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अंग्रेजी के पत्रकार आधुनिकता के अंध पुजारी मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव को आधुनिक और प्रगतिशील बता रहे हैं, क्योंकि अखिलेश यादव अंग्रेजी का समर्थन करते हैं। मुलायम सिंह पुराने ढर्रे के समाजवादी हैं। उनके राजनीतिक गुरु राममनोहर लोहिया शिक्षा, संसद, न्यायपालिका तथा सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी के इस्तेमाल का उग्र विरोध करते थे। मुलायम सिंह का वह राजनीतिक संस्कार अब भी कायम है। लोहियाई समाजवाद की और कितनी बातें मुलायम सिंह को याद हैं, पता नहीं। यह भी पता नहीं कि मुलायम सिंह अब समाजवाद को किस तरह से परिभाषित करते हैं। सच तो यह है कि मुलायम सिंह को जब भी समाजवादी नेता कहा जाता है, तब मैं चौंक जाता हूं, क्योंकि उनके राजनीतिक दर्शन को सामने रखकर युवा पीढ़ी को यह समझा पाना असंभव है कि देखो, समाजवाद यह है। अच्छा हो कि नई चीजों को पुराने नामों से न पुकारा जाए। फिर भी मुलायम सिंह बधाई के पात्र हैं कि उन्हें अपनी पुरानी प्रतिबद्धताओं में ये दो चीजें अच्छी तरह याद हैं-अंग्रेजी का विरोध और बेकारी भत्ता।
समाजवादी पार्टी के स्टार प्रचारक अखिलेश यादव नए जमाने के नौजवान हैं। मुलायम सिंह भी कभी नौजवान थे। तब उनकी नौजवानी का एक पहलू अंग्रेजी के बहिष्कार में प्रगट होता था, लेकिन आज की नौजवानी अंग्रेजी की मुरीद है। वह घर-बाहर चारों ओर अंग्रेजी ही अंग्रेजी देखना चाहती है। अखिलेश यादव भी इसी पीढ़ी के हैं। इसलिए वह समाजवादी पार्टी की परंपरागत नीति की उलटी दिशा में तैर कर अंग्रेजी का समर्थन करते हैं तो यह एक स्वाभाविक बात है। यह हमारे समय का यथार्थवाद है। वास्तविकता यही है कि सभी दलों की नई पीढ़ी अंग्रेजीपरस्त है। सभी सरकारें-भाजपा जिसके हिंदूवाद में अंग्रेजीवाद घरेलू स्तर पर घुला हुआ है और माकपा जिसका जनवाद अंग्रेजी से पूर्ण तादात्म्य बैठाए हुए है की सरकारें आज के युवाओं की रुचि और उनकी आवश्यकता को समझते हुए अंग्रेजी को आगे बढ़ाने की पक्षधर हैं। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि देशी भाषाओं में काम करने की वकालत करने वाले हास्यास्पद साबित हो रहे हैं और उन्हें आज की पीढ़ी के बीच उलटी खोपड़ी का माना जाता है। यथार्थत: वे लोग आज उलटी खोपड़ी के हैं भी जो बाकी सब कुछ यथावत रखते हुए सिर्फ अंग्रेजी का विरोध कर रहे हैं। अंग्रेजी का विरोध समाजवादी पैकेज का मात्र एक तत्व था।
हालांकि अंग्रेजी ने सतही स्तर पर भारत का जितना भला किया है, लेकिन गहरे स्तर पर जितना नुकसान किया है उसे देखते हुए कोई सिर्फ अंग्रेजी हटाओ आंदोलन ही चलाना चाहता है तो हमें उसका शुक्रगुजार होना पड़ेगा। कारण अंग्रेजी के जाते ही बहुत-सी अनैतिक सत्ताएं भी औंधे मुंह जमीन पर आ गिरेंगी, लेकिन यह आंदोलन आज के माहौल में चल नहीं सकता। शहर के लोगों को अंग्रेजी हटाने की मांग मूर्खतापूर्ण ही नहीं, किसी आदिवासी समूह की तानाशाही जैसी लगेगी जो प्रगति के सभी रास्तों को ठप कर देना चाहता है। कस्बों और गांवों के लोगों को लगता है कि आज अंग्रेजी ही सब उन्नति को मूल है इसलिए जो उन्हें अंग्रेजी पढ़ने से बहकाता है वह उनका दुश्मन है, क्योंकि वह उन्हें पिछड़ा का पिछड़ा बनाए रखना चाहता है। इन दोनों धारणाओं के पीछे ठोस हकीकतें हैं। आज जो अंग्रेजी नहीं जानता उसकी हैसियत बौद्धिक समाज में अछूत जैसी ही है। इसलिए आज के माहौल में अंग्रेजी विरोध की मुहिम को चलाने के लिए भी अंग्रेजी का समर्थन करना जरूरी है। इसलिए मैं अखिलेश यादव के अंग्रेजी समर्थन का विरोध करने नहीं जा रहा हूं। अखिलेश यादव चाहें तो और न चाहें तो, अंग्रेजी का वर्तमान बर्बर विजय जुलूस किसी के भी रोकने से रुकने वाला नहीं है। इसलिए जो मूलभूत परिवर्तन की राजनीति नहीं करेगा, वह अंग्रेजी का समर्थन नहीं करेगा तो वह मारा जाएगा।
आज का समय लोहिया के समय के कई मायनों में अलग है। तब का युवा देश के भीतर ज्यादा से ज्यादा मेट्रों शहरों की सोचता था, लेकिन आज का युवा सात समंदर पार नौकरी की सोचता है और यह प्रवृत्ति किसी एक युवा की नहीं लाखों की है। आज के दौर में अंग्रेजी का विरोध करके राजनीति संभव नहीं। अखिलेश यादव पर समाजवादी विचारधारा का कितना असर है मैं नहीं जानता, लेकिन वह आजकल हावी आर्थिक विचारधारा के घोर समर्थक हों, तब भी मैं आग्रहपूर्वक यही कहूंगा कि अंग्रेजी का समर्थन करने के लिए भारत की लोक भाषाओं की उपेक्षा करना आवश्यक नहीं है। कम से कम ऐसा उचित तो नहीं ही कहा जा सकता है। इसलिए उनके स्वर में स्वर में मिलाते हुए मैं यही कहूंगा कि हां, हम अंग्रेजी की पढ़ाई को बेहतर बनाएंगे पर साथ ही हिंदी की पढ़ाई को भी मजबूत बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेंगे और इन दोनों के साथ ही, विषयों की पढ़ाई में भी सुधार लाएंगे। हिंदी और अंग्रेजी तो माध्यम हैं। इन माध्यमों के जरिए साहित्य, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान, प्रबंधन, टेक्नोलॉजी आदि की जो पढ़ाई होती है उनके स्तर में व्यापक और व्यावहारिक सुधार लाने की जरूरत है। इसे उत्तर प्रदेश के छात्र, अभिभावक तथा देश भर के नियोक्ता सभी महसूस करते रहे हैं। देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश का विकास करना है तो शिक्षा के क्षेत्र में जमकर और बहुत काम करना होगा।
उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करनी होगी। मामले को जब हम यहां से देखते हैं तो यह समझने में पल भर भी नहीं लगता कि असली मुद्दा तो शिक्षा के तंत्र को सुधारना है। कमजोर और भ्रष्ट शिक्षा तंत्र के बीच से भी प्रतिभाशाली और योग्य छात्र निकल ही आते हैं और उत्तर प्रदेश इस नियम का अपवाद नहीं है, फिर भी उत्तर प्रदेश से प्यार करने वाला एक भी आदमी इस तथ्य से असहमति नहीं जता सकता कि यह राज्य शिक्षा के मामले में फिसड्डी होता जा रहा है। सरकारी शिक्षा तंत्र तो खासकर प्राथमिक और महाविद्यालय स्तर पर शोक गीत से कम नहीं है। शिक्षा भी विकास का एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक है। शिक्षा से विकास होता है और विकास से शिक्षा फैलती है। बिहार जैसे आर्थिक और प्रशासनिक स्तर पर पिछड़े राज्य के हजारों नौजवान उच्छ शिक्षा में सफलता हासिल करके अपना और दूसरे तमाम लोगों का जीवन संवार रहे हैं और अपने साथ-साथ राज्य का नाम भी रोशन कर रहे हैं। इस सफलता के लिए अक्सर उन्हें अपनी मिट्टी से दूर जाना पड़ता है। इसलिए अगर नई सरकार के प्रयत्नों से उत्तर प्रदेश के शिक्षा तंत्र में दिखने लायक सुधार आता है तो यह अंग्रेजी-हिंदी की बहस से परे एक बड़ी और अहम उपलब्धि होगी।
लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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