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सशक्त कानूनी प्रावधानों के बिना आदर्श चुनाव आचार संहिता को निष्प्रभावी मान रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
युद्ध और प्यार की आचार संहिता नहीं होती। चुनावी जंग अभी पूरी तरह शुरू भी नहीं हुई कि बड़े-बड़े खिलाड़ी फाउल करने लगे। ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता’ तार-तार है। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने संविधान विरोधी मजहबी आरक्षण को नौ प्रतिशत तक ले जाने की घोषणा की। आयोग ने उन्हें नोटिस दिया। उन्होंने नोटिस का मजाक बनाया। आयोग ने मजहबी आरक्षण रोक दिया है। मुख्यमंत्री मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढकने के आदेश से बसपा बौखला गई। उसने आयोग के आदेश को दलित स्वाभिमान पर प्रहार बताया है। राज्य सरकार के दो वरिष्ठ मंत्री चुनाव आयुक्त से मिलने सरकारी कार से गए। एक मंत्री कुशीनगर में आचार संहिता तोड़ने के आरोपी हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री रामलाल राही व उनके समर्थकों पर आचार संहिता तोड़ने का मुकदमा है। जद[यू] के शरद यादव पर भी लालबत्ती वाली कार से सभा में जाने का आरोप है। जौनपुर के कांग्रेस प्रत्याशी की गिरफ्तारी भी हुई है। सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह व राज्य कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा भी आचार संहिता तोड़ने के आरोपी है। ऐसे ही आरोप सभी दलों पर हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ही आदर्श चुनाव आचार संहिता उल्लंघन के लगभग 300 मामले दर्ज हो चुके हैं। निर्वाचन आयोग सख्त है, लेकिन उसकी सीमा है। आदर्श चुनाव आचार संहिता का कोई कानूनी दर्जा नहीं है।
आदर्श चुनाव आचार संहिता चुनावी प्रणाली का सामान्य विकास है। स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनाव में कोई आचार संहिता नहीं थी। आयोग ने चुनाव बाद राजनीतिक दलों/प्रत्याशियों के लिए पालनीय दिशा-निर्देश जारी किए। 1961 में चुनाव नियम बने। आयोग ने 1968 में ‘चुनाव चिन्ह आरक्षण व आवंटन आदेश’ जारी किया। यह एक साधारण आदेश था, लेकिन इसकी कानूनी शक्ति संविधान, लोक प्रतिनिधित्व कानून व चुनाव नियम 1961 में निहित थी। आदर्श आचार संहिता तो भी अस्तित्व में नहीं थी। जनतंत्र का मुख्य उपकरण दलतंत्र है। दलतंत्र में न जनतंत्र है और न आचार संहिता। सत्ता ही मुख्य उद्देश्य है। चुनाव में सत्ता का दुरुपयोग होता है। 1951 से लेकर 1990 तक सभी चुनावों में सत्ता तंत्र का दुरुपयोग था। बेशक जागृत जनमत ने 1977 के चुनावों में तानाशाह सत्तातंत्र के विरुद्ध वोट क्रांति की, लेकिन सत्तारूढ़ दल ढीठ ही बने रहे। टीएन शेषन ने पहली दफा आदर्श आचार संहिता के नाम पर एक निर्देशिका जारी की। उनके इस आदेश को अधिकार क्षेत्र से परे बताया गया, लेकिन शेषन डटे रहे। उन्होंने आयोग की हनक कायम की। आयोग ने 1994 में चुनाव चिन्ह आरक्षण आवंटन आदेश [1968] को संशोधित कर दिया। आयोग ने इसी के जरिए दलों पर शिकंजा कसा। तमाम आदेशों, सुधारों के बावजूद आदर्श चुनाव आचार संहिता को कानूनी ताकत नहीं मिली। संप्रति आचार संहिता के तोड़ने वालों को दंडित करने की सीधी कानूनी शक्ति का अभाव है। चुनाव आचार संहिता बेशक पालनीय है, लेकिन आयोग लाचार है। वह प्रशासन से संहिता तोड़ने वालों पर प्रचलित कानूनों में ही एफआइआर लिखवाता है। आचार संहिता को तोड़ना कोई कानूनी अपराध नहीं है।
आदर्श चुनाव आचार संहिता पौराणिक उपदेशों जैसी है। जैसे पुराणों में उपदेश न मानने वालों को दैवीय शक्तियां दंडित करती थीं, वैसे ही आचार संहिता तोड़ने वालों को प्रशासन तंत्र। चुनाव में बाहुबल, धनबल, सत्ताबल और शराब आदि के प्रभाव राष्ट्रीय चिंता हैं। आयोग इन्हें रोकना चाहता है। पुलिस शराबखानों पर छापे डाल रही है। ठीक बात है, लेकिन साधारण धनराशि लेकर चलने वालों के साथ पुलिस का व्यवहार गैरकानूनी है। व्यापारी परेशान हैं। प्रशासन तंत्र की भी कठिनाइयां हैं। लालबत्ती वाली कार पर मंत्री या सांसद का चलना किस कानून में दंडनीय है? पोस्टर चिपकाना किस कानून का उल्लंघन है? बेशक सार्वजनिक/सरकारी भवनों पर लिखना या पोस्टर लगाना गैरकानूनी है, लेकिन इसके लिए हर राज्य के अपने कानून हैं। लाउडस्पीकर का प्रयोग कानून में दंडनीय नहीं है। मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 144 लगाते हैं, इसके उल्लंघन पर भादवि की धारा 188 लगाते हैं। पुलिस स्टिकर लगी गाड़ियों को रोकती है। गाड़ी के कागज फाड़ देती है। चालान करती है। आदर्श आचार संहिता का पालन कराने वाले अपने अन्य अधिकारों का बेजा दुरुपयोग करते हैं। प्रशासन और पुलिस के विवेकाधिकार खतरनाक होते हैं। वे आचार संहिता के पालन के बहाने कानूनों का भी उल्लंघन करते हैं।
आयोग ने मजहबी आरक्षण पर रोक लगाई है, लेकिन चुनावी लाभ के लिए ही इसकी घोषणा करने वाली सत्ता के खिलाफ कोई भी कार्रवाई आयोग की क्षमता से बाहर है। केंद्र/राज्य के मंत्री आचार संहिता तोड़ रहे हैं। आयोग क्या कर लेगा? आचार संहिता [धारा 2] में दलों की नीतियों-कार्यक्रमों की ही आलोचना की अनुमति है। निजी आरोपों की मनाही है, लेकिन इसका पालन नहीं होता। इसी तरह धारा 1 में जाति, समुदाय या भाषायी समूहों के बीच अलगाववाद बढ़ाने वाले कृत्यों पर रोक है। यहां राष्ट्रीय एकता का संकल्प है, लेकिन राजनीति में राष्ट्र सर्वोपरिता का अभाव है। सत्तावादी दल जातीय-पंथिक उन्माद फैलाते हैं और आचार संहिता तोड़ते हैं। इक्का-दुक्का मामलों में मुकदमा होता है और वह भी भादवि में। आचार संहिता के उल्लंघन पर कहीं कोई सजा नहीं है। आचार संहिता एक खूबसूरत फैंटेसी है। इसका एक-एक वाक्य पालनीय है। निष्पक्ष, निर्भीक और स्वतंत्र मतदान का आधार है, लेकिन विधिक न होने के कारण बेमतलब है। बेशक इसका सम्मान होना चाहिए, लेकिन यहां सत्ता प्राप्ति के खेल में न कोई आदर्श है और न कोई आचार।
कोई भी संवैधानिक व्यवस्था इकहरी नहीं होती। इस व्यवस्था का स्त्रोत राजनीतिक व्यवस्था होती है। अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था भी होती है। संविधान में स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भीक मतदान का संकल्प है। राजनीतिक व्यवस्था को इस संकल्प के साथ खड़ा होना चाहिए, लेकिन भारत में दलतंत्र और आदर्श राजनीतिक संस्कृति का विकास नहीं हुआ। कांग्रेस ही लंबे समय तक सत्ता में रही। उसने सभी चुनावों में सामान्य आचार संहिता की धज्जियां उड़ाई। अन्य तमाम दलों ने भी यही सबक सीखा। चुनाव जीतना ही राजनीति का प्रथम और अंतिम लक्ष्य बना। हरेक समाज की अपनी आचार संहिता होती है, सांस्कृतिक आदर्शो में फलती-फूलती है। यही कानूनों का स्त्रोत भी है। दलतंत्र खेल के सामान्य नियम भी नहीं मानता तो आचार संहिता को कानून बनाना चाहिए। आयोग की सदाशयता प्रशंसनीय है, आदर्श चुनाव आचार संहिता भी प्रशंसनीय है, लेकिन व्यावहारिकता को जाने बिना आदर्श की प्राप्ति असंभव है।
लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं
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