्रेस से निलंबित मदेरणा और भंवरी देवी की अश्लील सीडी भी सार्वजनिक हो चुकी है। खुद को नारायण दत्त तिवारी का बेटा बताने वाले रोहित शेखर की याचिका भी राजनीति में ऐसे तमाम रिश्तों को उजागर करती है। कोर्ट के आदेश के बावजूद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे नारायण दत्त तिवारी डीएनए टेस्ट कराने के लिए तैयार नहीं हुए।


सियासत के गलियारों में इन हरकतों ने निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति के बदरंग चेहरे और राजनेताओं की बेहूदगी को उजागर किया है, लेकिन कर्नाटक विधानसभा की घटना ने भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार कर रख दिया है। आज गौर करने वाली बात यह है कि देश की मौजूदा राजनीतिक संस्कृति में जिस तरह की जीवनशैली उभर रही है, उस पर गौर करने की जरूरत है। राजनीति में नैतिकता पूरी तरह विलुप्त होती जा रही है और ऐसे में सबसे ज्यादा आहत देश का लोकतंत्र ही होगा। एक तरफ दिन-रात पसीना बहाने के बाद आम आदमी अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और उनके बेहतर इलाज के लिए पूंजी नहीं जुटा पाता तो दूसरी तरफ राजनीति में आने के बाद रातोरात करोड़पति और अरबपति बनने वाले नेताओं को देखकर क्या आम आदमी की लोकतंत्र के प्रति आस्था और मजबूत होगी? भ्रष्टाचार में लिप्त ऐसे नेताओं की संपत्ति में हर साल इजाफा होता रहता है, जबकि ऐसे लोग राजनीति को समाज सेवा का माध्यम बताते हैं। जरूरत इस बात की भी है कि ऐसे नेताओं पर आम लोगों को नजर रखनी चाहिए और उन्हें दोबारा संसद या विधानसभा भेजने से पहले सौ बार सोचना चाहिए। राजनीति का सहारा लेकर अपनी तिजोरिया भरने और बाद में बेहया होकर विलासितापूर्ण जीवन बिताने वाले इन नेताओं को जनता ही सबक सिखा सकती है।


सियासत के गलियारों में राजनीतिक शुचिता तभी बरकरार रहेगी, जब कर्नाटक में अश्लील वीडियो देखते पकड़े गए नेता दोबारा फिर किसी चुनाव में नहीं जीत पाएं या कोई मदेरणा किसी सदन में दाखिल नहीं हो सके। वरना, ऐसे नेता राजनीति को समाजसेवा का माध्यम नहीं, बल्कि अपने भोग-विलास का जरिया मानकर ही चलेंगे। विधानसभा चुनावों में जिस तरह से राजनीतिक दल दागी उम्मीदवारों को टिकट देते हैं, उनके नापाक इरादों पर जनता ही पानी फेर सकती है। आज जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक दल फिर चाहे वह कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कोई दूसरा राजनीतिक दल, उसे लोकतंत्र की आस्था और उसकी पवित्रता को बरकरार रखने के लिए गंभीरता से विचार करना होगा। जरूरत इस बात की भी है कि सभी राजनीतिक दल देश और समाज में होने वाली ऐसी घटनाओं पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सवाल खड़े करें और साथ ही यह भी सुनिश्चित हो कि इस तरह के शर्मसार करने वाले वाकये दोबारा नहीं हों।


लेखक डॉ. शिव कुमार राय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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