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संप्रग सरकार की साख से खिलवाड़ केवल उसके सहयोगी दल ही नहीं कर रहे है, बल्कि योजना आयोग जैसी जिम्मेदार संस्था भी उसकी प्रतिष्ठा धूमिल करने में पीछे नहीं है। अभी चंद रोज पहले ही वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश आम बजट को विपक्ष ने गरीब विरोधी करार दिया था। अब योजना आयोग ने गरीबी की नई परिभाषा गढ़ते हुए सरकार की गरीब विरोधी छवि पर मुहर लगा दी है। आयोग ने गरीबी रेखा का जो नया फार्मूला गढ़ा है, वह तर्को के विपरीत है। संसद से लेकर सड़क तक बहस छिड़ गई है कि आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी की परिभाषा का आधार क्या है? आयोग ने जो परिभाषा दी है, उसके मुताबिक शहरों में 28 रुपये 65 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 22 रुपये 42 पैसे से अधिक खर्च करने वाले लोग गरीबी रेखा के बाहर हैं। आयोग ने यह भी दावा किया है कि 2009-10 में गरीबों की संख्या घटकर 34 करोड़ 47 लाख रह गई है, जबकि 2004-05 में यह संख्या 40 करोड़ 72 लाख के आसपास थी। यानी पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठे हैं। मतलब साफ है कि आयोग यह दर्शाना चाहता है कि सरकार की नीतियों की वजह से गरीबों की संख्या में कमी आई है, लेकिन आयोग के आंकड़ों पर विश्वास करना कठिन है। इसलिए कि आयोग के पास गरीबी निर्धारण का कोई ठोस पैमाना नहीं है। साथ ही उसके द्वारा जो तर्क दिए जा रहे हैं, वे भी छलावा हैं।
मजेदार बात यह है कि आयोग ने वर्तमान गरीबी रेखा की सीमा को सुप्रीम कोर्ट में सौंपी गई रेखा से भी नीचे दिखाया है। पिछले साल जून माह में आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर सिद्ध करने की कोशिश की थी कि शहरी क्षेत्र में 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 26 रुपये से अधिक खर्च करने वाले गरीब नहीं हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इन नौ महीनों में सरकार ने जादू की ऐसी कौन-सी छड़ी घुमा दी, जिसकी वजह से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या कम हो गई। योजना आयोग को स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार की किस अर्थनीति के कारण रातोरात लोगों के जीवन स्तर में सुधार आ गया। समझ से बाहर है कि महंगाई के इस दौर में जब दाल 70 से 80 रुपये किलो, दूध 40 से 50 रुपये लीटर और अन्य खाद्य वस्तुएं आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं तो फिर 28 रुपये और 22 रुपये में जीवन का निर्वाह कैसे हो सकता है। यह तमाशा ही कहा जाएगा कि आयोग स्वस्थ और संतुलित जीवन के लिए 28 और 22 रुपये को पर्याप्त मान रहा है। उससे भी विडंबना यह कि सरकार आयोग की दलीलों को खारिज करने के बजाए उससे सहमत नजर आ रही है। पिछले दिनों योजना आयोग ने गरीबी का जो फार्मूला तय किया था, उसके मुताबिक 49 रुपये दस पैसे मासिक किराया देने वाला और अपने बच्चे की किताब-कापी और अन्य जरूरी वस्तुओं पर 29 रुपये साठ पैसे खर्च करने वाले लोग गरीबी रेखा के बाहर थे।
टमाटर 40 रुपए किलो और इंसान 32 रुपए !!
आयोग के कुतर्क से सिर्फ देश ही आहत नहीं था, बल्कि अदालत भी सहमत नहीं देखी गई। जब आयोग ने पिछले साल अदालत में दाखिल अपने पहले हलफनामे में कहा कि ग्रामीण क्षेत्र में 17 और शहरी क्षेत्रों में 20 रुपये में 2400 कैलोरीयुक्त पौष्टिक भोजन हासिल किया जा सकता है तो अदालत ने उसकी जमकर खबर ली थी, लेकिन आश्चर्य कि इसके बावजूद आयोग सबक लेने को तैयार नहीं है। ऐसा लगता है कि योजना आयोग में बैठे लोग गरीबों का मजाक उड़ाने के लिए ही नियुक्त किए गए हैं। सोचने की बात है कि इतने कम पैसों में ही लोगों का जीवन सुरक्षित है तो फिर वे कौन-सी वजहें हैं, जिससे देश में कुपोषण औरभुखमरी की समस्या सघन होती जा रही है। आंकड़ों पर विश्वास करें तो भूख और कुपोषण जैसे कारणों से मौत से सामना करने वाले विश्व के संपूर्ण लोगों में एक तिहाई संख्या भारतीयों की है। दूसरी ओर कुपोषण के शिकार मामले में भी भारत का स्थान 12वां है।
आंकड़े बताते हैं कि गरीब तबके के बच्चों और महिलाओं में कुपोषण अफ्रीकी देशों से भी बदतर है। ऐसे में आयोग द्वारा जारी किया गया गरीबी रेखा का फार्मूला गरीबों को मुंह चिढ़ाने वाला ही कहा जाएगा। ऐसे में फिर क्यों न माना जाए कि आयोग ने गरीबी की जो परिभाषा गढ़ी है, वह जमीनी हकीकत से इतर है। समझ से परे यह भी है कि गरीबी निर्धारण के लिए गठित तमाम कमेटियों द्वारा दिए गए निष्कर्षो के बावजूद आयोग गरीबी का सही पैमाना तय कर पाने में विफल हुआ है। क्या यह माना जाए कि आयोग जान-बूझकर गरीबों की वास्तविक संख्या से छल कर रहा है या इस निष्कर्ष पर पहुंचा जाए कि उसकी मंशा गरीबी कम दिखाकर सरकार की छवि दुरुस्त करने की है? जो भी हो, आयोग की कारस्तानी से सरकार की छवि सुधरने के बजाए और मलिन हुई है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस दलवीर भंडारी और जस्टिस दीपक वर्मा की खंडपीठ ने गरीबी पर चिंता जताते हुए कहा था कि यहां दो भारत नहीं हो सकते। पीठ ने असंतोष जताते हुए यह भी कहा था कि कुपोषण के उन्मूलन को लेकर हमारे पूरे रवैये में घोर विरोधाभास है, लेकिन आश्चर्य होता है कि न्यायालय द्वारा सख्त रुख अपनाए जाने के बाद भी योजना आयोग अपनी मनमानी से बाज नहीं आ रहा है।
आज भी देश में 30 करोड़ से अधिक लोग भूखे पेट सोते हैं, जबकि संवेदनहीनता के कारण हर साल सरकारी गोदामों में साठ हजार करोड़ रुपये का अन्न सड़ जाता है। एक ओर सरकार दावा करती है कि वह गरीबी मिटाने को प्रतिबद्ध है, वहीं देश में हर रोज गरीबों द्वारा आत्महत्या की खबरें चर्चा में बनी रहती हैं। बावजूद इसके सरकार गोदामों में सड़ रहे अनाजों को बांटने के लिए तैयार नहीं है। तो फिर कैसे माना जाए कि सरकार गरीबों के लिए संवेदनशील है। अगर वह संवेदनशील होती तो योजना आयोग देश को गुमराह करने की कोशिश नहीं करता। यूनाइटेड नेशन के फूड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले एक दशक में भारत में गरीबी की समस्या से जूझने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। भारत के संदर्भ में इफको की रिपोर्ट भी बताती है कि कुपोषण और भुखमरी की वजह से देश के लोगों का शरीर बीमारियों का घर बनता जा रहा है, लेकिन योजना आयोग की पेशानी पर बल पड़ता नहीं दिख रहा है और न ही सरकार चिंतित है।
सरकार की निष्कि्रयता और गलत आर्थिक नीति के कारण ही देश में गरीबों की संख्या कम होने के बजाए बढ़ रही है। यही कारण है कि भारत वैश्विक भूख सूचकांक की 88 देशों की सूची में 68वें स्थान पर कायम है। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिए योजना आयोग के फर्जी आंकड़े ही जिम्मेदार हैं। किसी से छिपा नहीं है कि सरकार की अर्थनीति की विफलता के कारण ही आज देश की आधी से अधिक आबादी 20 रुपये रोजाना पर गुजर-बसर कर रही है। वहीं, देश की 90 फीसदी पूंजी दस फीसदी लोगों की मुट्ठी में कैद है। ऐसे में सरकार और योजना आयोग की मंशा पर सवाल उठना लाजिमी है। समझ से परे है कि आयोग के आंकड़ों पर कैसे भरोसा किया जाए। आयोग सरकार के इशारे पर भले ही यह प्रमाणित करने की कोशिश करे कि सरकारी प्रयासों से गरीबों की संख्या में कमी आई है, लेकिन गरीबी से मरने वाले आंकड़ों को वह कैसे झुठला पाएगा? आज जरूरत इस बात की है कि सरकार और योजना आयोग गरीबों की वास्तविक संख्या से छल करने के बजाए जमीनी सच्चाई से रूबरू हो और धरातल पर उतरकर काम करे। सिर्फ गरीबी रेखा की परिभाषा बदल देने से गरीबी जाने वाली नहीं है।
लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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