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ब्रिटेन की मदद के मोहताज क्यों

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों ब्रिटेन में सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के कुछ सांसदों की भारत को आर्थिक सहायता बंद करने की मुहिम शुरू होने से यहां एक नई बहस छिड़ गई है। किसी का कहना है कि इसके लिए खुद भारत जिम्मेदार है तो कहीं कहा जा रहा है कि भारत को उसकी आर्थिक सहायता ठुकरा देनी चाहिए। दूसरी ओर खुद भारत सरकार ने भी कह दिया है कि वह ब्रिटेन से आर्थिक सहायता नहीं चाहता है। बता दें कि ब्रिटेन से भारत को वर्तमान में 26 करोड़ पाउंड की आर्थिक सहायता हर वर्ष मिलती है। हाल ही में ब्रिटेन के विकास सचिव ने भारत के तीन सबसे गरीब राज्यों को केंद्रित करते हुए अगले चार साल में 110 करोड़ पाउंड की सहायता देने का अनुमोदन किया है। हालांकि ब्रिटेन द्विपक्षीय सहायता के संदर्भ में भारत के लिए सबसे ज्यादा सहायता देने वाला देश है, लेकिन इसके बाद भी वह 1 अरब डॉलर का महज एक तिहाई ही भारत को आर्थिक सहायता के रूप में देता है। वास्तव में देखा जाए तो भूमंडलीकरण के बाद विदेशों से मिलने वाली सहायता राशि निरंतर घटती ही जा रही है। अगर भारत को मिलने वाली कुल सहायता की बात करें तो भारत को वर्ष 2010-11 में दुनिया के दूसरे मुल्कों से 7.8 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता प्राप्त हुई, जबकि भारत ने अफ्रीका सहित अन्य अल्प विकसित देशों को 2.84 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता प्रदान की।


ब्रिटेन में भारत को सहायता देने के मसले पर आलोचना करने वालों का कहना है कि जब भारत में 7 प्रतिशत से भी अधिक गति से आर्थिक विकास हो रहा है, क्रय शक्ति समता के आधार पर भारत आर्थिक रूप से दुनिया का तीसरा सबसे ज्यादा शक्तिशाली देश बन चुका है, अपने बलबूते पर अंतरिक्ष कार्यक्रम संचालित कर रहा है, हजारों किलोमीटर दूर मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्र बना रहा है, स्वयं का परमाणु कार्यक्रम करने में सक्षम है तो ऐसे राष्ट्र को सहायता लेने की क्या जरूरत है। यही नहीं, भारत में अरबपतियों की संख्या भी अच्छी खासी है और खुद भारत अफ्रीका सरीखे देशों को विकास के लिए भारी आर्थिक सहायता दे रहा है। ऐसे में भारत को आर्थिक देने का कोई औचित्य नहीं है। दूसरी ओर ब्रिटेन सरकार ने इस विवाद को विराम देने का प्रयास करते हुए यह कहा है कि वह भारत को दी जाने वाली आर्थिक सहायता वहां की केंद्र सरकार को न देते हुए, उन राज्यों को सीधा प्रदान करेगी, जो सबसे ज्यादा गरीब और पिछड़े हैं। ब्रिटिश सरकार का कहना है कि भारत के तीन ऐसे सबसे गरीब राज्यों को चिह्नित करते हुए वहां के गरीबों खासतौर पर महिलाओं और बच्चों के आर्थिक उत्थान पर यह आर्थिक सहायता केंद्रित रहेगी।


ब्रिटेन के विकास सचिव द्वारा अनुमोदित 1.1 अरब पाउंड की अगले चार वर्षो के लिए सहायता का आवंटन भी इसी तर्ज पर होगा। तर्क कुछ भी दिए जाएं, वास्तविकता यह है कि ब्रिटेन द्वारा भारत को दी जाने वाली आर्थिक सहायता के बारे में यह विवाद भारत और ब्रिटेन के बीच रिश्तों में आई कड़वाहट के कारण पैदा हुआ है। दरअसल, पिछले दिनों भारत ने ब्रिटेन में बने लड़ाकू विमान टाइफून की जगह फ्रांस में बने रफेल जेट के साथ रक्षा सौदा करने को ज्यादा तवज्जो दी। इस बहस में नया मोड़ तब आया, जब ब्रिटेन के अखबार संडे टेलीग्राफ ने भारतीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी के एक बयान का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने राज्यसभा में यह कहा था कि भारत को ब्रिटेन द्वारा दी जाने वाली सहायता राशि की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह राशि भारत के लिहाज से बहुत ही कम है। इस पूरे प्रकरण के कारण ब्रिटेन के कुछ सांसद भड़के हुए हैं। ऐसा लगता है कि ब्रिटेन भारत में लगभग 180 साल शासन करने के कारण अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर नहीं आ पा रहा है। ब्रिटेन को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज परिस्थितियां अलग हैं। भारत का पहले जहां दुनिया के विदेशी व्यापार में भारत का हिस्सा मात्र आधा प्रतिशत होता था, वह अब बढ़कर 1.5 तक पहुंच चुका है। आज भारत से लगभग 250 अरब डॉलर से भी अधिक की वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात होता है। इसी तरह भारत 370 अरब डॉलर की वस्तुओं का आयात भी करता है। आज से करीब 10 साल पहले राजग के शासन काल में वित्तमंत्री जसवंत सिंह ने पहली बार सरकार के बजट में गरीब मुल्कों को भारत से आर्थिक सहायता देने के लिए प्रावधान रखा था।


वर्ष 2003 में भारत सरकार ने यह निर्णय लिया कि अब वह केवल छह देशों अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, यूरोपीय समुदाय और रूस से ही आर्थिक सहायता लेगी और उस समय सरकार ने 7,491 करोड़ रुपये के द्विपक्षीय ऋणों को वापस भी कर दिया। हालांकि यह सही है कि आज भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सेवाओं के लिए अधिक से अधिक धन राशि की जरूरत है ताकि देश की गरीब जनता के लिए अधिकाधिक सुविधाएं जुटाई जा सकें। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि यह आर्थिक सहायता अधिकतर ऋणों के रूप में होती है और उसके साथ ब्याज सहित देनदारी भी जुड़ी होती है। यही नहीं, विदेशों से मिलने वाली सहायता में बहुत-सी शर्ते भी साथ में जुड़ी होती हैं, जिसका असर देश की संप्रभुता और आर्थिक विकास की दिशा पर पड़ता है। आज हमारा देश सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पूरी दुनिया में अपना एक मुकाम बना चुका है। भारत की अकेली एक कंपनी टीसीएस द्वारा अकेले ही 7.5 अरब डॉलर के सॉफ्टवेयर का निर्यात किया जाता है। अपार व्यावसायिक अवसरों के कारण भारत को अप्रैल 2000 से लेकर नवंबर 2011 तक 390 अरब डॉलर का विदेशी निवेश (प्रत्यक्ष एवं संस्थागत) प्राप्त हो चुका है।


दुनिया भर में फैले भारतीयों द्वारा वर्ष 2010 में 5.4 अरब डॉलर से भी अधिक भारत को भेजे गए। भारत अपने प्रवासियों द्वारा दुनिया से राशि प्राप्त करने वाला सबसे बड़ा देश है। चीन को भी अपने प्रवासियों से भारत से कम राशि प्राप्त होती है। ऐसे में ब्रिटेन की 26 करोड़ पाउंड यानी कोई दो हजार करोड़ रुपये की सहायता राशि कोई ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं है, जिसके कारण भारत के आर्थिक विकास या गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में कोई विशेष अंतर आएगा। भारत में चार बड़े फ्लाई ओवर बनाने में ही इतनी धन राशि खप जाती है। केंद्रीय सरकार का वर्ष 2011-12 का बजट ही 12 लाख 57 हजार करोड़ रुपये का था। ऐसे में देश के सम्मान के साथ समझौता करते हुए मात्र 26 करोड़ पाउंड की वार्षिक सहायता (जो अधिकतर ऋण के रूप में ही है) लेने की कोई जरूरत देश को नहीं है। आज भारत को आर्थिक सहायता (ऋण) देने वाले देश भारत में ऐसे कानूनी, प्रशासनिक और वैधानिक परिवर्तन कराने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे देश अपनी प्राथमिकताओं से अलग उनके हित साधने वाली आर्थिक नीतियां बनाने को बाध्य हो जाए। विश्व बैंक द्वारा सामाजिक सेवाओं में विदेशी कंपनियों की दावेदारी बढ़ाते हुए विविध प्रकार के दबाव बनाने के कई मामले सामने आए हैं। ऐसे में भारत को विदेशों पर अपनी निर्भरता को समाप्त करते हुए आत्मनिर्भरता के आधार पर देश के विकास को आगे बढ़ाने का काम करना होगा। ब्रिटेन से आने वाली सहायता को वापस भेजते हुए इसकी शुरुआत की जा सकती है।


लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं


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