Menu
blogid : 5736 postid : 4773

सिमटती जा रही किताबों की दुनिया

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

डिजिटल युग में किताबों की कोई पूछ नहीं रहेगी, ऐसी आशंका निर्मूल साबित हुई। किताबों की बिक्री भले घटी हो, मगर उनका महत्व कम नहीं हुआ है। किताब प्रेमी भी कम नहीं हुए। सोशल नेटवर्किग साइटों और इंटरनेट की धमक के बीच किताबें अब भी हमारी ज्ञान वृद्धि, लेखन, शब्दकोष और ग्रहणशक्ति को बढ़ाने का सबसे सशक्त माध्यम हैं। किताबें हमारी मित्र ही नहीं, मित्रता बढ़ाने का एक माध्यम भी हैं। किताबों का एक हाथ से दूसरे हाथ जाने का प्रचलन बढ़ गया है, लेकिन दुर्भाग्य से सरकार ने किताबों की महत्ता और उसकी व्यापकता बनाए रखने से पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया है। किताबों को सहेज कर रखने वाले पुस्तकालय दम तोड़ते जा रहे हैं। फिर चाहे वे सरकारी पुस्तकालय हों या वित्त पोषित निजी पुस्तकालय। कहते हैं कि अगर स्कूल शिक्षा के मंदिर हैं तो पुस्तकालय उसका गर्भगृह, लेकिन दुर्भाग्य से सरकारी उदासीनता और सामाजिक सहयोग के अभाव में यह मंदिर जर्जर होता जा रहा है।


सोशल मीडिया रिपोर्टिग


पुस्तकालय वंचित वर्ग के ज्ञानव‌र्द्धन और सामाजिक विवेक को बढ़ाने का महत्वपूर्ण जरिया हैं। ये बच्चों, बड़े-बूढ़ों को देश-दुनिया की जानकारी, चर्चा-परिचर्चा, हास-परिहास यानी सामुदायिक भागीदारी का उचित स्थल उपलब्ध कराते हैं। सिर्फ स्कूलों पर ध्यान केंद्रित करके ही शिक्षा नहीं पाई जा सकती। पुस्तकालय शिक्षा व्यवस्था के पूरक हैं। दलितों, पिछड़ों और सामाजिक मुख्यधारा से दूर अन्य वर्गो को यहां बाहरी दुनिया से जोड़ने का आसान और मुफ्त रास्ता मिल सकता है, लेकिन केंद्र या राज्य सरकारों ने गांवों, कस्बों में इसका नेटवर्क फैलाने का कोई प्रयास नहीं किया। सिर्फ शहरों में ही कुछ धन खर्च किया गया, वह भी ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है। बड़े शहरों-कस्बों में स्थित पुस्तकालयों की बहुमूल्य इमारतों पर बिल्डर माफियाओं की नजर है। लाइब्रेरी के डिजिटलीकरण, कंप्यूटरीकरण की बात तो छोडि़ए, उसे मौजूदा स्थिति में बनाए रखने की जहमत भी सरकार नहीं उठाना चाहती। गांवों में तो इनका अस्तित्व ही नहींहै। सरकारी कागजातों में तो हर जिले के सभी सरकारी स्कूल-कॉलेजों में पुस्तकालय होने चाहिए, मगर यहां की हालत किसी से छिपी नहींहै। यहां के प्रबंधकों-प्राचार्यो का कहना है कि जब सभी विषयों के लिए अध्यापक ही सरकार नियुक्त नहींकर रही तो पुस्तकालयों की सुध कौन ले।


शहरों-कस्बों में विभिन्न ट्रस्टों और धर्मार्थ संगठनों के पुराने पुस्तकालय मदद के अभाव में खंडहर बन चुके हैं। कभी इन्हें शिक्षा का लघु मंदिर समझा जाता था। जहां धनाभाव में अध्ययनशील छात्रों को देश दुनिया की जानकारी देने वाली पत्रिकाएं, अखबार और किताबें मिल जाती थीं। अब जिस पुस्तकालय का नाम लीजिए, उसकी बेबसी पर मन में एक टीस-सी उठती है। इन पुस्तकालयों के पुनरुद्धार के लिए सरकार ने निजी क्षेत्र के साथ हाथ मिलाकर कोई अभियान नहीं चलाया। हर सरकारी स्कूल में पुस्तकालय शुल्क के नाम पर धन का संग्रह तो हो रहा है, मगर वह कहां जा रहा है, इसका कोई हिसाब नहीं। सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा के राजनीतिक दलों के षड़यंत्र ने पुस्तकालयों को भी असमय मौत की ओर धकेल दिया है। वित्त पोषित स्कूल-कॉलेज तो इससे एक कदम आगे हैं। करोड़ों की जमीन में हाईस्कूल-इंटर की पढ़ाई कराने वाले ये स्कूल-कॉलेज अब उन्हें सफेद हाथी लग रहे हैं। इन स्कूल-कॉलेजों के प्रबंधकों की योजना वहां ताला डालकर जगह का व्यावसायिक उपयोग करना है। यह भी सच है कि अब कोई ट्रस्ट या धर्मार्थ संस्था के जरिये सामाजिक सेवा के लिए स्कूल-कॉलेज नहीं खोलना चाहता। निचली कक्षाओं के अंग्रेजी स्कूल और वहां की भारी फीस में उन्हें बड़ा मुनाफा दिखाई दे रहा है। यह सच है कि महंगी किताबें खरीदना सबके बस की बात नहीं है।


गैर सरकारी संगठनों, प्रबुद्ध नागरिकों और सरकार के बीच सामाजिक सहयोग से ही बात बन सकती है। सरकार को पुस्तकालयों की दशा सुधारने के लिए एक व्यापक योजना शुरू करनी चाहिए। इसके तहत शहरों में वार्डवार और गांवों में पंचायतवार एक पुस्तकालय खड़ा किया जाए। इसमें ऐसी व्यवस्था हो कि सभासदों/प्रधानों, ब्लॉक प्रमुखों, विधायकों, सांसदों आदि जनप्रतिनिधियों को उनकी निधि के अनुसार अंशदान देना अनिवार्य किया जाए। आखिर पुस्तकालय और किताबों की दुनिया का पालन-पोषण भी सामाजिक दायित्व है। इसके अलावा हर विधानसभा क्षेत्र में एक आदर्श पुस्तकालय का निर्माण भी हो, जो कंप्यूटरीकृत तरीके से संचालित हों। यहां किताबों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं की पूरी श्रंृखला हो। ऐसे ही विधानसभावार या जिले में साल भर में एक पुस्तक मेला का आयोजन हो, जिससे छात्रों को किताबों की महत्ता समझाई जा सके। प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से भी छात्रों को पुस्तकालय के प्रति आकर्षित किया जा सकता है। अभी ऐसे पुस्तक मेलों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। इंटरनेट की दुनिया चाहे जितनी भी तेज क्यों न हो, किताबों की तरह संग्रहित और एक जगह समाहित ज्ञान वह नहीं दे सकता। बच्चों को पढ़ाई और ग्रीष्मावकाश के दौरान तमाम सामाजिक-आर्थिक विषयों पर शोध कर प्रोजेक्ट बनाने का कार्य आज भी मिलता है। अब तो न अभिभावक और न ही अध्यापकों की ख्वाहिश है कि छात्र अध्ययन कर इस विषय पर स्वाभाविक उद्गार व्यक्त करें।


इंटरनेट से अधकचरी और अविश्वसनीय जानकारी निकालकर उसे फास्टफूड की तरह परोसने पर ही जोर दिया जा रहा है। इससे छात्रों में जिज्ञासु प्रवृत्ति और अनुभवशीलता की कमी साफ झलकती है। प्रतियोगी परीक्षाओं के दौरान अधकचरी जानकारी उनमें हताशा और भ्रम पैदा करती है। केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की स्थापना की थी, जिसके तहत पुस्तकालयों के पुनरुद्धार की योजना भी थी, मगर कुछ हासिल नहीं किया जा सका। मेट्रो शहरों और विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को एक ग्रिड के जरिये जोड़ने का प्रयास जरूर हुआ है। मगर देश की 95 फीसदी से ज्यादा आबादी इसके लाभ से वंचित है। मेट्रो शहरों और अंग्रेजी स्कूलों के छात्रों को पुस्तकों और इंटरनेट का साथ मिल ही जाता है। सामाजिक न्याय और दायित्व के तहत हमें संसाधनों के अभाव में उच्च शिक्षा से महरूम बच्चों तक इसका लाभ पहुंचाना है। पुस्तकालयों को बहुउपयोगी बनाने के लिए कई जगह उन्हें संग्रहालयों और स्मारकों से जोड़ा गया है। इन्हें स्कूलों, प्रदर्शनी स्थलों, खेल के मैदानों, संगीत-नृत्य प्रशिक्षण केंद्रों के साथ विकसित किया जा सकता है। बेशक, सरकार के लिए यह निवेश और लाभ का सौदा नहीं है, मगर यह सामाजिक निवेश आने वाली पीढ़ी को ज्यादा सशक्त, साक्षर और आत्मनिर्भर बनाने में मदद करता है। कॉरपोरेट घरानों को भी सामाजिक दायित्व के तहत स्कूलों के साथ पुस्तकालयों का निर्माण और संचालन भी हाथ में लेना होगा।


इस आलेख के लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं


सोशल मीडिया पर अंकुश


Read Hindi News


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh