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पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों की प्रतिष्ठा सर्वाधिक उत्तर प्रदेश में दांव पर लगी है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल करने की जद्दोजहद में है तो अन्य क्षेत्रीय दल अपना प्रभाव बढ़ाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। राज्य में अपना वोट प्रतिशत किसी भी तरीके से बढ़ाने पर आमादा राजनीतिक दल राजनीति के बहाने प्रदेश की जनता की मूलभूत समस्याओं की अनदेखी कर ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं, जिनसे उत्तर प्रदेश सांप्रदायिक और जात-पांत की राजनीति का गढ़ बनता जा रहा है। हालांकि उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म की राजनीति नई नहीं है, मगर अब यहां की जनता समाज तोड़ने वाली राजनीति से थक गई है। जनता अब विकास चाहती है, मगर पता नहीं क्यों हमारे राजनीतिक दल यह समझना ही नहीं चाहते? कोई मुस्लिम आरक्षण की पैरवी कर रहा है तो कोई दलितों के नाम को भुनाना चाहता है। कोई जातिगत समीकरणों के चलते प्रत्याशी घोषित कर रहा है तो कोई दागी-बागी को अपने पाले में लाने को आतुर दिख रहा है।
लब्बोलुवाब यह है कि सभी राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से प्रदेश की जनता को हांकना चाहते हैं। कोई भी यह समझने को तैयार नहीं कि आखिर उत्तर प्रदेश की जनता चाहती क्या है? पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार से हजारों की संख्या में नवजात शिशुओं और अबोध बच्चों की असमय मौत हो जाती है। स्थानीय प्रशासन सहित राज्य सरकार इस भयावह स्थिति को काबू करने में नाकाम साबित होती है। यह कोई एक साल का वाकया नहीं, बल्कि हर साल घटने वाली हृदय विदारक घटना है। हर राजनीतिक दल इतनी बड़ी घटना को मुद्दा बनाने में नाकाम रहा है या यों कहें कि किसी ने भी इसे लेकर गंभीरता नहीं दिखाई है। इसी क्षेत्र में नेपाल से आने नदियों में हर साल आने वाली बाढ़ से बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान होता है। लोगों का बढ़ता पलायन, अशिक्षा, गरीबी जैसे कई ज्वलंत मुद्दे क्षेत्र के विकास पर हावी हैं, मगर राजनीतिक दलों को इसकी कोई चिंता ही नहीं है। चिंता है तो इस बात की कि जातियों को कैसे तोड़ा जाए कि अपना भला हो। बुंदेलखंड की दुर्दशा तो किसी से नहीं छुपी है। भयंकर सूखे की मार झेल रहा यह क्षेत्र पलायनवाद की जीवंत तस्वीर पेश करता है। गांव के गांव खाली हो गए हैं और लोग आजीविका के लिए घुमंतू बनते जा रहे हैं। पृथक बुंदेलखंड राज्य को लेकर राजनीति चरम पर है तो मनरेगा और बुंदेलखंड पैकेज का सारा धन नेताओं की सफेद कमीज में काला हो गया। लोगों में असंतोष बढ़ता जा रहा है, मगर राजनीतिक दल हैं कि अब भी उनके जख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं।
आर्थिक रूप से संपन्न पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा छाया हुआ है, किसानों के हितों पर जमकर कुठाराघात हो रहा है। मगर राजनीतिक दल यहां के जाट वोटों में अपनी जीत तलाश रहे हैं। सभी उन्हें साधने में लगे हैं। राजनीतिक दलों की चिंता इस बात को लेकर अधिक है कि कोई बिरादरी एकमुश्त अपने वोट किसी और को न दे दे। वोटों के समीकरण दोस्ती-दुश्मनी बढ़ा रहे हैं। दल-बदलुओं की जमकर चांदी कट रही है। मुद्दे असंख्य हैं, मगर राजनीतिक परिदृश्य से गायब हैं। आम आदमी का जीना मुहाल है और हर पार्टी सुशासन देने का दावा कर रही है।
क्या हो गया है हमारी राजनीतिक व्यवस्था को? क्यों हमारा समाज राजनीति में व्याप्त गंदगी को बर्दाश्त करने को बाध्य है? क्यों राजनीतिक दल लोकतंत्र के नाम पर लूटतंत्र मचाते जा रहे हैं और कोई उन्हें रोकने वाला नहीं? संसदीय अस्मिता के नाम पर कब तक आम आदमी का शोषण होगा? क्यों राजनीति के नाम पर समाज को बांट दिया जाता है और कोई कुछ नहीं कर पाता? किसी के पास हैं इन जैसे प्रश्नों के उत्तर? हम बात तो गंदगी साफ करने की करते हैं, मगर उसमें उतरने से डरते हैं। इस बार के चुनाव उत्तर प्रदेश की जनता को वह सुनहरा अवसर दे रहे हैं कि वह अपने हितों का प्रयोग कर देश के समक्ष एक उदाहरण पेश करे। जनता राजनीतिक दलों की समाज बांटने वाली राजनीति को सिरे से नकार विकास को प्रमुखता दे। आपराधिक एवं दागी छवि वाले प्रत्याशियों को किसी भी कीमत पर वोट न दें। अगर राजनीति को सही मायनों में लोक हितकारी तथा जनकल्याणकारी बनाना है तो आम आदमी को ही आगे आना होगा। माना कि वर्षो से जमी गंदगी को साफ करने में वक्त लगता है, मगर यह कार्य असंभव नहीं होता। राजनीति की जो परिभाषा हमारे स्वार्थी नेताओं ने बना दी है, उसे बदलना ही होगा।
लेखक सिद्धार्थशंकर गौतम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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