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राहुल गांधी की राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ज्यादातर वही बातें बोलते हैं, जो उनके अंदर होता है। आप उसमें राजनीतिक गहराई, शब्दों के प्रभावकारी चयन आदि का अभाव तलाश सकते हैं। यह भी कह सकते हैं कि उनमें जमीनी सामाजिक-आर्थिक यथार्थ की सही समझ की भी कमी है, लेकिन उसमें एक सहजता, स्वाभाविकता और निश्छलता दिखती है। इसलिए वह जो कुछ भी बोलते हैं, उसका निहितार्थ निकालना राजनीतिक विश्लेषकों के लिए कठिन नहीं होता। वे पके-पकाए गूढ़ता को समाहित किए, बनावटीपन ओढ़े नेताओं की तरह ऐसा कुछ नहीं बोलते, जिसे समझने के लिए कठोर बौद्धिक प्राणायाम और योगासन करना पड़े। प्रियंका गांधी तो सीधे राजनीति में अभी नहीं हैं, इसलिए वे सीमित बोलती हैं। हां, उसमें आक्रामकता राहुल गांधी से ज्यादा होती है, लेकिन अब इनके राजनीतिक वक्तव्यों में पहली बार प्रियंका गांधी के पति और राहुल गांधी के बहनोई रॉबर्ट वाड्रा भी जुड़ गए हैं। अगर इनके वक्तव्यों में थोड़ी जटिलता आई है तो वह रॉबर्ट के वक्तव्य के कारण। रॉबर्ट वाड्रा से पूछा गया था कि प्रियंका राजनीतति में आ रही हैं या नहीं। वे खुद राजनीति में आ रहे हैं या नहीं? रॉबर्ट का जवाब था कि अभी राहुल का समय है और जब प्रियंका का समय आएगा तो वह भी आएंगी। अभी राजनीति में नहीं रहने का निर्णय उनका है। अपने बारे में उनका कहना था कि अगर जनता चाहेगी तो वे आ सकते हैं। हालांकि प्रियंका गांधी ने अपने या अपने पति के अभी राजनीति में आने का खंडन कर दिया है, लेकिन कांग्रेस के अंदर हलचल आरंभ हो गई है।


राहुल गांधी ने जो कुछ कहा, उसमें ये बातें महत्वपूर्ण हैं- वह उत्तर प्रदेश से भागने के लिए नहीं आए हैं। वह लंबे समय यहां ठहरेंगे। क्यों ठहरेंगे, क्योंकि वह उत्तर प्रदेश को बदलना चाहते हैं। वह सपा या बसपा से चुनाव बाद कोई गठजोड़ नहीं करेंगे। क्यों? क्योंकि ये पार्टियां उत्तर प्रदेश को बर्बाद करने में शामिल हैं। चूंकि वे इसे आबाद करना चाहते हैं, इसलिए इन पार्टियों के साथ रहने से यह संभव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि मायावती जी और मुलायम सिंह जी से उन्होंने जो सीखा है, वह यही है। तो सबसे पहले उन्होंने कांग्रेस को इन दोनों पार्टियों से अलग साबित किया। राहुल ने कहा, ये लोग प्रदेश में जिस तरह काम कर रहे हैं और जनता के मन की आवाज नहीं सुन रहे हैं, उसे मैं बदलना चाहता हूं। इन्होंने जिस तरह से काम किया है, वह तो लोगों के साथ अपराध है। इसे बदलना है। इस तरह एक साथ कांग्रेस पार्टी को अन्य पार्टियों से और खुद को अन्य नेताओं से विशिष्ट साबित करने की कोशिश की। लालकृष्ण आडवाणी का नाम लेकर उन्होंने कहा कि वे जब रथयात्रा करते हैं तो आम लोगों की आवाज क्यों नहीं सुनते। पिछले कई भाषणों और वक्तव्यों में राहुल ने कहा है कि जनता के बीच, उनके घर मैं जाता हूं, मायावती और मुलायम सिंह नहीं।


मायावती तो जब से कुर्सी पर आई, कभी जनता के बीच मिलने नहीं गई। साफ तौर पर वह यह कह रहे हैं कि देश के बड़े नेताओं में केवल वे ही हैं, जो जनता के बीच जाकर उनका हाल लेते हैं, उनकी समस्याओं को समझते हैं और उसे दूर करने का कदम उठाते हैं। उन्होंने कहा कि देश के जो भी वरिष्ठ नेता हैं, उनका दिमाग प्रधानमंत्री के पद तक जाकर ठहर जाता है, लेकिन मेरा लक्ष्य यह नहीं है। मैं काम करना चाहता हूं। इस तरह राहुल ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो नया हो या अनपेक्षित हो। उत्तर प्रदेश में प्रथम चरण के चुनाव प्रचार का अंतिम दिन था। प्रदेश में दो हवा फैली हुई है। एक, कांग्रेस अपनी बदौलत अच्छा प्रदर्शन नहीं करने जा रही है। इसलिए वह चुनाव बाद सपा के साथ गठजोड़ करेगी। मायावती सरकार से पहले कांग्रेस के समर्थन से मुलायम सिंह सरकार चला भी रहे थे और बाद में संप्रग की केंद्र सरकार को उनका समर्थन जारी रहा। इसलिए लोगों को इस प्रचार में सहसा अविश्वास नहीं होता। आखिर जो पहले हुआ, वह आगे क्यों नहीं हो सकता है? मुलायम सिंह किसी तरह मायावती या भाजपा को शासन में नहीं आने देना चाहेंगे और कांग्रेस भी कम से कम भाजपा को किसी तरह शासन में हिस्सेदारी से रोकेगी। राहुल के लिए इसका खंडन आवश्यक था। अपने वक्तव्य द्वारा उन्होंने यह तो किया। इसका चुनाव की दृष्टि महत्व समझना कठिन नहीं है। ध्यान दीजिए, प्रियंका गांधी भी रायबरेली और अमेठी में यही कह रही हैं। वह कह रही हैं कि जिन्हें आप चुनकर भेजते हैं, वह आपके सेवक बनने की जगह राजा बन जाते हैं और आपके व आपके बच्चों का भाग्य खराब हो रहा है। राहुल जी आपके लिए काम करते हैं, आपकी चिंता करते हैं।


इसलिए वोट देते समय इस बात का ध्यान रखिए और केवल कांग्रेस को ही वोट दीजिए। भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा सावन का मेढक कहे जाने पर प्रियंका ने मुस्कराते हुए जवाब दिया कि हां, यह सब जानते हैं कि मैं केवल चुनाव के लिए आती हूं, इसलिए मैं तो बरसाती मेढक हूं। पर राहुल जी बरसाती मेढक नहीं हैं। वे तो यहां से लगातार जुड़े हैं। देखा जाए तो पूरा परिवार उत्तर प्रदेश की जनता को यह संदेश दे रहा है कि मेरी प्रतिबद्धता आपके साथ है, जिस पर किसी प्रकार का संदेह करने की जरूरत नहीं है। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में पिछले आठ सालों में जितना समय दिया, उतना किसी प्रदेश में नहीं दिया। राजनीतिक कारण तो इतना-सा है कि उत्तर प्रदेश से साफ होने के कारण ही कांग्रेस का राष्ट्रीय राजनीति से वर्चस्व समाप्त हुआ। उस स्थिति को वापस पाने की छटपटाहट राहुल गांधी में साफ देखा जा सकती है।


लोकसभा चुनाव में 22 सीटें और 18.25 प्रतिशत मत पाने से राहुल और कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक है। जाहिर है, उनकी उम्मीदें भी बढ़ी हों। उत्तर प्रदेश विखंडित सामाजिक समीकरण के दुरुह राजनीतिक पहाड़ की चोटी की ओर बढ़ना कितना कठिन है, इसका आभास राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों को है। उन्हें इसका तो आभास होगा कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव की प्रकृति और माहौल में मौलिक अंतर होता है, लेकिन वे मत की जिस चोटी तक पड़ाव डाल चुके हैं, उससे नीचे नहीं खिसकें, इसकी चिंता उन्हें अवश्य होगी।


राहुल ने इसे छिपाया भी नहीं। उनका यह कहना कि कांग्रेस एक बार खड़ी हो गई तो फिर चल पड़ेगी यानी वह मानते हैं कि उनका पहला लक्ष्य कांग्रेस को इस विधानसभा चुनाव से स्वस्थ काया वाली पार्टी की तरह खड़ा कर देना है। वह यह बताने के लिए तन कर खड़े भी हुए, लेकिन कांग्रेस का संगठन जिस तरह ध्वस्त हो चुका है और दलित, सवर्ण और मुसलमानों का सामाजिक समीकरण दरक कर जिस पक्ष से चिपक गया है, वहां उसे उखाड़कर अपने पास लाना कितना कठिन है, इसका अहसास राहुल को है। इसलिए वे युवा मतदाताओं पर ज्यादा जोर देते हैं। अपने चुनावी अभियान में राहुल हर प्रकार के विवादास्पद विषय को टालने की रणनीति भी अपना रहे हैं। काले धन के प्रश्न पर उनका कहना कि मुझे मालूम है कि रामदेव जी उनकी सभाओं में जूता फिंकवाते हैं। उनकी हर सभा में रामदेव जी के दो चार जूता फेंकने वाले आ जाते हैं। उनका यह बयान इस बात का तो प्रमाण है ही कि कांग्रेस के अंदर स्वामी रामदेव को लेकर कैसी नकारात्मक धारणा बन चुकी है, लेकिन इसके साथ राहुल की ओर से शायद यह कहा गया कि कांग्रेस के विरुद्ध जो लोग यह मुद्दा उठा रहे हैं, उन्हें जनता का समर्थन नहीं है। रामदेव के समर्थक कांग्रेस को मत नहीं देंगे, राहुल के सामने यह साफ है। इसलिए ऐसा बोलने में उन्हें मत खिसकने का खतरा नहीं दिखा होगा, लेकिन इसका उल्टा असर भी हो सकता है। चुनाव परिणाम का अंकगणित शायद इसका जवाब दे, लेकिन कुछ बातें साफ हैं।


लेखक अवधेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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