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सुरक्षा रणनीति में बदलाव

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
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रणनीति का बदलते अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय सुरक्षा परिवेश के साथ तालमेल रखना जरूरी होता है। राष्ट्रीय रणनीति के तीन मूल आधार आर्थिक, राजनयिक और सैन्य शक्ति होते हैं। सरकार की बदौलत नहीं, बल्कि अपने उद्यमियों और मानव संसाधनों के चलते ही भारत एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है। विदेशी निवेशक, भारत आने से कतरा रहे हैं, जबकि भारतीय निवेशक लगातार विदेशों में निवेश के लिए रुख कर रहे हैं। हाल के हमारे राजनयिक प्रयासों के अच्छे परिणाम निकले हैं। अफगानिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और वियतनाम के सरकार प्रमुख एक के बाद एक 2011 में दिल्ली आए। तीसरे आधार यानि सैन्य शक्ति को हमें अपनी कमजोरी बनने से बचाना होगा। चीन और पाकिस्तान, हमारे दुश्मन रहे हैं। क्षेत्रीय अतिक्रमण के अलावा चीन ने 1962 में हमें एक सीमा-युद्ध लड़ने पर मजबूर किया। चीन की आर्थिक तथा सैन्य तैयारी भारत से काफी आगे है। तिब्बत में उसके सैन्य तंत्र में जबरदस्त सुधार हुआ है। तिब्बत में आठ डिवीजनों की तुलना में अब चीन वहां 32 डिवीजनों को बनाए रखने की स्थिति में है। हवाई और मिसाइल अड्डों की संख्या काफी बढ़ी है, जहां सभी जरूरी लाजिस्टिक क्षमताएं स्थापित की गई हैं।


चीन के साथ हमारा सीमा विवाद अभी तक सुलझ नहीं पाया है। चीन की आर्थिक तथा सैन्य तैयारी, भारत से काफी आगे है। तिब्बत में उसके सैन्य तंत्र में जबरदस्त सुधार हुआ है। उसका बारहमासी दोस्त पाकिस्तान तो भारत से खार खाए बैठा है। एक प्रमुख सुपरपावर के रूप में और शीत युद्घ के बाद एकमात्र सुपरपावर के रूप में अमेरिका ने हमारे क्षेत्र में एक प्रमुख भूमिका अदा की है। 2014 तक सम्मान के साथ अफगानिस्तान से हट जाने के लिए वह पाकिस्तान पर निर्भर बना हुआ है, जिसका पाकिस्तान भरपूर फायदा उठा रहा है। पाकिस्तान की विदेशमंत्री ने जोर देकर कहा है कि पाकिस्तान को अमेरिका की जितनी जरूरत है उससे ज्यादा जरूरत अमेरिका को पाकिस्तान की है। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पाकिस्तान से कहा है कि आप आस्तीन में सांप पाल कर यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे आपके पड़ोसी को ही काटेंगे।


राजनीतिक और आर्थिक कारणों से अमेरिका अफगानिस्तान से वापसी की हड़बड़ी में है। अफगानिस्तान में पहले ब्रिटिश, फिर रूसी और अब अमेरिकी अपना हाथ जला चुके हैं। कुछ समय पहले से ही हमने अफगानिस्तान को उदारतापूर्वक आर्थिक मदद देनी शुरू की है। अब उसके साथ हमारी एक सामरिक भागीदारी संधि है, जिसके तहत हम अफगान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देते हैं। वियतनाम के साथ हमारे सांस्कृतिक तथा सभ्यतामूलक संबंध कई सदियों पुराने हैं। अमेरिका को वियतनाम में मुंह की खानी पड़ी थी। वियतनाम में चीन के आक्रमणों को रोका गया और वियतनाम को सबक सिखाने में चीन नाकाम रहा।


दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) में वियतनाम, सैन्य तथा आर्थिक शक्ति का एक केंद्र है। हमें वियतनाम के साथ आर्थिक तथा सामरिक सम्बंधों को मजबूत करते रहना चाहिए। बांग्लादेश और म्यांमार के साथ हमारे बढ़ते आर्थिक संबंध, स्वागतयोग्य हैं। चीन के साथ हथियारों की दौड़ में हमें शामिल होने की जरूरत नहीं है। पारंपरिक युद्धों का जमाना लद सा गया है। वैसे भी जब दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने के लिए चीन अपनी अर्थव्यवस्था के विकास में लगा हो, तब यह उसके हित में नहीं होगा। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, हमें उस पर अपनी सैन्य बढ़त को कमजोर नहीं पड़ने देना होगा। आतंकवाद से निपटने के लिए हमारा एक कारगर तंत्र होना जरूरी है। अगर राष्ट्रीय रणनीति का तीसरा पाया, यानि सैन्य शक्ति पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं होगी, तो हमारी आर्थिक और राजनयिक ताकत किसी काम की नहीं होगी।


लेखक एसके सिन्हा सेवानिवृत्त ले.जनरल हैं


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