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2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पी चिदंबरम को सह आरोपी बनाने की याचिका खारिज होने के बाद संप्रग सरकार का उत्साहित और आत्ममुग्ध होना स्वाभाविक है। पर यह समझ से परे है कि सरकार के व्यूहकार इस मामूली राहत को अपनी जीत के रूप में संदर्भित क्यों कर रहे हैं? वह भी यह जानते हुए कि निचली अदालत का फैसला अंतिम नहीं होता। रही बात इस फैसले की तो ऊपरी अदालत में चुनौती मिलनी तय है। सुब्रमण्यम स्वामी इसका संकेत भी दे चुके हैं। उन्होंने कहा है कि निचली अदालत के फैसले को सीधे शीर्ष अदालत में चुनौती दी जा सकती है और वे इस विकल्प पर विचार भी कर रहे हैं। लेकिन आश्चर्य यह है कि सरकार के मंत्री वस्तुस्थिति को जानने-समझने के बावजूद अनावश्यक विजय पर्व मनाने पर आमादा हैं। कोपभवन में पड़ी कांग्रेस भी लहलहा उठी है। झूठा अभियान चलाने के लिए वह भारतीय जनता पार्टी को कोसते हुए सलाह दे रही है कि वह चिदंबरम से माफी मांगे, पर कांग्रेस पार्टी और उसके बड़बोले मुनादीबाजों से पूछा जा सकता है कि अगर निचली अदालत का फैसला सुब्रमण्यम स्वामी के पक्ष में होता तो क्या वे आसानी से चिदंबरम को गुनाहगार मान लेते? क्या सरकार ऊपरी अदालत में जाने की बात नहीं कहती? क्या सरकार के मुनादीबाज ऐसे ही खम ठोंकते देखे जाते? क्या वे यह नहीं कहते कि चिदंबरम के साथ न्याय नहीं हुआ है? अच्छा तो यह होता कि कांगे्रस पार्टी अदालती निर्णय का राजनीतिक लाभ उठाने के बजाए उस पर गंभीरता दिखाती, लेकिन तमाशा ही कहा जाएगा कि वह यह सिद्ध करने में जुटी है कि स्पेक्ट्रम आवंटन में हुए घोटाले के लिए चिदंबरम नहीं, बल्कि अकेले ए राजा ही जिम्मेदार हैं।
कांग्रेस के इस कुतर्क को भी स्वीकारना कठिन है कि चिदंबरम निर्दोष हैं और सुब्रमण्यम स्वामी सिर्फ प्रचार पाने के लिए उनके खिलाफ आरोप लगा रहे हैं। अगर सच के लिए लड़ना प्रचार पाना है तो फिर सच से तो कभी पर्दा नहीं उठ पाएगा? रही बात निचली अदालत के फैसले की तो उससे कतई साबित नहीं होता कि सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा चिदंबरम पर किसी दुर्भावना के चलते आरोप लगाया गया हैं। अगर ऐसा होता तो सुप्रीम कोर्ट 122 कंपनियों के लाइसेंस को रद नहीं करता और न ही सरकार की इस बात के लिए कान उमेठता कि उसकी नीतियां गलत हैं। सरकार यह कहकर भी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती कि ए राजा द्रमुक कोटे से मंत्री थे और उनके गुनाहों के लिए वह दोषी नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में सामूहिक उत्तरदायित्व का विधान है और सरकार अपने किसी मंत्री की नाकामी का ठीकरा उसके माथे फोड़ अपने को अलग नहीं कर सकती, लेकिन ताज्जुब है कि सरकार और उसकी मुख्य घटक कांगे्रस पार्टी संसदीय लोकतंत्र के सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना का अनादर कर रही है। अगर निचली अदालत के फैसले की बात करें तो इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे चिदंबरम पर लगने वाले आरोपों की गंभीरता कम हो जाती है।
अदालत ने सिर्फ यही कहा है कि ऐसे सबूत नहीं मिले हैं, जिनसे यह साबित हो कि चिदंबरम ने 2जी आवंटन में लाभ कमाया है। लेकिन कांग्रेस द्वारा शीघ्र इस नतीजे पर पहुंच जाना कि निचली अदालत का निर्णय अंतिम है और ऊपरी अदालतें निचली अदालत के दृष्टिकोण से सहमत होंगी ही, उचित नहीं जान पड़ता। बल्कि सुब्रमण्यम स्वामी का यह कहना ज्यादा तार्किक है कि याचिका के खारिज होने का मतलब यह नहीं कि उनका पक्ष कमजोर है। अगर ऐसा होता तो लाइसेंस रद किए जाने के मामले में हाईकोर्ट द्वारा याचिका खारिज किए जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट कंपनियों के लाइसेंस रद नहीं करता। संभव है कि आने वाले दिनों में सुब्रमण्यम स्वामी के पास कोई ऐसा ठोस सबूत हाथ लग जाए, जिससे उनके आरोपों को धार मिले। बावजूद इसके चिदंबरम की भूमिका को लेकर अब भी सवाल कम नहीं हैं। ठीक है कि निचली अदालत का फैसला चिदंबरम और सरकार के लिए फौरी तौर पर संजीवनी साबित हुआ है, लेकिन सरकार के पास इस सवाल का कोई उत्तर नहीं है कि वित्तमंत्री रहते हुए चिदंबरम ने ए राजा की मनमानी और लूटपाट पर अंकुश क्यों नहीं लगाई? कांग्रेस पार्टी द्वारा चिदंबरम को दूध का धूला साबित करने से पहले इन सब सवालों का जवाब तो देना ही चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि ये सवाल सिर्फ विपक्षी दलों द्वारा ही लगाए जा रहे हैं।
25 मार्च 2011 को खुद वित्त मंत्रालय ने भी प्रधानमंत्री को भेजे गए तथ्यात्मक नोट में कहा है कि अगर चिदंबरम ने स्पेक्ट्रम की बिक्री में रोक लगाई होती तो घोटाले को रोका जा सकता था। क्या कांग्रेस पार्टी वित्त मंत्रालय के इस नोट को निरर्थक मानती है? लेकिन वित्तमंत्री ने तो कभी भी इस नोट को गलत करार नहीं दिया? सिर्फ यह कह देने मात्र से कि घोटाले के लिए सिर्फ ए राजा ही जिम्मेदार हैं, चिदंबरम को आरोपों की परिधि से बाहर नहीं रखा सकता। कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि वित्त मंत्रालय का यह नोट तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा और तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम के बीच हुई बैठकों और अंतर विभागीय पत्राचार है, जिसे यों ही हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। इस पत्र में 2008 में हुई बैठकों का तिथिवार ब्यौरा दिया गया है। साथ ही इस बात की भी पुष्टि की गई है कि तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा और तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम के बीच इस बात को लेकर पूरी सहमति थी कि कंपनियों को 2001 की पुरानी कीमत के आधार पर ही लाइसेंस आवंटित किया जाएं।
पत्र के मुताबिक 30 जनवरी 2008 को हुई बैठक में चिदंबरम ने कहा भी था कि स्पेक्ट्रम देने के लिए पुरानी प्रणाली यानी पहले आओ, पहले पाओ ही उचित है। अगर वाकई में चिदंबरम की स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई संलिप्तता नहीं थी तो उन्होंने 2001 की पुरानी आवंटन नीति के बजाए स्पेक्ट्रम की नीलामी में अभिरुचि क्यों नहीं दिखाई? वह भी तब, जब 9 जनवरी 2008 को वित्त मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव द्वारा पहले आओ, पहले पाओ नीति का विरोध किया गया और नीलामी के जरिए स्पेक्ट्रम का आवंटन करने की सलाह दी गई। लेकिन ताज्जुब है कि इसके बावजूद चिदंबरम और ए राजा दोनों ने मिलकर 10 जनवरी को बगैर नीलामी के ही स्पेक्ट्रम का आवंटन कर दिया। मजे की बात देखिए कि उसके ठीक पांच दिन बाद यानी 15 जनवरी को मामले की लीपापोती करते हुए चिदंबरम ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख डाला कि 10 जनवरी को हुए आवंटन के अध्याय को समाप्त समझा जाए और अब आगे से लाइसेंस का आवंटन नीलामी से किया जाए। क्या चिदंबरम की इस कारगुजारी पर सवाल नहीं उठना चाहिए? थोड़ी देर के लिए निचली अदालत के फैसले को मान भी लिया जाए कि चिदंबरम के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं हैं, जो यह साबित करें कि घोटाले में उन्होंने पैसा बनाया है। पर स्पेक्ट्रम आवंटन में हुई गड़बडि़यों से उन्हें कैसे अलग किया जा सकता है? जबकि शीशे की तरह साफ है कि चिदंबरम और ए राजा की कुनीति के कारण ही देश को एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का चूना लगा।
ए राजा ने अदालत में दावा भी कर रखा है कि स्पेक्ट्रम आवंटन की पूरी प्रक्रिया से तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम अवगत थे और उनकी सहमति से ही स्पेक्ट्रम का आवंटन हुआ। यही नहीं, ए राजा ने यह भी दावा किया है कि लाइसेंस धारक कंपनियों के अपने शेयर बेचने के मामले पर प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्तमंत्री के बीच कई बार चर्चा हुई थी और स्पेक्ट्रम आवंटन के दौरान वे कई बार प्रधानमंत्री से मिले भी। राजा के वकील ने तो यहां तक चुनौती दी थी कि अगर प्रधानमंत्री इनकार कर सकते हैं तो करके दिखाएं। ऐसे में क्या नहीं लगता है कि चिदंबरम की भूमिका को लेकर उठने वाले तमाम सवालों के उत्तर अब भी गर्भ में हैं? ऐसे में कांग्रेस पार्टी को निचली अदालत के निर्णय पर ताल ठोंकना और याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी को झूठा साबित करना कितना उचित है? कांग्रेस को मुंडकोपनिषद् के सूत्र वाक्य पर ध्यान देना चाहिए कि अंतत: सत्य की ही विजय होती है।
लेखक अरविंद कुमार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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