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औषधि परीक्षण का खतरनाक धंधा

जागरण मेहमान कोना
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कम लागत के कारण भारत सरीखे विकासशील देशों में भारी जोखिम वाले औषधि परीक्षण का जाल फैलते देख रहे हैं डॉ. मुमुक्षु दीक्षित


देश में अवैध औषधि परीक्षण की जांच की मांग करने वाली एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार और भारतीय चिकित्सा परिषद [एमसीआइ] से जवाब तलब करने के साथ इस मुद्दे पर नए सिरे से बहस आरंभ हो गई है। औषधि निर्माता कंपनियों द्वारा उनकी शोध प्रयोगशालाओं में अनुसंधान करके विकसित की गई नई औषधियों की बिक्री से पूर्व मनुष्यों पर उनका परीक्षण किया जाना अनिवार्य है। बाजार में न आई हुई इन दवाओं का यह परीक्षण ही ड्रग ट्रायल अथवा क्लीनिकल ट्रायल कहलाता है। इसमें दवा के दुष्प्रभावों के साथ-साथ रोगी की जान का भी जोखिम रहता है। अत: ऐसी दवाओं को सबसे पहले चूहों की एक प्रजाति पर आजमाया जाता है और प्रयोग की सफलता के बाद मनुष्यों पर परीक्षण करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा ड्रग ट्रायल के लिए चार चरणों की व्यवस्था लागू है। प्रथम चरण में औषधि के विषैले प्रभाव का आकलन किया जाता है। द्वितीय चरण में दवा की आवश्यक मात्रा के सापेक्ष उसके वांछित प्रभावों एवं दुष्प्रभावों की जानकारी एकत्र की जाती है। इन दोनों चरणों का परीक्षण प्राय: अत्याधुनिक सुविधा संपन्न विकसित देशों में किया जाता है, जहां स्वयंसेवकों के लघु समूह पर अध्ययन कर उन्हें संभावित खतरों की गंभीरता का ध्यान रखते हुए मोटी रकम दी जाती है। तृतीय चरण में ज्यादा रोगियों पर परीक्षण की आवश्यकता के कारण दवा कंपनियां मुख्यत: विकासशील देशों की ओर उन्मुख होती हैं। परीक्षणों से प्राप्त परिणामों के आधार पर अंतिम चरण में दवा की उपयोगिता सिद्ध होने के पश्चात ड्रग रेग्युलेटर अथारिटी से दवाओं को बाजार में उतारने की अनुमति मांगी जाती है और लाइसेंस प्राप्त कर दवा को सीमित बाजार में उतारते हैं।


भारत सहित विश्व के 85 देशों में चिकित्सा संगठनों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था व‌र्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन ने 1964 में शोधरत चिकित्सा वैज्ञानिकों के लिए नैतिक सिद्धांतों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय मानदंड निर्धारित किए हैं। इसे डिक्लेरेशन ऑफ हेलसिंकी कहा गया। भारत सरकार ने भी अनियमितताओं पर प्रभावी अंकुश रखने के लिए ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन किया है। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा प्रोफेशनल कंडक्ट, एटिकेट एंड एथिक्स रेग्युलेशन तथा इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च द्वारा लागू एथिकल गाइडलाइंस फॉर बायोमेडिकल रिसर्च ऑन ह्यूमन पार्टिसिपेंट्स के अंतर्गत परीक्षण करने वाले चिकित्सकों की सीमा-रेखाओं का निर्धारण करते हुए रोगियों के व्यापक हित एवं उनकी सुरक्षा का भरपूर ध्यान रखा गया है।

सुधार का उपेक्षित क्षेत्र


पश्चिमी देशों में मरीजों की सुरक्षा के लिए बने कठोर कानूनों तथा ट्रायल में आने वाली अत्यधिक लागत के कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा मुख्यत: विकासशील देशों में सुव्यवस्थित ढंग से ड्रग ट्रायल का संजाल बिछाया जा रहा है। विश्व के लगभग 178 देशों में ऐसे करीब एक लाख बीस हजार दवा परीक्षण जारी हैं। इन देशों में भारत, चीन, इंडोनेशिया और थाईलैंड प्रमुख हैं। भारत में खासतौर पर मध्य प्रदेश व आंध्र प्रदेश में दवा परीक्षण प्रगति पर हैं। इन परीक्षणों में सम्मिलित किए जाने वाले व्यक्ति अधिकतर गरीब, अनपढ़ एवं आदिवासी हैं। सवा अरब की जनसंख्या वाले हमारे देश में अत्यधिक जीन विविधता होने तथा क्लीनिकल ट्रायल की लागत पश्चिमी देशों की तुलना में अत्यधिक किफायती [लगभग बीस प्रतिशत] पड़ने के कारण भारत विदेशी दवा कंपनियों के शोध-कार्यो के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है। साथ ही, यहां दवा-परीक्षण संबंधी कानून भी अधिक कठोर नहीं है। इसी कारण, विशेष रूप से विगत पांच वर्षो में, विदेशी दवा कंपनियों ने भारत को अपनी नई दवाओं के परीक्षण की प्रयोगशाला बना डाला है। अनुमान के मुताबिक आज हमारे देश में करीब डेढ़ लाख लोगों पर उनके जाने-अनजाने 1600 दवाओं के शोध-परीक्षण हो रहे हैं। साथ ही, अनुमान है कि भारत में लगभग 1500 करोड़ रुपये का ड्रग ट्रायल कारोबार जारी है, जिसके वर्ष 2012 तक बढ़कर 2760 करोड़ रुपये तक पहुंच जाने की संभावना है। दुर्भाग्यवश आर्थिक प्रलोभन तथा कमजोर निगरानी तंत्र के रहते हमारे देश में जानलेवा ड्रग ट्रायल के कई मामले प्रकाश में आए हैं।


भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की मार्ग-दर्शिका के अनुसार परीक्षण में रोगी और दो गवाहों की लिखित सहमति आवश्यक है। संभावित दुष्प्रभावों की जानकारी देने संबंधी ऑडियो-वीडियो रिकार्डिग कराए जाने की भी बाध्यता है, परंतु दुख का विषय है कि दवा परीक्षणों के विरुद्ध सक्रिय विभिन्न संगठनों की सूचना के अनुसार भारत में औषधि परीक्षणों को लेकर अपेक्षित पारदर्शिता का अभाव है। मौत की आशंका वाले ट्रायल में प्रत्येक रोगी को जीवन-बीमा के दायरे में रखा जाना भी अनिवार्य है। इसमें भी अनियमितताएं उजागर हुई हैं। मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति का अध्ययन किया जाए तो इस प्रश्न का उत्तर मिलना भी कठिन नहीं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित ऐसे ड्रग ट्रायल का अस्तित्व में रहना समीचीन है अथवा नहीं? क्लीनिकल ट्रायल पर प्रभावी नियंत्रण के लिए सक्षम निगरानी तंत्र का होना बहुत आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि अस्पतालों के लिए ट्रायल की संपूर्ण जानकारी स्वास्थ्य विभाग को दिए जाने की बाध्यता हो तथा ड्रग ट्रायल से संबंधित संपूर्ण धनराशि सरकारी संस्थानों के माध्यम से ही वितरित किए जाने की व्यवस्था हो। परीक्षणकर्ताओं से अपेक्षा है कि कंपनी के साथ ड्रग ट्रायल संबंधी करार करते समय जनहित में परीक्षण के परिणाम को प्रकाशित करने का अधिकार भी अवश्य लिया जाए। इसके अतिरिक्त अशिक्षित अथवा गरीबी-रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों को क्लीनिकल ट्रायल से मुक्त रखा जाना चाहिए।

लेखक मुमुक्षु दीक्षित चिकित्सक हैं

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