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वर्तमान में भारत में आतंकवाद से मुकाबले के लिए मीडिया की एक बड़ी भूमिका है। शायद ही किसी ने आतंकवाद का मुकाबला करने में मीडिया की भूमिका पर गौर किया हो। आतंकवाद या जिहादी रूप वाले सुपर आतंकवाद का जन्म पाकिस्तान में हुआ है और यह न केवल फैल रहा है, बल्कि विशाल भी हो रहा है। पाकिस्तान आतंकवाद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ सरकारी नीति के तौर पर करता आ रहा है। ऐसे में आतंकवाद के दानव का सामना करने में मीडिया की भूमिका सर्वोपरि हो जाती है। वैश्वीकरण, उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर में मीडिया का स्वरूप नाटकीय रूप से बदला है। आज निजी टीवी चैनलों और अखबारों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है जबकि पहले सूचनाएं या तो छिपा ली जाती थीं या उसे कल्पना की उड़ान बता दिया जाता था।
आज खोजी पत्रकारिता और मीडिया के दूसरे माध्यमों के जरिये सूचनाएं आसानी से सभी को उपलब्ध हैं। ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी बनती है कि वह आतंकवाद के खतरनाक पंजे से देश को बचाने के इरादे से काम करे। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया सेना और सरकार का मनोबल बढ़ाने और जनमत तैयार करने वाले साधन के रूप में काम कर सकती है। ऐसी स्थिति में मीडिया को राज्यतंत्र के पक्ष में दिखना चाहिए। मीडिया को चाहिए कि वह गड़े मुर्दे उखाड़ने पर कम ध्यान दे। सभी प्रणालियों को चाहे वे निजी हो या सरकार के नियंत्रण वाली, उन्हें समान रूप से देखा जाना चाहिए। ऐसा होने पर ही आतंकवाद के खिलाफ मनोवैज्ञानिक लड़ाई जीती जा सकती है। दूसरे, जैसा कि 26/11 के मुंबई हमले के दौरान हुआ, मीडिया को घटनाओं को सनसनीखेज बनाने से बचना चाहिए। मीडिया कवरेज से आतंकवादी सरगनाओं को पल-पल की जानकारी मिली जिसका भरपूर फायदा उन्होंने उठाया।
उदाहरणार्थ जब एनएसजी के कमांडो को हेलीकाप्टरों से उतारा जा रहा था तो उसे दिखाने की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन ऐसा किया गया, क्योंकि टीवी चैनलों को रेटिंग की होड़ थी कि कहीं वे दूसरे से पिछड़ न जाएं। जबकि देशहित और सैनिकों की जान की रक्षा को देखते हुए इससे बचा जाना चाहिए था। इसके अलावा मीडिया की मुख्य भूमिका आतंकवाद विरोधी अभियानों के बाद घटनाओं का पोस्टमार्टम करने के लिए होता है। देश में अधिकांश टीवी चैनलों और अखबारों के अपने आंतरिक सुरक्षा संपादक या सामरिक मामलों के संपादक होते हैं। कोई अभियान पूरा होने के बाद इस बात पर विचार किया जा सकता है कि क्या किया जाना चाहिए था और क्या नहीं। आतंकवाद का मुकाबला करने के विभिन्न पहलुओं पर भी चर्चा हो सकती है, क्योंकि इससे आतंकवाद का मुकाबला करने के बेहतर तरीके और साधन तय करने में मदद मिल सकती है। ऐसा भी देखा गया है कि तथाकथित मानवाधिकार सरोकारों को मुखर करके मीडिया, दर्शकों-श्रोताओं को लुभाने की कोशिश करते हैं।
मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिए, लेकिन इस पर भी विचार होना चाहिए कि जिन मानवाधिकारों की चर्चा की जा रही है, क्या वह देश की प्रभुसत्ता और अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण हैं। उन मासूमों, स्ति्रयों और बच्चों के मानवाधिकारों का क्या जिन्हें आतंकवादी बड़ी बेरहमी से कुचल देते हैं? इसलिए मीडिया से संतुलन की अपेक्षा करना गलत नहीं होगा। मीडिया को ऐसे मामलों को उजागार करते समय अनुकूल माहौल बनाने वाली संस्था के रूप में नजर आना चाहिए और पूरे मामले की गहराई से पड़ताल करनी चाहिए और वह भी सनसनीखेज बनाए बिना। मीडिया का कर्तव्य है कि वह सरकार को याद दिलाए कि सशस्त्र विद्रोह को हवा कैसे मिली? यदि उग्रवाद, अलगाववाद उत्तरपूर्व में अपना पैर पसार रहा है तो इसका कारण विकास का अभाव और भेदभाव है।
लेखक बिकास सरमाह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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