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राज्यों पर टिकी विदेश नीति

जागरण मेहमान कोना
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Uday Bhaskarदक्षिण एशियाई देशों के साथ संपर्क में राज्यों की भूमिका का महत्व रेखांकित कर रहे हैं सी. उदयभाष्कर


इस सप्ताह विदेश मंत्री एसएम कृष्णा और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने भारत के आसपास के देशों और उनसे संबंधित विदेश नीति की चुनौतियों का जिक्र किया और स्वाभाविक रूप से दक्षिण एशियाई पड़ोस पर उनका विशेष ध्यान रहा। इसी दौरान घरेलू राजनीतिक मोर्चे पर राज्यों के महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों पर सभी की निगाहें लगी रहीं, जिनमें सबसे अधिक ध्यान उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी और अखिलेश यादव के मुकाबले पर था। भारत की क्षेत्रीय विदेश नीति की सफलता और विश्वसनीयता काफी कुछ इस बात पर आधारित हो रही है कि संबंधित राज्यों का राजनीतिक रुख क्या है? संक्षेप में कहें तो भारत की विदेश और साथ ही सुरक्षा नीति [विशेषकर दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों से संबंधित नीति] हाल तक दिल्ली की केंद्र सरकार की अकेले जिम्मेदारी रही है, लेकिन अब इसके ताने-बाने को फिर से बुनना होगा ताकि राज्यों की राजधानियों से मिलने वाली सूचनाओं के लाभ को दूसरे देशों के साथ होने वाले संपर्क में समाहित किया जा सके। मुद्दा यह है कि एक ऐसे समय जब असहज गठबंधन भारत की घरेलू राजनीति में हावी बने रहेंगे और दोनों ही राष्ट्रीय दल-कांग्रेस और भाजपा क्षेत्रीय नेताओं पर निर्भर हैं तब नई दिल्ली को एक सफल दक्षिण एशियाई विदेश नीति का आधार तैयार करने के लिए संबंधित राज्यों की राय को महत्व देना होगा ताकि उनके हितों और विशेषज्ञता के आधार पर पड़ोसियों के साथ अपने संबंध तय किए जा सकें।


सिंगापुर में नौ मार्च को भारत का वाच् वातावरण और मौजूदा विदेश नीति विषय पर बोलते हुए विदेश मंत्री ने कहा कि पिछले दो दशक में हमारे महाद्वीप में सबसे बड़ा घटनाक्रम यह हुआ कि एशिया की एकजुटता नए सिरे से मजबूत हुई है। यह काफी कुछ संप्रग सरकार के रिपोर्ट कार्ड जैसा है, जिसने 2004 में केंद्र की सत्ता संभाली थी। कुल मिलाकर कृष्णा ने मनमोहन सिंह के उस दृष्टिकोण पर ही बल दिया जिसके तहत प्रधानमंत्री ने एक ऐसे क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण की कल्पना की है जो एशियाई देशों में बैरभाव और अस्थिर राजनीतिक संबंधों पर विजय पाने में सफल होगा। विदेश मंत्री ने यह भी स्पष्ट किया कि भारत किस तरह ऐसी नीति पर अमल कर रहा है जिससे पड़ोसी देशों की उसके बाजार में ज्यादा पहुंच हो सके और वे पारस्परिक लाभ के लिए आर्थिक रूप से एक-दूसरे से जुड़ें। उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह आज के समय हमारी विदेश नीति की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है।


लगभग इसी लाइन को दोहराते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने 9 मार्च को आइसीडब्लूए द्वारा बदलता दक्षिण एशिया विषय पर आयोजित एक सम्मेलन में दक्षिण एशियाई क्षेत्र में राजनीतिक और आर्थिक संबंधों के असंतुलन की ओर ध्यान खींचा। उन्होंने दक्षिण एशियाई देशों के विशेषज्ञों का आज्जान किया कि वे अपना ध्यान इस चुनौती की ओर लगाएं। मेनन ने उन्हें यह कहकर उत्साहित किया कि इस उपक्षेत्र के लिए वे एक सहयोगात्मक सुरक्षा ढांचा बनाने के बारे में सोचना शुरू करें और यह भी बताएं कि उन्हें सफल बनाने के लिए किस तरह की स्थितियों की आवश्यकता होगी? हमारे सामने आतंकवाद, समुद्री सुरक्षा, साइबर सुरक्षा जैसे अनेक मसले हैं जो सामूहिक समाधानों की मांग करते हैं। मेनन ने कहा कि इसी दौरान हमें आपस में बेहतर संपर्क स्थापित करने की दिशा में तेजी से प्रयास करने होंगे। संपर्क में ऊर्जा और ग्रिड कनेक्टिविटी, पर्यटन, व्यक्ति से व्यक्ति का जुड़ाव, व्यापार और आर्थिक संबंध शामिल हैं। इनकी मदद से हम अपने भविष्य को सुधारने में व्यापक योगदान दे सकते हैं। यह सब सत्य है, लेकिन मनमोहन सिंह अपने हाल के अनुभव से जानते होंगे कि उनकी बांग्लादेश यात्रा द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से ऐतिहासिक यात्रा बन सकती थी यदि पश्चिम बंगाल की नवनिर्वाचित मंत्री ममता बनर्जी ने नदी जल के बंटवारे के मुद्दे पर अपने रुख से अड़ंगा न लगाया होता। यहां इरादा यह सिद्ध करना नहीं है कि ममता बनर्जी ने जो रुख अपनाया वह सही था या गलत, लेकिन यह तो स्पष्ट है ही कि नई दिल्ली के लिए जब भी दूसरे देशों से द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने की बात आएगी तो उसे संबंधित राज्यों से कहीं अधिक व्यापक और सार्थक बातचीत करने की आवश्यकता होगी।


पश्चिम बंगाल-बांग्लादेश संपर्क का मसला कृष्णा और मेनन की बात के सभी पहलुओं को भलीभांति समझने के लिए उपयोगी अवसर उपलब्ध कराता है। मसला बेहतर संपर्क का है-फिर वह चाहे सड़क हो, रेल या समुद्री संपर्क जिसमें नदियां भी शामिल हैं। इस तरह का संपर्क ही पूरे क्षेत्र में संपन्नता बढ़ाने के साथ मानव सुरक्षा सूचकांक को बेहतर बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगा। इसका व्यापक लाभ उत्तर-पूर्व के राज्यों को भी मिलता।


कोलकाता-ढाका-यांगून परिवहन लिंक एक अन्य उदाहरण है जो संपन्नता की राह खोल सकता है, लेकिन इस सपने को साकार करने के लिए कोलकाता को आगे आना होगा। इस लिहाज से नेपाल और भूटान के साथ संबंधों के मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार की विशेष भूमिका है, लेकिन जब तक लखनऊ और पटना इस मामले में नई दिल्ली के साथ मिलकर नहीं खड़े होंगे तब तक इन देशों के साथ विदेश नीति के उद्देश्यों को पूरा करना लगभग नामुमकिन ही है। स्पष्ट है कि सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि राज्य विदेश नीति के मसलों पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के प्रति जागरूक हों और नई दिल्ली के साथ सहयोग करने के लिए प्रस्तुत हों-न केवल विधायी रूप से, बल्कि अपने अधिकारियों के स्तर पर भी।


लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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