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नए साल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार मुक्त भारत का संकल्प लिया है और मजबूत लोकपाल बिल पास कराने की वादा किया है। अगर उनके बीते साल के वक्तव्यों और वादों पर गौर करें तो पता चलता है उन्होंने सिर्फ वादे किए हैं, सपने दिखाए हैं। उन्हें पूरा करने के लिए वास्तविक धरातल पर कुछ नहीं किया है। पिछले साल अगस्त में जब अन्ना हजारे का अनशन प्रधानमंत्री और संसद की पहल पर तोड़ा गया था, उस समय तीन बिंदुओं पर संसद ने सिद्धांतत: सहमति जताई थी-सिटीजंस चार्टर, निचले स्तर की नौकरशाही को लोकपाल के तहत रखना और राज्यों में लोकायुक्त की स्थापना। इनमें से नए लोकपाल विधेयक में सिर्फ एक राज्य में लोकायुक्त की स्थापना को रखा गया, जबकि इसका भी पुरजोर विरोध क्षेत्रीय दल कर रहे है। कहने का मतलब यह कि सरकार जो वादे आम आदमी से करती है, उन्हें वह पूरा करे यह जरूरी नहीं है। यही वजह है कि आज देश के सामने प्रधानमंत्री के भ्रष्टाचार के विरुद्ध संकल्प की कोई विश्वसनीयता जनता में रही नहीं। लोकपाल प्रहसन से आम आदमी का विश्वास और उम्मीद दोनों टूट गईं। इतना कमजोर लोकपाल बिल भी संसद में पारित नहीं हो सका। राजद के एक सांसद ने तो राज्यसभा में लोकपाल की प्रति तक फाड़ दी। सदन में आम आदमी एक बार फिर हार गया। देश के राजनेता एकदूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं कि हमने लोकपाल बिल पास नहीं होने दिया।
अन्ना हजारे का मुंबई अनशन टूटने पर, जेल भरो आंदोलन स्थगित होने पर, उनकी हार मान कर सरकार में बैठे लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। वास्तव में आम आदमी के रूप में अन्ना को तो हारना ही था! महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वाली कांग्रेस के महासचिव बीके हरिप्रसाद अन्ना हजारे को दो कौड़ी का आदमी बोलते है। बेनीप्रसाद वर्मा, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह आदि नेता भी अन्ना पर तीखे शब्दबाण चलाते रहते हैं। शिवसेना समेत अन्य दलों के राजनेता भी अन्ना के खिलाफ दुष्प्रचार में लगे हैं। कोई कहता है कि वह भगोड़े सिपाही हैं, तो कोई उन्हें अमेरिका का एजेंट बताता है। वास्तव में उनका कसूर सिर्फ इतना है उन्होंने देश में फैले व्यापक भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सकारात्मक मुहिम छेड़ी और आम आदमी में विश्वास और जज्बा पैदा किया। लोकपाल बिल के एक बार फिर लटकने से देशवासियों में गहरी निराशा है। पिछले 43 सालों से किसी न किसी कारण यह टलता आ रहा है। सच बात तो यह है इसे लेकर कोई भी पार्टी संजीदा नहीं है। सब राजनीति कर रहे हैं। कोई भी सांसद अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं होने देना चाहता। क्षेत्रीय दल नहीं चाहते कि राज्यों में लोकायुक्त बनाना जरूरी हो। कुल मिलाकर कोई भी पार्टी मजबूत लोकपाल नहीं चाहती। देश मे इतने बड़े पैमाने पर ऊपर से नीचे फैले भ्रष्टाचार पर आम आदमी को राहत कब मिलेगी? इस साधारण प्रश्न का जवाब हमारे ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास भी नहीं है। उन्होंने भ्रष्टाचार मुक्त भारत का संकल्प लिया है। पर देश को वह सही दशा और दिशा कैसे देंगे इसका जवाब अभी भी उनके पास नहीं है।
भ्रष्टाचार और उत्पीड़न से आम आदमी त्रस्त है। राजनीति अपनी मर्यादा खोती जा रही है। ऐसे में देश की जनता और बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आना चाहिए। आगामी चुनाव में सभी राजनीतिक दलों से स्पष्ट पूछना चाहिए कि आपने अब तक हमारे लिए क्या किया है। वास्तव में जिस दिन इस देश की जनता जागरूक हो जाएगी, राजनेता हमें बेवकूफ नहीं बना पाएंगे। देशवासियों को जाति, धर्म की राजनीति से ऊपर उठकर आगे आना ही होगा। तभी इस देश में आम जनता की सुनी जाएगी। राजनेता भी संजीदा होंगे। जब तक आम आदमी जाति और धर्म की राजनीति में फंसा रहेगा, नेता मनमानी करते रहेंगे।
लेखक शशांक द्विवेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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