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जल के निजीकरण के खतरे

जागरण मेहमान कोना
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Nirankar Singhकेंद्रीय जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल ने यह कहकर चौंका दिया है कि सरकार पानी के निजीकरण पर विचार कर रही है। राष्ट्रीय जल नीति इस माह के अंत तक घोषित कर दी जाएगी। बंसल के मुताबिक जल संसाधन मंत्रालय ने जल नीति का मसौदा कई माह पहले तैयार कर लिया था। इस बारे में लगातार विशेषज्ञों और संबंधित लोगों से चर्चा हो रही है। नीति का जो मसौदा विशेषज्ञों को दिया गया था, वह इस अहम संसाधन के निजीकरण की जोरदार वकालत करता है। इसके अनुसार जल वितरण कार्य में सरकार की कोई एजेंसी शामिल नहीं होनी चाहिए। यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि पानी हमारा होगा, सप्लाई प्रणाली एवं उपकरण भी हमारे होंगे और उसकी पंपिंग कर देसी या विदेशी कंपनियां देश से भारी भरकम मुनाफा कमाकर अपने खजाने भरेंगी। कर्नाटक की राजधानी बेंगलूर का नगर निगम अपने नागरिकों को जल आपूर्ति का काम ठीक से नहीं कर पा रहा है। अब वह जल आपूर्ति के लिए फ्रांस की दो फर्मो विवेंडी और इसकी सहयोगी ओंदियो के साथ समझौता करने जा रहा है। अगर यह समझौता हो गया तो बेंगलूर नगर निगम को इन फर्मो को पांच साल तक प्रतिवर्ष 135 करोड़ रुपये शुल्क देना होगा, जबकि नगर निगम की वार्षिक आय मात्र 276 करोड़ रुपये है।


कुदरती संसाधनों की लूट


सितंबर 2000 में बेंगलूर वाटर बोर्ड ने विवेंडी वॉटर ग्रुप तथा नार्थम्बेरियन वाटर ग्रुप को प्रयोग के तौर पर अपने एक वाटर सप्लाई प्रोजेक्ट का कार्य सौंपा था। इसमें 10 लाख लोगों को पेयजल की आपूर्ति की जानी है। अगर यह योजना सफल हो जाती है तो इसके बाद इन विदेशी कंपनियों से 30 साल तक समझौता किया जाएगा। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यदि विदेशी संस्थानों के हाथ में पेयजल आपूर्ति का कार्य पूरी तरह आ गया तो फिर जल शुल्क तीन गुने हो जाएंगे। पैसे नहीं तो प्यासे रहिए भारत में मीठे जल का भी सबसे बड़ा भंडार है। पिछले कई वर्षो से कॉरपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर इसी जल पर लगी हुई है। वे जानते हैं कि इसकी मार्केटिंग में कमाई की अपार संभावना है। उनकी नजर में यह नीला सोना है और आने वाले दिनों में इसका महत्व जमीन के नीचे से निकलने वाले कच्चे तेल से भी ज्यादा होगा। इसलिए 70 के दशक से शुरू हुए इस प्रयास में पहले जल वितरण की टेक्नोलॉजी से कमाई की गई। फिर जल शोधन के यंत्र बेचे गए। अब पानी के अधिकार पर उनकी निगाहें लगी हैं, लेकिन सरकारें पानी की आपूर्ति को बिजली या टेलीफोन की तरह निजी हाथों में नहीं सौंप सकतीं और न ही उस तरह से इसकी लागत और खर्च के हिसाब जोड़ सकती हैं।


तो बस आंखों में ही रह जाएगा पानी


लोकतांत्रिक सरकारें तो बिल्कुल ही नहीं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां पानी को जीवन के लिए आवश्यक मानती हैं, लेकिन उनकी नजर में किसी चीज का जीवन के लिए आवश्यक होने का मतलब यह नही है कि उसका व्यापार नहीं हो सके और उससे मुनाफा न कमाया जा सके। पानी जीवन के लिए आवश्यक है, तब भी वह बाजार का माल होगा। इसी प्रस्ताव से स्वयंसेवियों के कान खड़े हुए हैं। वे पानी को हर व्यक्ति का बुनियादी अधिकार मानते हैं। उसे खरीदने और बेचने का मतलब है, जिसके पास खरीदने की ताकत नहीं है, उसका पानी से वंचित होना। क्या किसी सरकार या व्यवस्था को ऐसा करने का अधिकार है? क्या सरकारें हवा और पानी जैसे नैसर्गिक संसाधनों का स्वामित्व किसी को सौंपने का अधिकार रखती हैं? क्या ऐसे प्राकृतिक संसाधनों पर हर प्राणी का बुनियादी हक नहीं है? असल में तो यह सारी खुराफात ही बाजारवादी ताकतों की है। अब अगर एक गरीब परिवार की आय तीन हजार रुपये मासिक हो तो वह एक हजार या 900 रुपये तक पानी का बिल कहां से भरेगा और फिर बिल देने के बाद उनके पास क्या बचेगा। यदि कोई लोक कल्याणकारी राज्य अपने नागरिकों को पानी भी मुहैया नहीं करा सकता है तो उसके सत्ता में होने का क्या मतलब हो सकता है? हमारे देश में पानी को लेकर दोहरा संकट है। एक तो कई इलाकों में पानी की कमी है। दूसरे, जो पानी उपलब्ध है, वह भी पीने लायक नहीं है। पेयजल का संकट धीरे-धीरे गंभीर रूप धारण करता जा रहा है। इसका अंदाजा चुनाव के दौरान अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में पानी का सवाल उठने से भी लगाया जा सकता है।


कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पानी को लेकर जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। पश्चिम बंगाल में भी यही हाल है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा के चुनाव का प्रमुख मुद्दा पानी और बिजली ही रहा है। राजस्थान में भी सूखे और अकाल से न निपट पाने के मुद्दे पर सरकारें चली जाती हैं। आज यह कहना मुश्किल है कि कौन-सा क्षेत्र जल संकट से मुक्त है। सच तो यह है कि अभी तक न तो केंद्र और न ही राज्य सरकारों ने इस पर गंभीरता से ध्यान दिया है। उधर कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियां पानी को व्यापार की वस्तु बनाने में जुट गई हैं। पिछले साल मार्च में क्योटो में हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में पानी को जीवन के लिए आवश्यक वस्तु कहा गया। तीसरी दुनिया के देशों में विकसित देशों की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी अपने कचरों को नदियों में बहाकर जल को प्रदूषित कर रही हैं। यह एक साजिश भी हो सकती है और खतरनाक लापरवाही भी, लेकिन इसका नतीजा भारत जैसे देशों में रहने वाले लोगों को भुगतना पड़ रहा है। पानी की गुणवत्ता के मामले में दुनिया के 122 देशों में भारत का नाम तीन सबसे प्रदूषित पानी वाले देशों में शामिल है। विषैली होती नदियां गंगा सहित देश की तमाम नदियां प्रदूषण के कारण खतरनाक रोगों का स्रोत बनती जा रही हैं। दिल्ली में यमुना का पानी इस कदर जहरीला हो चुका है कि उसमें मछलियां तो दूर, वनस्पतियां तक जिंदा नहीं रह सकतीं। हर रोज दिल्ली के पास गुजरते समय एक अरब लीटर तरल कचरा यमुना में घुल जाता है।


भारतीय जल के नमूनों में आर्सेनिक, बेंजीन और सीसे की खतरनाक मात्रा पाई जाती है। इन रसायनों के यौगिक उपभोक्ता की आयु कम करने के अलावा कैंसर जैसी बीमारियों को जन्म दे सकते हैं। हैजा, पेचिस जैसी साधारण बीमारियों के साथ-साथ वे दिमागी और अनुवांशिक रोगों को भी जन्म दे सकते हैं। देश में जितने बच्चों की मौत प्रदूषित पानी के कारण होती है, उतनी किसी और पदार्थ के उपभोग से नहीं होती है। सरकार द्वारा साफ और सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति नहीं करने के कारण ही आज उपभोक्ता पानी स्वच्छ करने वाले उपकरणों, बोतलबंद पेयजल और शीतलपेय पर पैसा खर्च करने के लिए मजबूर हुआ है। सत्ता में आने से पहले हर सरकार पानी की समस्या को हल करने का दावा करती है, पर समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। कल-कारखानों के कचरे के पानी में मिल जाने के कारण पानी में क्लोरीन डालकर उसे साफ करने का तरीका अब बेकार ही नहीं, घातक हो गया है। एक तो क्लोरीन अमीबा पेचिस के जीवाणु नष्ट नहीं कर सकती। दूसरे, यह औद्योगिक कचरे में मौजूद कार्बनिक रसायनों के साथ मिलकर क्लोरोफार्म सहित छह कैंसरजनक तत्व पैदा करती है। लिहाजा, नदियों में औद्योगिक कल-कारखानों और शहरों की आबादी का गंदा पानी नदियों में डालने की परंपरा बंद नहीं हुई तो देशवासियों का जीवन अगले तीस-चालीस सालों के भीतर ही घनघोर संकट में पड़ जाएगा। आज भारत में कोई नदी ऐसी नहीं है, जिसका जल प्रदूषित नहीं हो। वास्तव में इतना अधिक विदेशों से कर्ज लेने के बाद भी भारत अपने नागरिकों को पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं करा सका है। देश के नगरों में जगह-जगह शराब की दुकानें तो खुल गई हैं, लेकिन साफ पानी की हम व्यवस्था नहीं कर सके हैं। बल्कि पानी को गंदा कर हमने शराब तैयार की है।


लेखक निरंकार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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