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चूके तो, चुक जाएंगे

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
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दस्तूर तो यही है कि बजट को नीतियों से सुसज्जित, दूरदर्शी और साहसी होना चाहिए। दस्‍तूर यह भी है कि जब अर्थव्‍यवस्‍था लड़खड़ाये तो बजट को सुधारों की खुराक के जरिये ताकत देनी चाहिए और दस्‍तूर यह भी कहता है कि पूरी दुनिया में सरकारें अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मंदी और यूरोप की मुसीबत से बचाने हर संभव कदम उठाने लगी हैं, तो हमें भी अंगड़ाई लेनी चाहिए। मगर इस सरकार ने तो पिछले तीन साल फजीहत और अफरा तफरी में बिता दिये और देखिये वह रहे बड़े (लोक सभा 2014) चुनाव। 2012 के बजट को सालाना आम फहम बजट मत समझिये, यह बड़े और आखिरी मौके का बहुत बडा बजट है क्‍यों कि अगला बजट (2013) चुनावी भाषण बन कर आएगा और 2014 का बजट नई सरकार बनायेगी। मंदी के अंधेरे, दुनियावी संकटों की आंधी और देश के भीतर अगले तीन साल तक चलने वाली चुनावी राजनीति बीच यह अर्थव्‍यव‍स्‍था के लिए आर या पार का बजट है यानी कि ग्रोथ,साख और उम्‍मीदों को उबारने का अंतिम अवसर। इस बार चूके तो दो साल के लिए चुक जाएंगे।

उम्‍मीदों की उम्‍मीद

चलिये पहले कुछ उम्‍मीदें तलाशते हैं, जिन्‍हें अगर बजट का सहारा मिल जाए तो शायद सूरत कुछ बदल जाएगी। पिछले चार साल से मार रही महंगाई, अपने नाखून सिकोड़ने लगी है। यह छोटी बात नहीं है, इस महंगाई ने मांग चबा डाली, उपभोक्‍ताओं को बेदम कर दिया और रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरें बढ़ाईं की ग्रोथ घिसटने लगी। दिसंबर के अंत में थोक कीमतों वाली मुद्रास्‍फीति बमुश्मिल तमाम 7.40 फीसदी पर आई है। महंगाई में यह गिरावट एक निरंतरता दिखाती है, जो खाद्य उत्‍पाद सस्‍ते होने के कारण आई जो और भी सकारात्‍मक है। महंगाई घटने की उम्‍मीद के सहारे रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरों की कमान भी खींची है। उम्‍मीद की एक किरण विदेशी मुद्रा बाजार से भी निकली है। 2011 की बदहाली के विपरीत सभी उभरते बाजारों में मुद्रायें झूमकर उठ खडी हुई हैं। रुपया, पिछले साल की सबसे बुरी कहानी थी मगर जनवरी में डॉलर के मुकाबले रुपया चौंकाने वाली गति से मजबूत हुआ है। यूरोप को छोड़ बाकी दुनिया की अर्थव्‍यव्‍स्‍थाओं ने मंदी से जूझने में जो साहस‍ दिखाया, उसे खुश होकर निवेशक भारतीय शेयर बाजारों की तरफ लौट पडे। जनवरी में विदेशी निवेशकों ने करीब 5 अरब डॉलर भारतीय बाजार में डाले जो 16 माह का सर्वोच्‍च स्‍तर है। जनवरी में निर्यात की संतोषजनक तस्‍वीर ने चालू खाते के घाटे और रुपये मोर्चे पर उम्‍मीदों को मजबूत किया है। उम्‍मीद की एक खबर खेती से भी आ रही है। उपेक्षा और समस्‍याओं के बावजूद इस साल अनाज उत्‍पादन की सूरत ठीक ठाक है। खासतौर पर पूर्वी भारत में पैदावार बढ़ी है जो उम्‍मीद को बेहतर करती है। यानी कि तमाम विपरीत माहौल के बावजूद शेयर बाजार से खेत तक छोटी छोटी उम्‍मीदें उगने लगी हैं, जो बजट की तरफ हसरत के साथ निहार रही हैं।

अंधेरे की उलझन
अंधेरों का साम्राज्‍य कुछ ज्‍यादा बडा है। राजकोषीय घाटा सभी उम्‍मीदों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है। भारतीय बजट का यह बेहद जटिल व पुराना रोग फिर वापस लौट रहा है। घाटा राजस्‍व और खर्च दोनों मोर्चों पर समस्‍याओं से उपजा है। उत्‍पादन में गिरावट ने राजस्‍व संग्रह घट गया है। सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर भी पैसा नहीं आया इस बीच खर्च ने छलांगे भरीं और सब्सिडी बिल एक लाख करोड़ रुपये को पार गया। दिसंबर में राजकोषीय घाटा बजट के आकलन का करीब 93 फीसदी हो गया था यानी कि 4.6 फीसदी ऊपर निकलना तय है। भारत की रेटिंग घटाने की चेतावनी दे रही अंतरराष्‍ट्रीय रेटिंग एजेंसियां इस घाटे को लेकर इतनी बेचैन इसलिए है क्‍यों कि घाटे के साथ एक दुष्‍चक्र बनता दिख रहा है। औद्योगिक मंदी के कारण राजस्‍व बढ़ने की उम्‍मीद कम है जबकि खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसे बड़े खर्च आइटम एजेंडे पर हैं यानी खर्च कम करने की गुंजायश नहीं है। सरकार का कर्ज राजकोषीय घाटे का दूसरा नाम है। नए वित्‍त वर्ष में सरकार रिकार्ड कर्ज उठायेगी, जिसका नकारातमक असर ब्‍याज दर कम करने की कोशिशों पर होगा। राजकोषीय घाटे ने अर्थव्‍यवस्‍था में बहुत सी मुसीबतें पैदा की हैं, 2012 में यह अंधेरा फिर घिर सकता है। घाटा वित्‍त मंत्री की मुश्‍कें कस चुका है इसलिए कोई बड़ी रियायत उन्‍हें भारी पड़ेगी।

कई मौकों का मौका
दिलचस्‍प है कि उम्‍मीदों बनाम चुनौतियों की यह असंगति वित्‍त मंत्री के लिए मुसीबत नहीं बलिक मौका बन गई है। राजकोषीय चुनौतियों को सामने रखकर अधिक उदारता की उम्‍मीदों को संतुलित किया जा सकता है और मंदी की चुनौतियों को सामने रखकर साहस और दूरदर्शिता दिखाई जा सकती है, बशर्ते राजनीतिक साहस बचा हो। निजी बैंकों को इजाजत, बैंकों व उड्डयन क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमाओं का उदारीकरण कर वितत मंत्री इसे सुधार का बजट बना सकते हैं। रिटेल में विदेशी निवेश की फाइल फिर खोलने का संकेत भी वित्‍त मंत्री को हिम्‍मती सिद्ध करेगा। कर सुधारों का अगला एजेंडा संयोग से राजस्‍व में बढ़ोत्‍तरी की रणनीति से मेल खाता है। उत्‍पाद शुल्‍क की दर में बढ़ोत्‍तरी (10 से 12 फीसदी) राजस्‍व भी लाएगी और जीएसटी (12 फीसदी की बेंचमार्क दर) की तैयारी से भी मेल खायेगी। ठीक इसी तरह कर के दायरे में नई सेवायें लाने पर किसी को गुरेज नहीं होगा। नई प्रत्‍यक्ष कर संहिता को पारित कराने में देरी न केवल कर कानूनों में उलझन बढा रही है बलिक राजस्‍व का नुकसान भी कर रही है। इस संहिता के कई प्रावधान कालेधन और विदेश में जमा पैसे पर सख्‍त हैं और मनी लॉड्रिंग पर नए नियमों के माकूल हैं यानी कि आर्थिक अपराधों के खिलाफ सख्‍त दिखने का मौका भी मिल रहा है।

यह बजट तीन विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद आएगा। इसके बजट के ठीक बाद कई अन्‍य राजयों में चुनाव की तैयारी शुरु होगी जो चौदह के लोकसभा चुनाव तक जाएगी। यानी घोर सियासत के माहौल में आर्थिक उम्‍मीदों के लिए यह आखिरी मौका है। पिछले बजट के बाद एक साल में सिर्फ घोटाले, सियासत और मुसीबतें बढ़ी हैं और सरकार कहीं गुम हो गई है। आर्थिक चुनौतियां खुली किताब की तरह हैं और समाधानों को लेकर कहीं कोई दो राय नहीं है। यह बजट सरकार की आर्थिक सूझ से कहीं ज्‍यादा साहस का इम्‍तहान है। बजट से उम्‍मीदें जरुर जोडि़ये कि क्‍यों कि 16 मार्च की शाम यह तय हो जाएगा कि उपभोक्‍ताओं, निवेशकों, उद्योगों, रोजगार के लिए अगले दो साल कैसे होंगे।

इस आलेख के लेखक अंशुमान तिवारी हैं


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