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रवि और जॉय मुखर्जी का जाना

जागरण मेहमान कोना
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इस बार की होली हिंदी सिनेमा के लिए कुछ गमगीन रही, क्योंकि रंगों के इस त्योहार से एक दिन पहले महान संगीतकार रविशंकर शर्मा और एक दिन बाद गुजरे जमाने के सदाबहार अभिनेता जॉय मुखर्जी हम लोगों का साथ छोड़कर दुनिया-ए-फानी से कूच कर गए। दोनों की मृत्यु ऐसे राजनीतिक शोर-शराबे और होली के उल्लास के बीच हुई कि मीडिया में भी खास चर्चा नहीं मिल सकी, लेकिन इससे उनकी महत्ता कम नहीं हो जाती। सिनेमाई जगत में संगीतकार रवि के नाम से मशहूर रविशंकर शर्मा ने 70 से ज्यादा हिंदी फिल्मों और कुछ मलयाली फिल्मों में संगीत दिया। रवि की महत्ता इसलिए है कि उन्होंने हिंदी सिनेमा के उस स्वर्णिम काल में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई, जिस काल में नौशाद, शंकर-जयकिशन, कल्याणजी-आनंदजी, ओपी नैयर और सचिन देव बर्मन जैसे कई मूर्धन्य संगीतकारों की बेमिसाल धुनों से भारतीय सिनेमा खुद पर इतरा रहा था। बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने वाले रवि वास्तव में गायक बनना चाहते थे, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। तीन मार्च 1926 को दिल्ली में पैदा हुए रवि ने बचपन में रेडियो पर 1939 में आई फिल्म पुकार का एक भजन तुम बिन मेरी कौन खबर ले गिरधारी.. सुना और उन्हें यह भजन इतना पसंद आया कि उसे बखूबी याद किया और स्कूल में कई बार इसे गाकर लोगों की शाबाशी भी बटोरी। इस शाबाशी का असर यह हुआ कि वह खुद की एक गायक के रूप में पहचान बनाने का ख्वाब देखने लगे। हालांकि रवि ने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी, लेकिन भजन गायक के बेटे होने के नाते पिता से भजन गाने की कला सीखी।


गाने और संगीत की धुन के आगे रवि ज्यादा पढ़ाई-लिखाई नहीं कर सके और दिल्ली में डाक-तार विभाग में 196 रुपये मासिक की पगार पर बतौर इलेक्टि्रशियन नौकरी ज्वाइन कर ली। रवि खुद को एक बड़ा गायक बनाने के लिए नौकरी से कुछ समय के लिए छुट्टी लेकर बंबई (अब मुंबई) चले गए। वहां जाने पर उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा और अंतत: नौकरी छोड़नी पड़ी। संघर्ष के शुरुआती दिनों में उन्हें मलाड रेलवे स्टेशन और फुटपाथ पर भी कई रातें बितानी पड़ी। रवि का फिल्मी संघर्ष 1952 में जाकर तब थमा, जब उन्हें फिल्म श्रीमती जी में संगीत दे रहे संगीतकार जिम्मी के साथ काम मिल गया। इसी फिल्म के एक गाने की रिकॉर्डिग के लिए गीता दत्त के साथ स्टूडियो आए हेमंत कुमार से उनकी मुलाकात हुई। हेमंत दा तब फिल्मों में गाने के अलावा संगीत भी दिया करते थे। इसी साल वह बंकिमचंद चटर्जी द्वारा रचित उपन्यास आनंद मठ पर बन रही फिल्म में संगीत दे रहे थे, जिसके एक गाने वंदे मातरम् में उन्होंने रवि को कोरस गाने का मौका दिया। धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती प्रगाढ़ होती गई और कुछ ही समय में रवि हेमंत दा के सहायक बन गए। अलबेली (1955) के बाद रवि की संगीतबद्ध दूसरी फिल्म वचन (1955) से उन्हें आशातीत सफलता मिली। इस फिल्म में चंदा मामा दूर के बाल गीत आज भी जनमानस में काफी लोकप्रिय है। इस फिल्म की सफलता के बाद हेमंत दा ने रवि को स्वतंत्र संगीत देने की सलाह दी, जिससे वह काफी निराश हुए। उन्हें लगा कि काम पाने के लिए फिर से संघर्ष करना पड़ेगा, लेकिन कुछ फिल्मों में संगीत देने के बाद उन्हें गुरुदत्त की फिल्म चौदहवीं का चांद (1960) में संगीत देने का बुलावा आया।


रवि को बेइंतहा सफलता और लोकप्रियता गुरुदत्त की इसी क्लासिकल फिल्म से मिली। इस फिल्म में चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो.. समेत कई गाने आज भी खूब सुनाई देते हैं। इस फिल्म की अपार सफलता के बाद वह बड़े संगीतकारों में शुमार हो गए। उन्हें अब गुरुदत्त के अलावा बीआर चोपड़ा जैसे बड़े फिल्मकारों से भी काम मिलने लगा। बीआर फिल्म्स से वह लंबे समय तक जुड़े रहे। उन्होंने बीआर फिल्म्स के लिए वक्त (1965), गुमराह (1963), हमराज (1967) और निकाह (1982) जैसी कई फिल्मों में अमर संगीत दिया। किंग ऑफ सॉफ्ट मेलोडीज कहे जाने वाले रवि ने एक से बढ़कर एक कर्णप्रिय संगीत तैयार किए। घूंघट (1960), घराना (1961), चाइना टाउन (1962), राखी (1962), भरोसा (1963), दूर की आवाज (1964), काजल (1965), दो बदन (1966), औरत (1967), दो कलियां (1968), नीलकमल (1968), आंखें (1968) और एक फूल दो माली (1969) उनकी बेहतरीन संगीत से सजी कुछ चुनिंदा फिल्में हैं। इसके अलावा उन्होंने कई मलयाली फिल्मों में भी बंबई रवि के नाम से संगीत दिया। उनके द्वारा लयबद्ध एक गाना आज भी शादी-विवाह में जरूर बजता है और वह है आज मेरे यार की शादी है..। इसके अलावा विवाह से ही जुड़े अमर गीत मेरा यार बना है दूल्हा.., बाबुल की दुआएं लेती जा.. और डोली चढ़के दुल्हन ससुराल चली.. भी खूब बजते हैं। वहीं रूठी दादी को मनाने के लिए एक गाना दादी अम्मा-दादी अम्मा, मान जाओ.. (घराना) भी रचा। इसके अलावा उनके कुछ बेहद मकबूल नगमे हैं- ओ मेरी जोहराजबीं.., तुझे सूरज कहूं या चंदा.., चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं.., दिल के अरमां आंसुओं में बह गए.. आदि। महज चार दिन पहले अपना 86वां जन्मदिन मनाने वाले संगीतकार रवि के जाने के गम से अभी उबरे भी नहीं थे कि होली के अगले दिन एक और दुखद खबर मिली कि रोमांटिक हीरो जॉय मुखर्जी नहीं रहे। 73 साल की उम्र में मुंबई में लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। महान अभिनेता अशोक कुमार के भांजे और फिल्मालय स्टूडियो के संस्थापक शशिधर मुखर्जी का पुत्र होने के नाते उन्हें अपना फिल्मी करियर शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई, लेकिन अपनी प्रतिभा के दम पर जल्द ही वह लवर ब्वाय के रूप में स्थापित हो गए।


लव इन शिमला (1960) से करियर की शुरुआत करने वाले जॉय मुखर्जी ने फिर वही दिल लाया हूं, लव इन टोक्यो, जिद्दी, एक मुसाफिर एक हसीना, दूर की आवाज, शागिर्द और एक कली मुसकाई जैसी कई सुपर हिट फिल्में की। उनकी उपलब्धि यह है कि उन्होंने अपनी पहचान उस समय बनाई, जब राज कपूर, देवानंद, दिलीप कुमार और शम्मी कपूर का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था। लंबे-चौड़े कद काठी वाले जॉय फिल्मी पर्दे पर हमेशा कातिल मुस्कान लिए होते थे। उन्हें अपनी फिल्में इस कदर पसंद थी कि खाली वक्त उन्हें देखा करते थे। रवि ने दूर की आवाज (1964) और बहू बेटी (1965) समेत जॉय मुखर्जी की कुछ फिल्मों संगीत दिया था। बेहद अफसोस की बात है कि ढेरों कर्णप्रिय गाने रचने वाले रवि के जीवन के अंतिम दिन सुखद नहीं रहे। पिछले साल उन्होंने आरोप लगाया कि उनके पुत्र अजय और बहू वर्षा उसगांवकर ने उन्हें उनके बंगले से बेदखल कर दिया। हालांकि हर किसी के जीवन का उजला और स्याह पक्ष होता है।


इस आलेख के लेखक सुरेंद्र कुमार वर्मा हैं


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