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यहां पीडि़ता पर उठती है उंगली

जागरण मेहमान कोना
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देश की राजधानी दिल्ली में दुष्कर्म पीडि़ताओं को मुआवजा नहीं मिल पाने पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए इस संबंध में समुचित कदम उठाने के लिए दिशा-निर्देश जारी किया है। पिछले दिनों रोहिणी के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के सामने आए एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान यह बात सामने आई। इस बारे में दिल्ली उच्च न्यायालय की तरफ से भी ऐसे लोगों की सहायता के लिए क्षतिपूर्ति योजना लागू करने के संबंध में अदालती आदेश राज्य सरकार को पहले दिया जा चुका है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए अदालत ने तत्काल यह आदेश दिया कि पीडि़ता के परिवार को एक लाख रुपया अंतरिम मुआवजे के तौर पर दिया जाए। इसके अलावा अदालत ने दिल्ली सरकार की उदासीनता पर तीखे प्रहार किए और कहा कि महिला व बाल विकास विभाग को ऐसे जरूरतमंद लोगों की हर तरह से मदद के लिए आगे आने की जरूरत है। वैसे मामला तब चर्चा में आया जब न्यायालय के सामने एक महिला ने यह अर्जी लगाई कि वह अपनी बेटी के साथ हुए यौन अत्याचार के मामले को आगे नहीं लड़ना चाहती। यह जानते हुए भी कि अपराधी के खिलाफ पक्के सबूत थे, कुछ समय के लिए समूची अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायाधीश महोदय द्वारा इसकी वजह पूछे जाने पर कि वह मां ऐसा क्यों सोचती है? तब उसने अपनी आपबीती जो कहानी सुनाई उसे सुनकर वहां एकत्रित सभी लोगों का दिल पसीज गया।


गौरतलब है कि पांच साल पहले विकासपुरी के किसी विक्की सेन ने उस महिला की 14 साल की लड़की के साथ दुष्कर्म किया और उसके बाद से ही परिवार पर कहर बरपाना शुरू हो गया। जांच प्रक्रिया से आजिज आकर लड़की ने बताया कि पुलिस वाले उस प्रसंग को बार-बार उससे पूछते थे और उसे इस बात के लिए टोकते थे कि उस वक्त ही वह बाहर क्यों निकली थी? एसिड पीकर आत्महत्या की कोशिश करने के बाद उसे कृत्रिम आहार नली लगाई गई। पीडि़ता आज भी पूरी तरह स्वस्थ नहीं है और वह ठीक से बोल भी नहीं पाती है। इस घटनाक्रम से क्षुब्ध मगर बेबस पिता को दो बार दिल का दौरा पड़ा। परिवार की माली हालत इस कदर खराब हो गई कि मकान तक बेचना पड़ा तथा इन दिनों महिला दूसरों के घरों में नौकरानी का काम कर परिवार का भरण-पोषण कर रही है। निश्चित ही दुष्कर्म पीडि़तों के साथ ऐसे असंवेदनशील व्यवहार का यह कोई पहला किस्सा नहीं है। कुछ समय पहले ही खबर आई थी कि किस तरह यौन अत्याचार पीडि़तों के लिए अनिवार्य घोषित की गई डीएनए जांच को भी अंजाम नहीं दिया जा रहा है।


राजधानी दिल्ली के आंकड़े थे कि पीडि़तों में से बहुत कम लोगों की डीएनए जांच कराई गई। दुष्कर्म पीडि़तों की जांच में बरती जा रही लापरवाही और इस दौरान प्रकट होते पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह के मसले अक्सर बहस का मुद्दा बनते हैं, लेकिन स्थिति में बदलाव लाने की बजाय इसे एक सामान्य घटना मान लिया जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बलात्कार एक मात्र ऐसा अपराध है, जहां पीडि़त को ही आमतौर पर कठघरे में खड़ा किया जाता है। लंबी कानूनी प्रक्रिया के चलते वह भी मामले में रुचि खो देता है। ऐसे मामलों में त्वरित अदालतें कायम करने की बात भी अभी नीतिगत स्तर पर मंजूर नहीं की जा सकी है। पिछले ही साल ह्यूमन राइट्स वॉच नामक संगठन द्वारा तैयार रिपोर्ट डिग्निटी ऑन ट्रायल जो यौन अत्याचार पीडि़तों के परीक्षण में संतुलित पैमाने बनाने की जरूरत पर केंद्रित है प्रकाशित हुई। यौन अत्याचार अन्वेषण के तरीकों में मौजूद मध्ययुगीन पैमानों को उजागर करती रिपोर्ट ने इस विचलित करने वाले तथ्य को पेश किया कि किस तरह आज भी अदालती फैसलों या उसकी पूर्वपीठिका बनती अदालती कार्रवाइयों में पीडि़ता के चाल-चलन या उसके यौनिक अनुभव का मसला परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उठता रहता है। तीस साल पहले इस संदर्भ में लंबे संघर्ष के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने जरूरी दिशा-निर्देश दिए थे। इतना ही नहीं पीडि़ता की मेडिकल जांच के नाम पर आज भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है, जिसके तहत डॉक्टर पीडि़ता के यौनांग की जांच करके यह प्रमाणपत्र जारी करता है कि वह सहवास की आदी थी या नहीं और इस प्रमाणपत्र को बाद में मुकदमे के दौरान एक प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।


ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट जारी होने के पहले दिल्ली की अदालत के सामने उपस्थित एक मामले में यह मसला चर्चा में आया था। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लॉ को साफ करना पड़ा था कि यौन हिंसा के मामलों की सुनवाई में इस किस्म का परीक्षण -जिसे पीवी परीक्षण कहा जाता है अप्रासंगिक है। एक महिला के साथ यौन अत्याचार के मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने यह बात कही थी और साथ ही साथ यह भी बताया कि इस आदेश की प्रतियां दिल्ली पुलिस आयुक्त को भेजी जानी चाहिए ताकि वह पुलिस अधिकारियों का ध्यान इस दिशा में खींच सके। अदालत का साफ मानना था कि पीडि़ता का फिंगर टेस्ट दरअसल उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है। लगभग 27 साल पहले दुष्कर्म कानूनों में संशोधनों के लिए एक अहम कोशिश हुई थी। एक आदिवासी युवती मथुरा दुष्कर्म कांड में सुप्रीमकोर्ट ने तीस साल पहले एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था, जिसके बाद दुष्कर्म पीडि़ताओं के निजी इतिहास की बात करना अनुचित एवं गैर जरूरी माना गया।


1983 में सामने आए संशोधनों के बाद जब नया कानून बनाया गया तो उसमें ऐसे संवेदनशील पहलुओं के प्रति पर्याप्त सतर्कता बरती गई। इसके अलावा हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जिस तरह दुष्कर्म के बाद पीडि़ता के सामाजिक बहिष्कार की स्थिति बनती दिखती है, उसे मद्देनजर रखते हुए ही सर्वोच्च न्यायालय ने पीडि़ता की पहचान को गोपनीय रखने पर जोर दिया था। यौन अत्याचार पीडि़तों की जांच में प्रयुक्त अपराध चिकित्सा (फॉरेंसिक साइंस) के तौर तरीकों की दयनीय एवं भयानक स्थिति की चर्चा करने वाली सेवाग्राम के मेडिकल कॉलेज में कार्यरत डॉक्टर इंद्रजीत खांडेकर की बेहद चर्चित रिपोर्ट पीटिएबल एंड हारेंडस क्वॉलिटी ऑफ फोरेंसिक मेडिकल एक्जामिनेशन ऑफ सेक्सुअली असाल्टेड विक्टिम्स ने कुछ समय पहले इस संबंध में अहम सुझाव दिए थे। फोरेंसिक परीक्षण को बेहतर बनाने के लिए उसने नए नियमों की भी सिफारिश की थी। मालूम हो कि प्रोफेसर खांडेकर द्वारा तैयार सिफारिश पीडि़त महिलाओं के राय को अधिक तवज्जो देते हैं। वह इस संभावना को भी मद्देनजर रखते हैं कि किन्हीं दबाव में या प्रलोभन में आकर पीडि़त द्वारा अपने बयान से मुकर जाने की स्थिति में भी रिकॉर्ड में दर्ज अन्य सुबूत उत्पीड़क को दंडित करने में कामयाब हो सकें। बंबई उच्च न्यायालय के नागपुर पीठ के समक्ष प्रस्तुत इस रिपोर्ट के बाद अदालत की तरफ से महाराष्ट्र सरकार को बताया गया है कि वह इन नियमों को अस्पतालों एवं पुलिस थानों में भेजें और इस बारे में संपन्न कार्रवाइयों के बारे में अदालत को भी सूचित करे।


लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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