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बीबीसी लंदन द्वारा बीते क्रिसमस के अवसर पर प्रसारित एक विशेष कार्यक्रम के प्रस्तोता द्वारा भारत विरोधी टिप्पणी पर काफी खबरें अब तक आ चुकी हैं। इस मसले पर भारत सरकार ने बीबीसी से माफी मांगने को भी कहा है। ज्ञात हो कि प्रस्तोता जेरमी क्लार्कसन द्वारा टॉप गीयर कार्यक्रम में भारत की ट्रेनों, शौचालयों, खानपान और इतिहास को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की गई थी तथा उपहास उड़ाया गया था। हो सकता है कि क्लार्कसन भी पश्चिम के उन लोगों में से ही एक हों तथा उन्हीं विचार और प्रवृत्तियों से ग्रसित हों, जिन्हें यह लगता है कि पूरी दुनिया ने सभ्यता और संस्कृति उन्हीं से सीखी है और कथित पिछडे़ और असभ्य राष्ट्रों या लोगों को सलीका सिखाने का ठेका उनके जैसे लोगों को ही है। नस्लीय भेदभाव अमेरिका तथा यूरोप के देशों में आज भी किसी न किसी रूप में मौजूद है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। ऐतिहासिक रूप से घोर नस्लवादी भेदभाव वाले पृष्ठभूमि के देशों में आज भी किसी न किसी रूप में यदि वे विभिन्न दबावों के चलते टिप्पणियां न कर पाएं तो भी भेदभाव की इस तरह की प्रवृत्ति को समाप्त नहीं माना जा सकता है। जब खुले रूप में इस तरह की टिप्पणियां आएं तो विरोध होना भी स्वाभाविक है।
बीबीसी प्रस्तोता जेरमी क्लार्कसन ने जो बाते कही हैं उनमें कुछ सभ्यता, संस्कृति से जुड़ी मनोगत किस्म की यानी सब्जेक्टिव टिप्पणियां हैं। मसलन खानपान, पहनावा आदि हर देश, क्षेत्र, इलाका आदि की अपनी विशिष्टता लिए होता है। इन विशेषताओं और भिन्नताओं का हर हाल में सम्मान किया जाना चाहिए। हर जगह का हर मानव इतिहास इस रूप से विविध रंगों और प्रकारों का अकूत भंडार लिए होता है, जिसमें वहां की परंपरा और इतिहास को देखा जाना चाहिए। इनमें श्रेष्ठताबोध का भाव लाना एक प्रकार की पिछड़ी मानसिकता का ही द्योतक है। पर यहां सवाल है कि क्लार्कसन ने ट्रेनों और शौचालयों के बारे में जो कुछ कहा है उसे हम स्वीकार क्यों नहीं करना चाहते हैं? भारतीय ट्रेनों की बदहाल स्थिति, उसके अंदर के शौचालयों की गंदगी और पूरे देश में शौचालयों की कमी तथा रखरखाव की दुर्दशा का किसी को पता नहीं है, यह भी कहा नहीं जा सकता।
वर्ष 1993 में हम लोगों ने हाथ से मल उठाने की प्रथा पर कानूनी ढंग से पाबंदी लगा दी, मगर आज भी हकीकत यही है कि कम से कम आठ लाख लोग जिनमें 95 फीसदी महिलाएं हैं, इसी पेशे में लगे हुए हैं, क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। अगर ट्रेनों की बात करें तो वहां से आज तक इस प्रथा को समाप्त नहीं किया जा सका है। अभी कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि रेलवे ने अब जीरो डिस्चार्ज टायलेट्स अर्थात ऐसे टायलेट जो बाहर गंदगी नहीं फेंकते हों, उन्हें आजमाया है और उसका पहला प्रयोग चेन्नई-त्रिवेंद्रम रास्ते पर होगा, जहां 56 ऐसे टायलेट्स लगाए जाएंगे। सिर्फ ट्रेन ही नहीं हर सार्वजनिक स्थल पर शौचालयों की उपलब्घता तथा जहां यह उपलब्ध हैं वहां साफ-सुथरा शौचालय हम भारतीयों के लिए अभी दूर की मंजिल है। यदि मॉल या बिग बाजार की तरह के बाजारों को छोड़ दें तो आम बाजार या डीडीए के मार्केट के शौचालय जो सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए उपलब्ध कहे जाते हैं, वे वास्तव में इस्तेमाल के लायक नहीं होते। यह एक अजीब मानसिकता है कि शौचालयों के इस्तेमाल को लेकर हर भारतीय शायद यही सोचता है कि उन्हें जितना गंदा रखा जाए वही बेहतर है, फिर चाहे वह निजी शौचालय हो या सार्वजनिक। इस संदर्भ में बीते साल दिल्ली हाईकोर्ट ने सार्वजनिक शौचालयों की खस्ता हालत के लिए निगम को फटकार लगाई थी।
निगम ने प्रत्येक वॉर्ड में एक महिला शौचालय की बात कही थी जो कि अपर्याप्त थी किंतु वह भी नहीं बन सका। साल के शुरू के महीनो में ही सूचना के अधिकार के तहत पता चला कि शहर के 410 सार्वजनिक शौचालय गायब हो चुके हैं। सुलभ इंटरनेशनल से जब नगर पालिका ने इन शौचालयों की देखरेख का काम वापस लिया था तब इनकी संख्या 1968 थी, जो बाद में 1553 ही रह गए। शेष 410 के बारे में आज तक किसी को कुछ नहीं पता कि इनका क्या हुआ। पिछले दिनों यूनिसेफ ने बिहार के स्कूलों की स्थिति पर कराए गए सर्वेक्षण में पाया कि 44 फीसदी ग्रामीण स्कूलों में कोई शौचालय ही नहीं है। जो होंगे उनके बारे में भी अंदाजा लगा सकते है कि वे वर्तमान में किस हालात में होंगे। ऐसे बच्चों के लिए स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण कैसे मुहैया कराया जा सकता है? न सिर्फ सार्वजनिक स्थलों पर ये सुविधाएं नदारद रहती हंै या बहुत कम होती हैं, बल्कि निजी दायरे में भी यानी घर के अंदर भी अभी बड़ी आबादी इस सुविधा से वंचित है। इसकी सबसे बड़ी वजह सीवर पाइपलाइन का कई क्षेत्रों में नहीं होना है। अब भी अधिकतर पुनर्वास बस्तियां बिना सीवरलाइन के बसाई जाती हैं और वहां जो सामूहिक शौचालय बनते हैं उनके रखरखाव का बजट भी बहुत कम होता है।
गांवों में शौचालयों के सारे वायदे कागज पर ही मौजूद हैं। कुछ ग्रामों को निर्मलग्राम का सर्टिफिकेट जरूर दे दिया जाता है, लेकिन बिना बुनियादी ढांचा के छोटी जगहों में व्यक्तिगत शौचालय बनवाना मुश्किल भरा काम है। अधिकतर लोगों में इस सुविधा के प्रति चेतना का अभाव भी होता है जिसके चलते वे इसे प्राथमिक जरूरत नहीं मानते हैं।। दूसरी बात यह भी है कि जातीय मानसिकता के कारण कई लोग अपने निजी शौचालयों की साफ-सफाई खुद नहीं करके दूसरे सफाई कर्मी पर निर्भर रहते हैं। इस निर्भरता के कारण भी साफ-सफाई करना आदत का हिस्सा नहीं बन पाता है जिस वजह से गंदगी फैलती रहती है। स्वच्छ शौचालय की ख्वाहिश रखना क्या ऐसी ख्वाहिश है, जिसे पूरा करना असंभव है? निश्चित ही यह हर व्यक्ति का बुनियादी अधिकार होना चाहिए, क्योंकि यह एक प्राकृतिक जरूरत है। पश्चिम के देश इस मामले में फिर भी संवेदनशील दिखते हैं। न्यूयार्क शहर के कॉरपोरेशन ने शौचालय के मसले पर बाकायदा रेस्टरूम इक्विटी बिल पास किया, जिसमें नियम बनाया गया है कि सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों एवं महिलाओं के लिए बनने वाले शौचालयों में 1:2 का अनुपात होगा अर्थात पुरुषों के लिए अगर एक शौचालय बनेगा तो महिलाओं के लिए दो शौचालय बनाए जाने अनिवार्य होंगे। इसकी वजह कई हैं और हर वजह को खत्म किया जाए, जरूरी नहीं। सच्चाई यही है कि पहले से ही हम इस मामले में दुनिया के दूसरे देशों से बहुत पीछे हैं और काफी हद तक असभ्य भी कहे जा सकते हैं। फिर कोई क्लार्कसन ऐसा न कहे या कह कर माफी भी मांग ले तो क्या फर्क पड़ने वाला है। इस बारे में जो कुछ भी कहा जा रहा है वह वास्तविकता का महज बयान ही तो है।
लेखिका अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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