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भ्रष्ट तत्वों को सख्त संदेश

जागरण मेहमान कोना
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Gaurishankar Rajhansभ्रष्ट तत्वों को सख्त संदेश 31 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर जो फैसला दिया वह कई मायने में ऐतिहासिक है। डॉ. स्वामी ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि 2-जी घोटाले में पूर्व केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए राजा के खिलाफ मुकदमे की मंजूरी के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री को जो आवेदन दिया था उसका 16 महीनों तक जवाब नहीं आया। बहस के दौरान अटार्नी जनरल ने कहा कि स्वामी एक सामान्य नागरिक हैं। वह किसी सरकारी पद पर नहीं हैं। अत: उन्हें इस मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति मांगने का अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अटार्नी जनरल की दलील को नकारते हुए कहा कि देश के हर नागरिक को इस तरह की शिकायत दर्ज करने का संवैधानिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने एक कदम आगे बढ़कर कहा कि यदि सरकार लोकसेवकों के खिलाफ शिकायत पर चार माह में फैसला नहीं देती तो यह मान लिया जाएगा कि सरकार ने अनुमति दे दी है और लोकसेवकों पर सामान्य तरीके से मुकदमा चलाया जा सकेगा। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत किसी भी सरकारी कर्मचारी या लोकसेवक पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाने के लिए सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। यह प्रावधान इसलिए किया गया था ताकि कोई व्यक्ति बिना वजह सरकारी कर्मचारियों को और लोकसेवकों को परेशान न कर सके। यहां यह याद रखने वाली बात है कि लोकसेवक की श्रेणी में सरकारी कर्मचारियों के अलावा मंत्री भी आते हैं।


केंद्र की बात तो छोड़ ही दी जाए, राज्यों में भी मंत्रियों पर मुकदमा चलाने के लिए राज्यपाल से अनुमति लेने की परंपरा है। अनुभव से स्पष्ट है कि इस मामले में भी अधिकतर राज्यपाल दलगत स्वार्थ से ऊपर नहीं उठ सके हैं और जब तक केंद्र का इशारा नहीं होता है तब तक किसी भी मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री अथवा मंत्री व पूर्वमंत्री के खिलाफ जांच या मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं देते हैं। प्राय: ऐसी फाइलें विभिन्न मंत्रालयों में घूमती रहती हैं और अंत में ठंडे बस्ते में डाल दी जाती हैं। केंद्र में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब शीर्ष सरकारी अफसर के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी गई, परंतु वषरें बाद भी यह अनुमति नहीं मिली। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल नाम की अंतरराष्ट्रीय ख्याति की संस्था ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा कि गत वर्ष भारत में काम करवाने के लिए 54 प्रतिशत लोगों को सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देनी पड़ी। इस सिलसिले में एक बात याद रखनी आवश्यक है कि कोई भी मंत्री भ्रष्टाचार में तब तक लिप्त नहीं हो सकता जब तक उसके मंत्रालय के बड़े अफसर भी उसमें आकंठ नहीं डूबे हों। बड़े ओहदों पर रहने वाले नौकरशाह ही मंत्रियों को भ्रष्ट तरीके से पैसे कमाने का रास्ता बताते हैं। 2-जी स्पेक्ट्म मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने पीएमओ के अफसरों को फटकार लगाई है और कहा है कि उन्होंने प्रधानंमत्री को सही सलाह नहीं दी। वे जानबूझकर 16 महीनों तक फाइल पर बैठे रहे या फाइल को विभिन्न मंत्रालयों में घुमाते रहे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रधानमंत्री एक अत्यंत ही व्यस्त राजनेता होते हैं। वे किसी भी मामले में प्रतिदिन छानबीन नहीं कर सकते हैं। यह काम तो नौकरशाहों का है।


आज राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि हर राजनेता को चुनाव के लिए या अपनी पार्टी को सत्ता में बनाए रखने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। यह पैसा आखिर आता कहां से है? स्वाभाविक है कि नौकरशाहों की मिलीभगत से ये राजनेता भ्रष्ट तरीके से करोड़ों-अरबों रुपये कमाते हैं और सत्ता में बने रहने का प्रयास करते हैं। ऐसे राजनेता सभी पार्टियों में हैं। नौकरशाह अपने बॉस को अंधकार में रखकर किस प्रकार अपना उल्लू सीधा करते हैं, इसका व्यक्तिगत अनुभव बताना चाहूंगा। कुछ वर्ष पहले दक्षिण-पूर्व एशिया के एक देश में जब मैं राजदूत के रूप में तैनात था तो प्रथम सचिव मेरे पास एक प्रस्ताव लाए जिसमें कहा गया था कि दूतावास का फर्नीचर बदल दिया जाए। उन्होंने कहा कि मुझे कुछ नहीं करना है। वे नोट बनाकर लाए हैं। मैं केवल यह लिख दूं कि मैं इस नोट से सहमत हूं और दूतावास के लिए नया फर्नीचर खरीद लिया जाए। मैंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और प्रथम सचिव से कहा कि फर्नीचर तो एकदम नया है।


मुझे पुरानी फाइल दिखाइए कि यह कब खरीदा गया था। प्रथम सचिव जो वरिष्ठ नौकरशाह थे, को यह बहुत नागवार गुजरा। उन्होंने मुझसे कहा कि पुरानी फाइल का मिलना कठिन है, क्योंकि दूतावास में इतनी फाइलें रहती हैं कि कौन-सी फाइल कहां गई, इसका पता लगाना कठिन है। मैंने दूसरे अफसरों को बुलाया तो पता लगा कि फर्नीचर तो पिछले साल ही खरीदा गया था। मैं इस हेराफेरी को अच्छी तरह समझ गया। इस दौरान मुझसे यह भी कहा गया कि किसी खास सप्लायर से ही फर्नीचर एंबेसी में आता है। मैंने फाइल पर लिख दिया कि मैं इस प्रस्ताव से सहमत नहीं हूं। वह नौकरशाह मुझसे नाराज हो गया। देश के साथ इस तरह की बेईमानी प्राय: भारतीय दूतावासों में होती रहती है। इनकी जांच करने वाला कोई नहीं है। कहने का अर्थ है कि अधिकतर नौकरशाह अपने बॉस को बेवकूफ बनाते हैं और जनता के पैसे को लूटते हैं। यह कहानी अनंत है। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आम जनता के लिए बहुत ही राहत लेकर आया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए यह मील का पत्थर साबित होगा।


गौरीशंकर राजहंस पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं


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