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भारत की कूटनीतिक परीक्षा

जागरण मेहमान कोना
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Harsh Pantईरान के खिलाफ पश्चिमी जगत की सख्ती पर भारत और चीन की प्रतिक्रिया का विश्लेषण कर रहे हैं हर्ष वी. पंत


पश्चिमी जगत और ईरान के बीच तनाव बढ़ने के साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय पूर्व की उभरती शक्तियों-भारत और चीन की ओर उत्सुकता से देख रहा है ताकि मध्य-पूर्व में सही शक्ति संतुलन स्थापित करने की कोई राह निकाली जा सके। चीन की प्रतिक्रिया ईरान के खिलाफ प्रतिबंध लगाने के पश्चिमी जगत के आग्रह को खारिज करने के रूप में सामने आई है। यह भी उल्लेखनीय है कि बीजिंग सऊदी अरब के साथ नागरिक नाभिकीय ऊर्जा सहयोग के एक समझौते पर हस्ताक्षर भी किए हैं। यह इस क्षेत्र में चीन का मानक कूटनीतिक व्यवहार है। वह हर मसले पर सभी संबंधित पक्षों के साथ शामिल नजर आता है, भले ही वे आपस में विपरीत ध्रुव पर क्यों न खड़े हों। सऊदी अरब और ईरान के संदर्भ में उसके रवैये से इसकी पुष्टि होती है। ईरान के मसले पर भारत की प्रतिक्रिया बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आई है, यद्यपि नई दिल्ली खुद को तैयार कर रही है।


पेट्रोलियम मंत्री एस. जयपाल रेड्डी ने कहा भी है कि भारत को हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। इस सिलसिले में भारत ईरान से होने वाली तेल आपूर्ति को अन्य स्थानों से प्राप्त करने पर विचार कर रहा है। सऊदी अरब ऐसा ही एक विकल्प है। भारत ईरान पर अमेरिका और यूरोपीय संघ के एकतरफा प्रतिबंधों के दृढ़ विरोध के अपने रुख पर कायम है। अटकलें इस बात पर भी लगाई जा रही हैं कि अमेरिका तुर्की को इस पर राजी करने की कोशिश कर रहा है कि वह कच्चे तेल की आपूर्ति के लिए ईरान को किए जाने वाले भुगतान के लिए अपने बैंक का इस्तेमाल न होने दे। इसके साथ ही भारत ईरान के साथ मिलकर ऐसी राह निकालने की भी कोशिश कर रहा है कि उसे तेल की अबाधित आपूर्ति होती रहे। यह मसला इसलिए गंभीर होता जा रहा है, क्योंकि अमेरिका ईरान के खिलाफ कड़े कदम उठाने के लिए तैयार है और इस सिलसिले में वह जापान और दक्षिण कोरिया पर अपने प्रभाव का भी इस्तेमाल कर रहा है ताकि तेहरान को पूरी तरह अलग-थलग किया जा सके। भारत अपने कुल तेल आयात का 12 प्रतिशत ईरान से मंगाता है। भारत को इससे अधिक आपूर्ति केवल सऊदी अरब द्वारा की जाती है। प्रणब मुखर्जी ने बिना लागलपेट यह स्पष्ट भी कर दिया है कि भारत के लिए यह संभव नहीं है कि वह ईरान से अपने तेल आयात में नाटकीय रूप से कमी कर दे।


इसमें संदेह नहीं कि ईरान पश्चिमी जगत द्वारा उस पर थोपे गए कई दौर के आर्थिक प्रतिबंधों की मार झेल रहा है। उसकी अर्थव्यवस्था मुद्रा के संकट के कारण लड़खड़ा रही है। अमेरिका द्वारा उसके केंद्रीय बैंक पर एकतरफा प्रतिबंध लगा देने के बाद ईरानी मुद्रा रियाल डालर के मुकाबले अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गया है। ईरान वर्षो से यह दावा करता रहा कि उस पर आर्थिक प्रतिबंधों का कोई असर नहीं पड़ रहा है, लेकिन हाल के घटनाक्रम के बाद ईरानी सरकार की विश्वसनीयता को आघात पहुंचा है। परेशानी तो अभी शुरू भर हुई है, क्योंकि ईरानी तेल पर प्रतिबंध लगाने वालों में यूरोपीय संघ भी शामिल हो गया है। खाड़ी के अरब देशों ने यह कहने में देर नहीं लगाई कि ईरानी तेल पर प्रतिबंध लगाने वाले देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए वे एकदम तैयार हैं। ईरान के नाभिकीय मसले पर भारत का रुख एकदम स्पष्ट है। यद्यपि भारत यह मानता है कि ईरान को नागरिक नाभिकीय ऊर्जा विकसित करने का अधिकार है, लेकिन वह यह भी चाहता है कि ईरान नाभिकीय अप्रसार संधि के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के संदेहों का निवारण भी करे। भारत लंबे समय से यह कह रहा है कि वह आगे नाभिकीय प्रसार को कतई अपने हितों के अनुकूल नहीं मानता है। भारत खुद को जिम्मेदार नाभिकीय शक्ति के रूप में प्रस्तुत करने के साथ यह महसूस करता है कि यदि उसके आसपास नाभिकीय प्रसार होता है तो खुद उसकी सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। भारत 2006 से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा ईरान पर लगाए गए सभी प्रतिबंधों का समर्थन कर रहा है, लेकिन काफी कुछ बीजिंग और मास्को की तरह वह यह भी महसूस करता है कि इन प्रतिबंधों से ईरान की जनता को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। स्पष्ट है कि वह देशों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर लगाए जाने वाले प्रतिबंधों की पक्षधरता नहीं करता।


भारत ईरानी ऊर्जा क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को बढ़ाना चाहेगा, क्योंकि न केवल उसकी ऊर्जा जरूरतें तेजी से बढ़ रही हैं, बल्कि तेहरान उसके लिए अन्य कारणों से भी महत्वपूर्ण है। न केवल पाकिस्तान ने ईरान के साथ पाइपलाइन समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, बल्कि चीन भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश कर रहा है। चीन अब ईरान का सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी है और वह वहां बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। उसका मकसद पश्चिमी जगत द्वारा रिक्त किए गए स्थान पर अपने पैर जमाना है। एक ओर जहां ईरान के साथ बीजिंग का तालमेल बढ़ रहा है वहीं भारत की ईरान में उपस्थिति सिकुड़ रही है। कुछ भारतीय कंपनियों ने संभवत: पश्चिमी दबाव में ईरान से अपना कारोबार समेटना शुरू कर दिया है और कुछ अन्य ने निवेश की अपनी योजनाएं छोड़ दी हैं। अपनी वैश्विक जिम्मेदारी को लेकर चीन में बहस तेज होती जा रही है। बहस का विषय यह है कि चीन किस तरह एक जिम्मेदार वैश्विक ताकत बन सकता है?


यूरोपीय संघ के प्रतिबंधों के मामले में चीन ने जिस जोरदारी के साथ न कहा उससे यह पता चलता है कि वह इस मसले पर पश्चिमी जगत के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं। इस समय चीन की प्राथमिकता उसकी ऊर्जा जरूरतें हैं और वह अपना सारा ध्यान तेल आपूर्ति सुनिश्चित करने पर लगाए हुए है। बीजिंग किसी भी तरह अपने ऊर्जा समीकरणों में ईरान की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं है। लिहाजा नाभिकीय मसले पर पश्चिमी जगत के साथ सहयोग उसके एजेंडे में नहीं है। अक्सर पश्चिमी जगत यह भी भूल जाता है कि एनपीटी पर हस्ताक्षर करने से पहले चीन सबसे अधिक नाभिकीय प्रसार करने वाले देशों में शामिल था। ऊर्जा की चीन की चाहत किसी से छिपी नहीं और ईरान तेल तथा प्राकृतिक गैस का एक बड़ा स्त्रोत है। जाहिर है, इन दोनों देशों के बीच निकटता कायम होना स्वाभाविक है। चूंकि भारत पर ईरान के मुद्दे को लेकर दबाव बढ़ रहा है इसलिए नई दिल्ली इस मामले में बीजिंग की राह का अनुसरण करने पर विचार कर सकती है। चीन संतुलन की राजनीति का एक माहिर खिलाड़ी है और नि:संदेह भारत उससे एक या दो सबक सीख सकता है।


लेखक हर्ष वी. पंत लंदन के किंग्स कालेज में प्राध्यापक हैं


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