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दांव पर राहुल की प्रतिष्ठा

जागरण मेहमान कोना
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Pradeep Singhउत्तर प्रदेश में अपने खोए हुए आधार को पाने के लिए कांग्रेस को जातिवाद व पंथिक आरक्षण के नए प्रयोग करता देख रहे हैं प्रदीप सिंह


कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक साथ दो लड़ाईयां लड़ रही है। प्रदेश में पार्टी को पुनर्जीवित करने की चुनौती तो है ही, कांग्रेस को केंद्र में अपनी सरकार का राज 2014 तक निष्कंटक [क्योंकि ममता बनर्जी से उसके संबंधों में कड़वाहट बढ़ती जा रही है] बनाने के लिए एक सहयोगी की भी जरूरत है। मौजूदा लोकसभा में यह सहयोगी उसे उत्तर प्रदेश से ही मिल सकता है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने राहुल गांधी की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया है। कांग्रेसी कुछ भी कहें पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार की बात सही है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अच्छा करेगी तो उसका श्रेय राहुल को मिलेगा और बुरा करेगी तो उसका दोष भी उन्हीं के मत्थे मढ़ा जाएगा।


केंद्र में सत्ता में बने रहने के लिए उत्तर प्रदेश का दरवाजा खोलने के अलावा कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं है। प्रदेश में मंडल और कमंडल की राजनीति के दौर में हाशिए पर पहुंच गई कांग्रेस ने इस चुनाव में कई नए प्रयोग किए हैं। उसने मान लिया है कि पिछले दो दशकों में राज्य में पार्टी का जो नेतृत्व रहा है उससे कुछ होने वाला नहीं है। इसलिए राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह के बाद चुनाव की कमान बेनी प्रसाद वर्मा और पीएल पुनिया के हवाले है। टिकट बंटवारे में इन दोनों नेताओं की सबसे ज्यादा चली है।


उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग कभी कांग्रेस का समर्थक नहीं रहा है। दलित, ब्राह्मण और मुसलमान कांग्रेस के जनाधार की धुरी रहे हैं। दलित बहुजन समाज पार्टी के साथ चले गए, मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ और ब्राह्मण अयोध्या आंदोलन के दौर में भारतीय जनता पार्टी के साथ चले गए। राहुल गांधी का दलितों के घर में जाना और खाना, मायावती से अपने पुराने दलित जनाधार को वापस हासिल करने की कोशिश थी। उससे कांग्रेस को दलितों का वोट इस विधानसभा चुनाव में मिलेगा ऐसे कोई संकेत तो अभी दिखाई नहीं दे रहे पर राहुल गांधी के इस कदम से इतना जरूर हुआ कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चुनावी चर्चा में आ गई। कांग्रेस को भी पता है कि दलित वोट इतनी आसानी से बसपा से नहीं टूटने वाला है।


मुसलमान कांग्रेस के साथ फिर से जुड़ सकता है इसका संकेत 2009 के लोकसभा चुनाव में मिल गया था। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटों में बढ़ोतरी में मुस्लिम मतदाताओं का काफी योगदान था। पर 2009 से दो चीजें बदल गई हैं। एक यह विधानसभा चुनाव है जहां कांग्रेस सरकार बनाने की हालत में नहीं है। दूसरे कल्याण सिंह को लेने के कारण 2007 में मुसलमान मुलायम सिंह यादव से नाराज हो गया था। वह नाराजगी अब नहीं है। इसीलिए राहुल गांधी और कांग्रेस के सबसे तीखे हमले समाजवादी पार्टी पर हो रहे हैं। यह जानते हुए भी कि चुनाव के बाद कांग्रेस को समाजवादी पार्टी के साथ ही बैठना होगा। यह भी कि केंद्र सरकार को जिस सहारे की जरूरत है वह मुलायम सिंह ही दे सकते हैं। इसके बावजूद कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में पिछड़ों के कोटे से मुसलमानों को नौ फीसदी की बात नहीं कही है, क्योंकि समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण देने का वादा किया है। कांग्रेस ने भी सपा की आलोचना से बचने और मुसलमानों को लुभाने के लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण देने का वादा किया है। समाजवादी पार्टी से मुसलमानों को तोड़ने के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जाने को तैयार है। बुनकरों के लिए पैकेज और आजमगढ़ में बाटला हाउस का मामला उठाने जैसे कदमों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।


कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में जो कुछ कहा है उससे दो स्पष्ट संकेत मिलते हैं। एक कांग्रेस अब खुले तौर पर जातीय राजनीति में उतरने को तैयार है। दलितों और पिछड़ों के आरक्षण के कोटे के अंदर अति दलितों और अति पिछड़ों को अलग कोटा देने के नीतीश कुमार के सफल प्रयोग को वह अपनाने को तैयार है। जातीय समीकरणों का संतुलन और विकास चुनाव जीतने का नया मंत्र है। कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार में तो ऐसा ही लगता है।


उत्तर प्रदेश में इस बार चारो बड़ी पार्टियों की नजर गैर यादव पिछड़ी जातियों पर है। विकास की बात सब पार्टियां भले ही कर रही हों पर किसी के पास नीतीश कुमार की तरह दिखाने के लिए विकास का काम नहीं है। कांग्रेस के पास एक वास्तविक बहाना है कि पिछले दो दशक से मतदाता ने उसे मौका ही नहीं दिया। इसीलिए राहुल गांधी अपनी चुनाव सभाओं में दावा कर रहे हैं कि पांच साल में हम उत्तर प्रदेश की तस्वीर बदल देंगे। चालीस साल में उनकी पार्टी यह क्यों नहीं कर पाई इसका जवाब भले ही उनके पास न हो पर जातीय राजनीति का जवाब उनके पास है।


पिछड़ी जातियां परंपरागत रूप से कभी कांग्रेस की समर्थक नहीं रही हैं। पिछड़ी जातियां राम मनोहर लोहिया के ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ के नारे के समय से ही कांग्रेस विरोधी राजनीति की धुरी रही हैं। लेकिन कांग्रेस ने पहली बार उत्तर प्रदेश में इन जातियों पर बड़ा दांव खेला है। इसमें किसी को शक रहा हो तो वह मंगलवार को लखनऊ में पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र जारी करने के कार्यक्रम से दूर हो जाना चाहिए। आधुनिक तकनीकी के पुरोधा सैम पित्रोदा की जाति कांग्रेस ने देश बताने का काम किया है। पित्रोदा कांग्रेस के नेता नहीं है, उत्तर प्रदेश के भी नहीं है, लेकिन भला जातीय राजनीति का देश में संचार क्रांति के जनक के रूप में उनकी पहचान पर उनकी जाति हावी हो गई है। कांग्रेस यह काम बेनी प्रसाद वर्मा के जरिए नहीं कर पा रही थी।


उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियां एक नए चुनावी सत्ता केंद्र के रूप में उभर रही हैं। इसका श्रेय मायावती को दिया जाना चाहिए। भाजपा में कल्याण सिंह इस वर्ग के चैंपियन माने जाते थे। अपने मुख्य मंत्रित्वकाल में राजनाथ सिंह ने इन जातियों की एक त्वरित जनगणना कराई थी और उनके लिए पिछड़ा वर्ग के कोटे में अलग कोटा देने का वादा किया था। समाजवादी पार्टी इस वर्ग के समर्थन के बूते सत्ता में आती रही है। पर समाजवादी पार्टी में यादव वर्चस्व से यह वर्ग असंतुष्ट था। इस वर्ग को सत्ता में हिस्सेदारी किसी पार्टी ने नहीं दिलाई। यह काम किया मायावती ने। उत्तर प्रदेश में कुशवाहा, सैनी, राजभर और पाल इतनी बड़ी संख्या में मंत्री कभी नहीं रहे।


उत्तर प्रदेश का मतदाता तय करेगा कि राहुल गांधी के भविष्य की राजनीति की राह क्या होगी। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे नए राजनीतिक ध्रुवीकरण का रास्ता भी खोलेंगे।


लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


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