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विकास चुनने का वक्त

जागरण मेहमान कोना
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उत्तर प्रदेश के चुनाव में औद्योगिक प्रगति के लिए समर्पित लोगों की जीत की अपेक्षा कर रहे हैं जीएन वाजपेयी


अर्थव्यवस्था के दुर्ग का निर्माण निवेश की ईंटों से होता है। निवेश में वित्तीय, भौतिक और मानव पूंजी शामिल होती है। हालांकि इसमें सबसे अहम भूमिका वित्तीय संसधान ही निभाते हैं। असल में वित्तीय पूंजी के विनियोजन से ही उद्यमिता और साथ ही अर्थव्यवस्था की यात्रा शुरू होती है। वित्तीय पूंजी का प्रवाह निजी और सरकारी, दोनों स्तरों से होता है। अनुभवजन्य शोधों से पहले ही सिद्ध हो चुका है कि सार्वजनिक सत्ता की तुलना में निजी व्यक्तियों द्वारा प्रबंधन आर्थिक रूप से अधिक उत्पादक है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी सरकार की ओर से वित्तीय व्यवस्था आम तौर पर भौतिक और सामाजिक ढांचा खड़ा करके ही की जाती है। इसके अलावा उन क्षेत्रों में सरकार निवेश करती है जिनमें निजी उद्यमी निवेश से हिचकते हैं। स्पष्ट है, उद्यमिता के निर्माण में वित्तीय पूंजी का निजी निवेश ही अगुवाई करता है। इसमें वह भौतिक और मानव पूंजी का भी उपयोग करता है।


विगत दो दशकों से उत्तर प्रदेश में निजी निवेश को प्रोत्साहन देने का रेकॉर्ड बड़ा हताशाजनक है। वास्तव में, सातवें दशक के अंत में औद्योगिक संबंधों के बल पर उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ पूंजी का सफर नागरिक प्रशासन और अवांछित तत्वों की वसूली के चलते थम गया। प्रदेश में उद्योग-धंधों के लिए प्रतिकूल माहौल बन गया और इससे निजी निवेश पर ग्रहण लग गया। उस समय कानपुर को उत्तर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी माना जाता था। एक समय था जब वहां बड़ी-बड़ी कपड़ा, जूट, चमड़ा और वूलेन मिल हुआ करती थीं। मिलों में मशीनों के चलने की घरघराहट पूरे शहर में सुनी जा सकती थी। अब वहां मरघट-सी शांति है। यह यात्रा संबद्ध उद्योगों के उलटे चक्र से शुरू हुई। कानपुर और इसी के साथ पूरे उत्तर प्रदेश में उद्योगों के मरने में सरकारी नीतियां भी जिम्मेदार हैं। प्रदेश के अन्य बड़े शहरों की कहानी भी कानपुर से जुदा नहीं है। उत्तर प्रदेश में औद्योगिक और व्यापारिक माहौल इतना हताशाजनक है कि यहीं पले-बढ़े बैंकिंग उद्योग के प्रबंधक भी प्रदेश में उद्योग चलाने के बजाय महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और गुजरात जैसे अन्य राज्यों का रुख कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के माहौल को देखते हुए ही बैंक यहां ऋण देने से कतराते हैं और जो ऋण जारी करते भी हैं उनमें अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं। 31 मार्च, 2011 के आंकड़ों के अनुसार, क्रेडिट-डिपाजिट अनुपात यानी राज्य से प्राप्त जमाराशि और इसमें से राज्य में धनराशि निवेश करने [ऋण देने] का अनुपात उत्तर प्रदेश में महज 43.6 है। इसकी तुलना में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और गुजरात में यह अनुपात क्रमश: 81.3, 72.5, 114.1 और 66.3 प्रतिशत है। चीनी उद्योग के तमाम दिग्गज उत्तर प्रदेश से आजिज आ चुके हैं और प्रदेश में इस उद्योग की प्रचुर संभावनाओं के बावजूद जल्द से जल्द यहां से निकलना चाहते हैं।


नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद और इनसे लगे इलाकों में आवास व निर्माण क्षेत्र में आए उछाल के कारण आर्थिक पुनरुत्थान में हल्की-सी उम्मीद बंधी है। हालांकि इन क्षेत्रों में निवेश राज्य सरकार के प्रयासों के बजाय दिल्ली के बगल में अवस्थित होने और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शामिल होने के कारण हुआ है। यह बताने की जरूरत नहीं कि आइटी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश बुरी तरह पिछड़ गया है। सॉफ्टवेयर, बीपीओ और केपीओ उद्योगों से अन्य राज्यों की अर्थव्यवस्था को काफी लाभ मिला है।


यह महत्वपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश में राजनेताओं को ऐसे विधेयक लाने चाहिए और कानूनों में संशोधन करना चाहिए जिनसे प्रदेश में निजी निवेश को प्रोत्साहन मिलने के साथ-साथ लोगों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। प्रेरणा घरेलू निवेशकों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के लिए भी होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश को गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों के साथ कड़ा मुकाबला करना पड़ेगा, क्योंकि ये राज्य पहले ही निवेशकों को आकर्षित करने में आगे हैं। विधायिका से भी अधिक महत्वपूर्ण है प्रदेश के राजनेताओं और नौकरशाहों का रवैया। अगर ये विकास के प्रति ललक दिखाएं तो इससे बड़ा अंतर पड़ जाएगा। यहां तक कि उत्तर प्रदेश की विकास परिषद का गठन हुए एक दशक से अधिक हो गया है, किंतु अब तक कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकले हैं। परिषद निजी पूंजी के स्वामियों को यह भरोसा दिलाने में विफल रही है कि एक बड़ा प्रदेश होने के नाते यहां अवसरों और मुनाफा कमाने की प्रबल संभावनाएं हैं। सरकार को निवेशकों को आश्वस्त करना चाहिए कि राज्य में संपदा की रचना, साझेदारी और स्वामित्व के लिए वह राजनीतिक कार्यपालिका में अपेक्षित बदलाव के लिए तैयार है।


उत्तर प्रदेश में निजी निवेश का अनुकूल माहौल लंबे समय से राजनीतिक सत्ता और नौकरशाही के जाल में फंसा हुआ है। सरकार को समझना चाहिए कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। इसलिए अल्पकालिक व मध्यकालिक लाभों का लालच छोड़ते हुए बिना देरी किए विकास की यात्रा शुरू कर देनी चाहिए। अंतत: सरकार को कामयाबी जरूर मिलेगी। इस संदर्भ में गुजरात और बिहार के उदाहरण उल्लेखनीय है। गुजरात को माहौल बनाने में सात साल लगे। आज उद्योग जगत का प्रत्येक दिग्गज गुजरात में इकाई स्थापित करने का उत्सुक है। बिहार के मामले में सरकार को निवेश लायक माहौल बनाने में पांच साल तक काम करना पड़ा। वहां अब जाकर निवेश की शुरुआत हुई है।


उत्तर प्रदेश का आर्थिक विकास अनेक दशकों से सुसुप्तावस्था में है। इस कारण उत्तर प्रदेश के लोग विकास के सफर में पिछड़ गए हैं। देश के अन्य भागों की बराबरी करने के लिए उत्तर प्रदेश को आर्थिक माहौल बनाने के बाद उद्यमियों को न्यौता देना होगा। अब बदलाव का समय आ गया है। मतदाताओं को ऐसे लोगों को चुनना चाहिए जो प्रदेश में अर्थव्यवस्था के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए लोकप्रिय और अलोकप्रिय, दोनों तरह के फैसले लेने में सक्षम हों और जिनमें विकासोन्मुख दृष्टिकोण होने के साथ-साथ इसे क्रियान्वित करने की इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता हो। इसके अतिरिक्त वे लोगों की संपन्नता को संकीर्ण जातीय, पंथिक और राजनीतिक हितों की बलि न चढ़ा दें।


लेखक जीएन वाजपेयी सेबी और एलआइसी के पूर्व अध्यक्ष हैं


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