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आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है, जब किसी सेनाध्यक्ष का पत्र इस तरह लीक हुआ हो। पत्र का सार्वजनिक होना एक अलग और गंभीर मुद्दा है, लेकिन पूरे मामले को देश की सुरक्षा और सामरिक महत्व के बजाय राजनीतिक चश्मे से देखना उससे भी गंभीर चिंता का विषय है। हमारे राजनेता और नीति निर्धारक पत्र में गिनाई गई सेना की खामियों और जरूरत पर मंथन करने तथा सुधार के तत्काल कदम उठाने के बजाय सेनाध्यक्ष को लक्ष्य बनाकर उनकी बर्खास्तगी पर ज्यांदा जोर दे रहे हैं। थलसेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह वर्तमान में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी और 13 लाख से भी अधिक सैनिकों वाली सेना के कमांडर हैं। वैसे तो अप्रैल 2010 में सेनाध्यीक्ष का पद संभालने के बाद से ही उनका कार्यकाल विवादों से भरा रहा है, लेकिन उनकी निष्ठा, ईमानदारी, सैनिक कर्तव्य तथा नेतृत्वक क्षमता पर शक नहीं किया जा सकता। बीते कार्यकाल में थल सेनाध्यक्ष के तौर पर हो सकता है कि उन्होंने सेना की छवि को और गरिमामयी तथा मौजूदा हालात के हिसाब से ताकतवर बनाने का मंसूबा पाल रखा हो और इसमें सफल न रहने पर उन्हें प्रधानमंत्री को पत्र लिखने को विवश होना पड़ा हो। इस सवाल की तह में जाने की जरूरत है।
जनरल सिंह ने अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र में सेना की मौजूदा हालत की बात लिखी है तो यह कोई अपराध तो नहीं। भारतीय सेना को ताकतवर तथा क्षमतावान बनाने की जनरल सिंह की मंशा को सकारात्मोक रूप में लिया जाना चाहिए। पूर्व सैन्य अधिकारी भी मान रहे हैं कि थलसेना अध्यक्ष का इस तरह पत्र लिखना सामान्य-सी बात है। ऐसा पहले भी होता रहा है। यदि जनरल सिंह ने रक्षा मंत्रालय के बजाय सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया है तो उसके पीछे की भावना भी महसूस की जानी चाहिए। यह भी जांच का विषय है कि ऐसी वह कौन-सी बात थी कि उन्हें इस प्रकार का कदम उठाने को मजबूर होना पड़ा। हमारे देश की लालफीताशाही किसी से छिपी हुई नहीं है। महत्वपूर्ण पत्र तथा फाइलें इसी लालफीताशाही के कारण धूल फांकती आई हैं। हो सकता है कि जनरल सिंह ने पत्र में अपनी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा हो या यह भी हो सकता है कि उनकी कुछ बातों में सच्चाई न हो, लेकिन इसके बावजूद सेना के अध्यक्ष जैसे पद पर आसीन व्यक्ति के पत्र पर राजनीति करने के बजाय उसमें उठाए गए बिंदुओं को सामरिक महत्व से जोड़कर देखने की जरूरत है। थल सेनाध्यक्ष अगर खुद ऐसा पत्र लिखने को विवश है तो यह मामला और भी अहम हो जाता है।
सेना में किस सामग्री की कमी है, सेना को किस किस्म के सुधारों की जरूरत है और उसे ताकतवर कैसे बनाया जा सकता है, यह भला सेनाध्यक्ष से बेहतर कौन बता सकता है। यहां हमें इस बात का भी रखना होगा कि थल सेनाध्यक्ष पद पर पहुंचने के लिए लेफ्टिनेंट से लेकर 30-32 साल तक विभिन्न पदों की जिम्मेदारी का सफलतापूर्वक निर्वाह करना होता है। एक सैनिक को सीमा की सुरक्षा के साथ ही देश के भीतर बाढ़ और भूकंप जैसी आपदाओं और आंतरिक गड़बडि़यों से निपटने में अपना योगदान देना होता है। हजारों सैन्य अधिकारियों में से भी उत्कृष्ट रिकॉर्ड और दूरदृष्टि तथा असाधारण नेतृत्व क्षमता वाला ही व्यक्ति ही इस पद पर सुशोभित होने का अवसर पाता है। इसके विपरीत विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता जनरल सिंह के पत्र को सामरिक दृष्टिकोण से नहीं, राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं।
थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने अगर सेना में गोला-बारूद या आधुनिक अस्त्र-शस्त्र की कमी के बारे में लिखा है तो इस बात पर चिंता व्यक्त करने और कमियों को तत्काल दूर करने के उपाय करने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के बजाय राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। सेना लंबे अरसे से हल्के, लेकिन कारगर हथियारों के साथ-साथ नाइट विजन उपकरणों की कमी से जूझ रही है। इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। मीडिया के जरिये गला साफ करने वालों को कम से कम यह पता होना चाहिए कि वर्तमान में युद्ध सिर्फ सैनिकों की संख्या बल के आधार पर नहीं, बल्कि आधुनिक हथियारों के दम पर लड़े और जीते जाते हैं। युद्ध या युद्ध जैसी कार्रवाइयां आमतौर पर रात के अंधेरे में ही अंजाम दी जाती हैं। इसलिए नाइट विजन उपकरणों का होना अत्यंत आवश्यक है। बहरहाल, यह चिंता का विषय है कि थल सेनाध्यक्ष की बात समझने के बजाय उनकी बर्खास्तगी की मांग उठ रही है।
इस आलेख के लेखक मोहन राजपूत हैं
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