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कौटिल्य से शेक्सपियर तक

जागरण मेहमान कोना
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प्रणब मुखर्जी का बजट जितना निराशाजनक रहा उतना ही नीरस भी। रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी के रूखे बजट भाषण और उसके बाद खड़े हुए हंगामे के पश्चात उम्मीद थी कि प्रणब दा अपने भाषण में रवींद्रनाथ टैगोर, काजी नुजरुल इस्लाम या अन्य किसी कवि या लेखक की रचना को उद्धृत करेंगे। खैर, उन्होंने अपने को शेक्सपियर तक ही सीमित रखा। उनके पुराने बजट भाषणों पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि वह कौटिल्य से बहुत प्रभावित हैं। उन्होंने आधुनिक अर्थशास्त्र के जनक और सम्राट चंद्रगुप्त मौर्या के प्रधानमंत्री कौटिल्य को साल 1984 के आम बजट, जुलाई 2009 में पेश अंतरिम बजट और साल 2009-10 के आम बजट में उद्धृत किया था। 24 जुलाई 1991 को राजीव गांधी की सरकार में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने बजट भाषण में फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो की एक पंक्ति कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसके आने का वक्त आ चुका है दोहराई थी। हालांकि, कुछ जानकारों का मानना है कि ह्यूगो का वास्तविक भाव वह नहीं था जो मनमोहन सिंह ने व्यक्त किया था। ह्यूगो की कविता का अर्थ है कि हम लोग सैन्य हमले का विरोध कर सकते हैं, लेकिन विचारों के हमलों को रोकना नामुमकिन है। उस बजट भाषण में उन्होंने गालिब का शेर भी पढ़ा था।


भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने वित्तमंत्री के रूप में 1998-99 के अपने पहले बजट भाषण के दौरान रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियों का उद्धरण पेश किया था-अंधेरी रात के सितारों का रंग फीका पड़ रहा है, अब पूरा आसमान तुम्हारा है। अपने कार्यकाल के दौरान पी चिदंबरम ने तमिल कवि तिरुवल्लुवर की पंक्तियों को सदन में दोहराया था। इसका अर्थ है- धन बढ़ाने लायक बनो, इसे संभालो और इसकी रक्षा करो; और बेहतर है इसे बांटो और अपनी बेहतर पहचान बनाओ। चिदंबरम ने अपने पहले बजट भाषण के दौरान ये लाइनें पढ़ी थीं। जसवंत सिंह कभी बजट की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के कायल नहीं रहे। मोरारजी देसाई भी रूखे-सूखे बजट भाषण देते थे। वीपी सिंह के बजट भाषण भी विशुद्ध आंकड़ेबाजी से भरे होते थे। उनमें तमाम योजनाओं-परियोजनाओं के प्रस्ताव तो रहते थे, पर कविता आदि नहीं होती थी। हालांकि वह कोमल मन के थे, चित्रकार थे, फिर भी उनके बजट भाषण खासे बोर करते थे। इसमें कोई शक नहीं है कि बजट भाषणों को सुनना आपके धैर्य की परीक्षा लेता है, पर उसमें कविता या शेर का तड़का लगने से मजा आ जाता है।


सदन में मौजूद सदस्य भी गद्गद हो जाते हैं। अपने रेलमंत्री के कार्यकाल के दौरान ममता बनर्जी भी शेरो-शायरी करती थीं। हालांकि उनकी सदन में कुछ विपक्षी सदस्यों के साथ नोकझोंक भी हो जाती थी, पर दीदी शेरो-शायरी और दोहे-कविताओं से सबको प्रभावित कर लेती थी। अपने पिछले बरस के बजट भाषण में दीदी ने शहीदों के सम्मान में की जाने वाली घोषणाओं से पूर्व लता मंगेशकर द्वारा गाए एक प्रसिद्ध गीत की पंक्तियां कुछ इस प्रकार पढ़ी थीं, कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गोरखा कोई मद्रासी, सरहद पर मरने वाला हर वीर था भारतवासी। जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी।


ममता बनर्जी से पहले रेलमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव तो शेरो-शायरी और लच्छेदार बातों से भाषण में मजा बांध देते थे। अपनी नेता की तर्ज पर इस बार रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने बहुत से शेर सुनाए। उनमें से एक इस तरह से था। हाथ की लकीरों से बनती जिंदगी नहीं अगर हममें चेष्टा न हो इसे बनाने की। उनकी शेरो-शायरी में गंभीरता नहीं थी। उनके अधिकतर शेर स्तरीय नहीं थे। और अगर अंत में विकास, जीडीपी, लोक लुभावन योजनाओं, टैक्स में राहत से हटकर बात करें तो वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का बजट भाषण कोई छाप नहीं छोड़ सका।


लेखक विवेक शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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