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संघ का अनैतिक बल

जागरण मेहमान कोना
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Pradeep Singhकांग्रेस पर हमला करने से पहले भाजपा और संघ को अपने गिरेबान में झांकने की नसीहत दे रहे हैं प्रदीप सिंह


चुनाव आयोग ने झारखंड में राज्यसभा चुनाव रद करने की सिफारिश की है। यह थैलीशाहों के खिलाफ यशवंत सिन्हा की मुहिम की जीत है। इस घटना ने कई सवाल खड़े किए हैं। चुनाव में धनबल की भूमिका पर सारे राजनेता चिंता जाहिर करते रहे हैं। संसद में और विधानसभाओं में जिस तरह के लोग चुनकर आ रहे हैं उन पर देशभर में सवाल उठ रहे हैं। क्या राज्यसभा अब धन्नासेठों का सदन बन जाएगा। सासंदों पर अरविंद केजरीवाल की टिप्पणी पर संसद में गरजने वाले इस मुद्दे पर चुप क्यों हैं? झारखंड में जो हुआ वह पहली बार नहीं हुआ है। यह आखिरी बार था ऐसा दावा करने की हालत में कोई नहीं है। यह घटना राजनीतिक दलों की कार्यशैली ही नहीं उनकी राजनीतिक संस्कृति और नीयत पर भी सवाल खड़े करती है। खासतौर से अपने को सबसे अलग बताने वाली और बात-बात पर भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाली भाजपा की। लोकसभा चुनाव में बाहुबलियों और थैलीशाहों को टिकट देने को राजनीतिक दल चुनावी मजबूरी बताते हैं। राज्यसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं होती। यहीं उनकी नीयत की परीक्षा होती है।


झारखंड में भाजपा की पसंद अंशुमन मिश्रा और महाराष्ट्र में अजय संचेती थे। इन दोनों महानुभावों को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की निजी पसंद माना जाता है। इन्हें क्यों टिकट दिया गया? भाजपा में ऐसे मामलों में तीन शब्द कहे जाते हैं- परिवार के हैं। इसका मतलब है कि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से किसी रूप में जुड़े रहे हैं या कभी संघ की मदद की है। गडकरी संघ के नियुक्त किए गए भाजपा अध्यक्ष हैं। अध्यक्ष की नियुक्ति के समय संघ की नजर में वह आदर्श स्वयंसेवक थे। जो भाजपा में गए अन्य स्वयंसेवकों की तरह पथभ्रष्ट नहीं हुए थे। इसलिए गडकरी की पसंद को संघ की पसंद मानना गलत नहीं होगा। अंशुमन मिश्रा भी राज्यसभा पहुंच जाते अगर यशवंत सिन्हा ने पार्टी में अपने अस्तित्व की कीमत पर इसे मुद्दा न बनाया होता। अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक परिदृश्य से हटने के बाद से भाजपा में निर्णय लेने की प्रक्रिया में मौलिक बदलाव आ गया है।


पहले पार्टी के निर्णय के काफी समय बाद पता चलता था कि अमुक फैसले से पार्टी में कुछ लोग असहमत थे। अब फैसले से पहले ही पता चल जाता है कि कौन पक्ष में है और कौन खिलाफ। आखिर में फैसला बहुमत से नहीं इस उद्घोष के साथ होता है कि संघ की ऐसी इच्छा है। इसके बाद सारी तलवारें म्यान में चली जाती हैं। झारखंड में सरकार बनाते समय और अर्जन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाते समय यही हुआ। सवाल है कि क्या अर्जुन मुंडा, अजय संचेती और अंशुमन मिश्रा जैसे लोग ही संघ की पसंद हैं? क्या ऐसे ही लोगों के बूते भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाएगी? कांग्रेस और केंद्र सरकार पर हमला करने से पहले भाजपा और संघ को अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए। अपने राजनीतिक विरोधी के भ्रष्टाचार को उजागर करने से जनता आपको ईमानदर नहीं मान लेगी। ऐसा लगता है कि प्रदूषण गंगोत्री से ही शुरू हो चुका है। उत्तर प्रदेश उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। भाजपा में संगठन मंत्रियों की नियुक्ति सीधे संघ से होती है। संघ के पदाधिकारी यदि कोई निष्पक्ष जांच के जरिए जानना चाहें तो पता लग जाएगा कि ये संगठन मंत्री भाजपा में इंस्पेक्टर राज की तरह हैं। ये राजनीतिक कार्यकर्ताओं से ज्यादा राजनीति करते हैं। इनके पास एक ब्रह्मास्त्र होता है कि संघ की ऐसी इच्छा है।


संघ से भाजपा में आने के बाद इनके रहन-सहन के स्तर में आए बदलाव से पता चल जाएगा कि भ्रष्टाचार का घुन घर में ही है। सांगठनिक ढांचे से ज्यादा संघ का नैतिक बल भाजपा के कार्यकलाप को प्रभावित करता था। संघ का वह नैतिक बल तिरोहित हो गया है। अब वह संगठन की ताकत से भाजपा को संचालित कर रहा है। शायद इसीलए संघ का रुक्का गुजरात में नहीं चलता। भाजपा के दिवंगत नेता और पूर्व उप राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए आए थे। इलाहाबाद के सर्किट हाउस में मेरी उनसे मुलाकात हो गई। राजनीतिक दलों की संस्कृति पर अनौपचारिक चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, मैं करीब चार दशक से चुनाव लड़ रहा हूं। पर 1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद ही कार से चलना शुरू किया। आज तो पार्टी कार्यकर्ताओं की बात तो छोड़ो संघ के लोग भी बिना कार और होटल में रुकने की व्यवस्था के नहीं चलते। इस पर अंकुश नहीं लगा तो पार्टी डूब जाएगी। आज 19 साल बाद पार्टी के नेता कार से नहीं चार्टर्ड फ्लाइट से चलते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चार्टर्ड फ्लाइट से लखनऊ से सिर्फ रात बिताने के लिए अपने गृह नगर नागपुर कितनी बार गए यही देख लें तो पार्टी की नई संस्कृति का अंदाजा लग जाएगा। सही है कि सभी पार्टियों के नेता आजकल यही करते हैं। यह भी सही है कि इसका पैसा पार्टी के खाते से जाता है। सवाल है कि दूसरे दल अलग और विशिष्ट राजनीतिक संस्कृति का झंडाबरदार होने का दावा नहीं करते। नेताओं की इस शाहखर्ची के लिए पैसा जुटाने की खातिर पार्टी को किस तरह के समझौते करने पड़ेंगे यह बताने की जरूरत नहीं है।


भारतीय जनता पार्टी की हालत उस सेना की तरह है जिसका न कोई सेनापति है और न कोई रणनीति। पार्टी चारों तरफ तलवार भांज रही है और ज्यादातर समय अपने को ही घायल कर रही है। वरना क्या कारण है कि केंद्र सबसे भ्रष्ट सरकार के खिलाफ जनमानस बनने के बावजूद मुख्य विपक्षी दल आम लोगों की नजर में नहीं चढ़ रहा। 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के विकल्प के रूप में भाजपा राष्ट्रीय विमर्श में नहीं है। आम जनमानस को तो छोडि़ए राजग में अपने सहयोगियों की नजर में भी पार्टी की प्रतिष्ठा गिरी है। कांग्रेस के विकल्प के रूप में क्षेत्रीय दलों का मोर्चा (जो अभी अस्तित्व में भी नहीं आया है) की चर्चा हो रही है। सिर्फ संगठन चुनाव जीतने की गारंटी होता तो भाजपा कभी चुनाव न हारती क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बड़ा देश में कोई संगठन नहीं है। फिर भी भाजपा चुनाव हारती है। नेता और नीतियों को जब संगठन की ताकत मिलती है तो जीत हासिल होती है। भाजपा कांग्रेस की नीतियों को गलत बता रही है पर देश की समस्याओं के हल के लिए कोई वैकल्पिक नीति उसके पास नहीं है। उसका नेता कौन है यह शायद संघ को भी पता नहीं है।


लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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