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पंजाब की निर्णायक शक्ति

जागरण मेहमान कोना
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अगर आपको कभी पंजाब में घूमने का मौका मिले तो वहां जगह-जगह दलितों के गुरुद्वारे देखे होंगे। उनके बाहर गुरुमुखी और कुछ के बाहर हिंदी में भी लिखा रहता मजहबी, रामगढि़या या संत रविदास गुरुद्वारा। और तो और, चंडीगढ़ में भी आपको इस तरह के गुरुद्वारे मिल जाएंगे। ये अन्य गुरुद्वारे से भव्यता के स्तर पर कतई उन्नीस नहीं हैं। ये कहीं न कहीं पंजाब के दलितों की आर्थिक सेहत को भी रेखांकित करते हैं। यानी कि पंजाब का दलित उस तरह से पिछड़ा, दबा-कुचला नहीं है, जिस तरह से वह देश के बाकी भागों में या कम से कम उत्तर भारत के अन्य सूबों में है। इसीलिए पंजाब में दलित बहुजन समाज पार्टी के पक्ष में खड़े नजर नहीं आते। संभवत: इसलिए ही बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम पंजाब से संबंध रखने के बाद भी बसपा को अपने ही गृह प्रदेश में मजबूत आधार देने में कामयाब नहीं हुए। उनका संबंध रोपड़ से था।


पंजाब में भी विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, तो सभी सियासी जमातें प्रदेश के दलित मतदाताओं को भी अपने हक में करने की हरचंद कोशिश कर रही हैं। इनका कुल मतदाताओं में हिस्सा 30 फीसदी है। आपको यह जानकार हैरानी होगी देश के किसी भी अन्य सूबे में इतने अधिक दलित वोटर कहीं नहीं हैं। हालांकि यह भी तथ्य है कि उनके पास जमीन बहुत कम है। उनके पास कुल जमीन का मात्र 2.3 फीसदी ही है। पर बड़ी संख्या में देश से बाहर बस जाने के फलस्वरूप पंजाब के दलितों के हालात सुधर गए। जो बाहर गए, वे भारत में अपने परिवारों को अच्छी-खासी रकम भेजते हैं। पंजाब से बाहर रोटी-रोजी कमाने के लिए जाने वालों में सबसे अधिक दलित सिख हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस भी दल को दलितों का बड़ी संख्या में मत मिलेगा उसका पंजाब की सत्ता के सिंहासन पर पहुंचना सरल होगा। जाहिर है, इसलिए ही अकाली दल, कांग्रेस, बसपा और पंजाब पीपल्स पार्टी (पीपीपी) दलितों के वोट की ख्वाहिश रखते हैं।


कांशीराम के पंजाब से संबंध और पंजाब में दलितों की भारी-भरकम उपस्थिति के बाद भी वहां पर बसपा के पैर न जमना किसी को भी हैरत में डाल सकता है। पर पंजाब में दलित राजनीति का निरंतर अध्ययन कर रहे इंस्टीट्यूट ऑफ डवलपमेंट के निदेशक प्रमोद कुमार कहते है, पंजाब में सिख धर्म और आर्यसमाज के प्रभाव के चलते दलितों को उस तरह से सामाजिक स्तर पर प्रताडि़त नहीं होना पड़ा जैसे अन्य राज्यों में उन्हें झेलना पड़ा। इन दोनों ने जाति के कोढ़ पर हल्ला बोला। नतीजा यह हुआ कि पंजाब के समाज में दलितों का उत्पीड़न कम हुआ। अगर यह बात न होती तो पिछले दोनों पंजाब विधानसभा चुनावों में बसपा का कम से कम खाता तो खुल ही जाता। एक दौर में पंजाब में कांग्रेस के पास ज्ञानी जैल सिंह और बूटा सिंह के रूप में दंबग दलित नेता थे, पर साल 1984 में पहले स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के कत्लेआम के बाद पंजाब में पार्टी कमजोर हुई। इन दोनों दिग्गज दलित नेताओं के केंद्र की राजनीति करने के कारण रिक्त हुए स्थान को भरने के लिए भी कोई नया नेता सामने नहीं आया।


जैल सिंह तो देश के राष्ट्रपति ही बन गए। उत्तर प्रदेश के विपरीत पंजाब के दलितों से यह अपेक्षा किसी को नहीं करनी चाहिए कि वे किसी एक दल के पक्ष में ही वोट करेंगे। उनके वोट मोटे तौर पर कांग्रेस, अकाली दल और बसपा के हक में ही जा सकते हैं। पंजाब के दलित वोट भाजपा के हक में नहीं पड़ते। पंजाब के दलितों को इस बात का तो कहीं न कहीं गिला रहता है कि सिखों का मात्र 21 प्रतिशत हिस्सा होने पर भी जाट सिखों का प्रदेश की सियासत पर कब्जा है। जबकि उन्हें प्रदेश की कुल आबादी का 30 प्रतिशत होने पर भी राज करने का अवसर नहीं मिलता। पंजाब के दलितों के वोट इस बार किसकी किस्मत खोलेंगे, यह जानने के लिए बस थोड़ा इंतजार और करना होगा।


लेखक विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार हैं


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