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तीसरे मोर्चे के लिए मोर्चाबंदी!

जागरण मेहमान कोना
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पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव परिणामों की पृष्ठभूमि में तीसरे मोर्चे की आहट सुनाई देने लगी है। अखिलेश यादव के उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद तय है कि मुलायम सिंह के इर्द-गिर्द तीसरे मोर्चे की धुरी की प्रक्रिया तेजी से घूमने वाली है। कांग्रेस इतनी चिंता और हड़बड़ी में है कि उसने ममता बनर्जी पर सख्ती दिखाते हुए उनका अखिलेश के शपथ समारोह में जाना भी निरस्त करा दिया। तय है कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक उदारवादी नीतियां हाशिये पर जाने वाली हैं। वैसे भी इन नीतियों को पांच प्रांतों ने नकारने की पुष्टि चुनाव परिणाम घोषित होने साथ कर दी है। ये नीतियां प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध और अवैध दोहन के बूते बजूद में बनी हुई हैं। इस लिहाज से केंद्रीय सत्ता में बदलाव की जरूरत है। यह जनादेश जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर है। साथ ही इसने कांग्रेस की छद्म पंथनिरपेक्षता और भाजपा की धार्मिक कट्टरता को भी आईना दिखाया है। भ्रष्ट आचरण को बहाल रखते हुए मायावती जिस सामाजिक यांत्रिकी के बूते बसपा को अखिल भारतीय आधार देना चाहती थीं, उसके आकार को लघु करके मतदाताओं ने संकेत दिया है कि प्रवृत्तियों में अतिवाद अब जनता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। इस लिहाज से पिछले कुछ सालों में विधानसभाओं के आए चुनावी नतीजे यह तय कर रहे हैं कि प्रांतीय राजनीतिक नेतृत्व सशक्त होने के साथ प्रशासन की दृष्टि से सुशासन की ओर बढ़ता हुआ संघीय ढांचे को मजबूती दे रहा है। यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र को पुख्ता और परिपक्व बनाने वाली है। इन नतीजों ने केंद्र में अनिश्चय के अंधकार को गहरा कर दिया है। कांग्रेस और भाजपा की नीतियां कमोबेश एक जैसी हैं। पूरे पांच साल काम करने का सुनहरा अवसर मिलने के बावजूद बसपा भी इन्हीं नीतियों से कदमताल मिलाती दिखी।


दबंगों को लुभाने के लिहाज से उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत आने वाले 22 प्रकार के अपराधों को संज्ञान में लेने वाले मामलों को हत्या और बलात्कार तक ही सीमित कर दिया गया था। लिहाजा, नतीजों के फौरन बाद उत्तर प्रदेश में दबंग और दलितों के बीच जातीय आधार पर जो उत्पीड़न का शर्मनाक सिलसिला तेज हुआ है, इस प्रकृति के अपराध अब गंभीर और गैर जमानती अपराधों की श्रेणी में नहीं आएंगे। उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण का सिलसिला भी सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से जारी था। चिकित्सा और तकनीकी संस्थानों में प्रवेश पा जाने वाले वंचित तबकों के छात्रों का जातीय और अंग्रेजी में दक्ष न होने के आधार पर इस हद तक उत्पीड़न जारी है कि अब तक 18 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन मायावती ने इस भाषायी समस्या के निदान की कभी पहल नहीं की। ऐसे में यदि कहा जा रहा है कि मायावती का दलित वोट बैंक भी खिसका है तो इसमें अनहोनी क्या है? जनता के बुनियादी हितों और घोषणा पत्र में किए वादों से आंख चुराने के कारण ही मतदाताओं ने कांग्रेस, भाजपा और बसपा से मोहभंग होने की तस्दीक कर दी है। वरना, उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद मायावती दलित हितों की रक्षा और सर्वजन के नारे के बूते दिल्ली की राजगद्दी हथियाने की दौड़ में लग गई थीं।


मायावती का यह सपना तो चकनाचूर हुआ ही, बसपा को अखिल भारतीय आधार देने के मंसूबे भी धराशायी हो गए। तय है, किसी तीसरे दल के राष्ट्रीय दल के रूप में उभरने पर पूर्णविराम लग गया। हालांकि 2007 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, असम, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में भी विधानसभा के चुनाव हुए। इन सभी प्रदेशों में कांग्रेस और भाजपा गठबंधनों की सरकारें वजूद में आई। लिहाजा, राजनीतिक विश्लेषक उम्मीद जता रहे थे कि फिलहाल क्षेत्रीय दलों का इस्तेमाल वैशाखियों के रूप में ही होता रहेगा। इन प्रांतों में चुनावों के दौरान ये अटकलें लगाई जा रही थीं कि मायावती की सामाजिक-अभियांत्रिकी मुख्यधारा की राजनीति से अलग एक नई धारा गांधीगीरी के रूप में आकार ग्रहण कर रही है, जो अन्याय और शोषण के विरुद्ध सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरेगी, लेकिन भाजपा ने कर्नाटक में विजयश्री हासिल करके दक्षिण में प्रवेश तो किया ही, गुजरात में नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी मर्तबा जीत हासिल करके नए सामाजिक समीकरणों की संभावनाओं और छद्म पंथनिरपेक्षता के थोथे सरोकारों पर पानी फेर दिया।


गोवा और उत्तर प्रदेश को छोड़ दें तो एंटी इन्कमबेंसी फैक्टर भी बेअसर रहा। भाजपा को अगर गोवा, उत्तराखंड और पंजाब में नाक बचा लेने की खातिर बढ़त मिल भी गई तो वह उसके राष्टीय वजूद रखने वाले नेताओं की बजाए क्षेत्रीय नेताओं और स्थानीय मुद्दों के कारण मिली है। वरना, बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शरण देकर भाजपा ने भी मनमोहन सिंह और मायावती की लाइन पकड़ ली थी। बहरहाल, पांच राज्यों के करीब 14 करोड़ मतदाताओं ने 690 विधानसभा सीटों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करके जो फैसला सार्वजनिक किया है, उससे तो यही स्वर निकल रहा है कि राष्ट्रीय दलों का हृदय-विदारक क्षरण हो रहा है। जो कांग्रेस राहुल गांधी बनाम देश के भावी प्रधानमंत्री को लेकर उत्तर प्रदेश में करो या मरो की स्थिति में थी, वह मुंह छिपाने की शर्मनाक हालत में आकर हाशिये पर है। उसके सांप्रदायिक हथकंडों और निर्लज्ज चाटुकारिता को जनता ने नकार दिया है। इस प्रांत में वीपी सिंह के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़ी और दलित जातियों में जो राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जगी थीं, उनका अभी लोप नहीं हुआ है। नतीजतन राज्य-व्यवस्था ज्यादा से ज्यादा संघीय स्वरूप ग्रहण करने को आतुर-व्याकुल है। तय है, इस परिप्रेक्ष्य में जहां नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और जयललिता की तरह पंजाब में भी प्रकाश सिंह बादल को अपेक्षाकृत ज्यादा स्वायत्तता हासिल हो गई है। वे इस स्वतंत्र शासन प्रणाली में अपने राजनीतिक एजेंडे में शामिल वादों को प्रभावी ढंग से लागू कर सकते हैं।


मुलायम सिंह की सपा को तो मतदाताओं ने पूर्ण बहुमत देकर ही विधानसभा में भेजा है। संप्रग गठबंधन में भागीदार तृणमूल कांग्रेस ने मध्यावधि चुनाव का जो संकेत ठीक चुनाव परिणामों के बाद दिया, वह व्यर्थ या निराधार नहीं है। क्षेत्रीय दलों की यह अपेक्षा बढ़ी है कि राष्ट्रीय राजनीति में मुलायम सिंह महत्वपूर्ण भूमिका के रूप में अवतरित हों। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, जयललिता, रामविलास पासवान और चंद्रबाबू नायडू एक नए क्षत्रप बनाम तीसरा मोर्चा के नीचे आने को तैयार बैठे हैं। इस संभावित तीसरे मोर्चे की पहली परीक्षा इसी साल जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में सामने आ सकती है। यदि ये क्षेत्रीय दल ऐन-केन-प्रकारेण अपना राष्ट्रपति देश को देने में कामयाब हो जाते हैं तो इस मोर्चे के अस्तित्व की मान्यता तो प्रमाणित होगी ही, नए लोकसभा चुनाव पूर्व तीसरे मोर्चे का माहौल भी गरमाने लग जाएगा। लेकिन इस मोर्चे की सार्थकता तभी सिद्ध होगी, जब यह एक स्पष्ट विचारधारा और स्वस्थ जन सरोकारों से जुड़े कार्यक्रमों को लेकर वह जनता के दरबार में हाजिर हो। अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे कानून महज कागजी खानापूर्ति के लिए प्रशासनिक अड़ंगे पैदा करते हैं। लिहाजा, इन कानूनों या तरीकों को कानून की किताबों से विलोपित करने की जरूरत है। देश में सामाजिक न्याय और सुशासन ऐसे ही उपायों से लाने की कारगर उम्मीद की जा सकती है। मुलायम सिंह यदि समय के बदलाव की आहट को सुन पा रहे हैं तो उन्हें तीसरे मोर्चे की धुरी की कमान संभाल लेनी चाहिए।


लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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